हजारों की संख्या में रोज पत्रकार बनने वाले नवागंतुकों को छोड़ भी दें तो भी उन कथित पत्रकारों की संख्या भी सैकड़ों में है जो संसद की कार्यवाही के दौरान शुरूआत में तो दिखते हैं लेकिन जीरो आवर के बाद चाय, नाश्ता और मंत्रियों-संतरियों के साथ हाथ मिलाने और चाय पीने पिलाने के खेल में मशगूल हो जाते हैं। इनमें से ज्यादातर पत्रकारों का व्यवसाय पत्रकारिता से अलग विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लॉबिइंग करना, अपने लिए कुछ सरकारी साधनों व साध्यों का जुगाड़ करना आदि है।

हजारों की संख्या में अखबार और चैनलों की बाढ़ और सैकड़ों में संसद की रिपोर्टिंग करने पहुंचे पत्रकारों की भीड़ प्रैस गैलरी में तब ही तक देखा जाता है जब तक जीरो आवर चलता है। उसके बाद होने वाले चाय ब्रेक के बाद सभी पत्रकार अपने छिपे एजेंडे को पूरा करने में जुट जाते हैं। सबके अलग-अलग लक्ष्य होते हैं। कई कंपनियों की पैरवी करनी है, किसी मंत्री से कोई प्रोजेक्ट पास करवाना है आदि-आदि यही है इन पत्रकारों की समाज को जागृत करने की ‘कलम सेवा’।

दुखद यह है कि जीरो आवर के बाद होने वाले संसदीय क्वेश्चन आवर के दौरान प्रैस गैलरी बिल्कुल खाली-खाली नजर आती है सिवाय पीटीआई, यूएनआई, भाषा, वार्ता, ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन के पत्रकारों के अतिरिक्त इक्के दुक्के बड़े अखबारों के पत्रकार भले दिख जाएं सैकड़ों की संख्या में पहुंचे पत्रकारों का कोई अता-पता नहीं होता। इससे यह स्पष्ट है कि वे जो संसद की रिपोर्टिंग के नाम पर उसे पैरवी और अपने गुप्त एजेंडे को पूर्ण कराने आते हैं, पत्रकार को छोड़कर वे सबकुछ होते हैं! यह स्थिति न केवल लोकतंत्र के लिए खतरनाक है बल्कि उस प्रैस की प्रतिष्ठा के लिए भी कलंक है जो अपने को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहलाने का दंभ भरता है।

पीटीआई, यूएनआई, भाषा, वार्ता, ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन के पत्रकारों के अलावा कथित सबसे तेज चैनलों के पत्रकारों की रूचि संसद की कार्यवाही की रिपोर्टिंग करने की बजाय संसद की उठापटक और कुछ खबर बनाने वाले नेताओं की बाइट की जरूरत होती है और वे इसके लिए संसद के दरवाजे पर अपनी ड्यूटी पूरी कर चलते बनते हैं। इन चैनलों को संसद की गंभीर कार्यवाही से कोई लेना देना नहीं है। इससे चार मील आगे सैकड़ों चटपटी नामों से निकलने वाले अखबारों के रिपोर्टरों की स्थिति तो भयानक चिंतनीय है। आखिर लोकतंत्र की रक्षा के मिशन पर निकले इन पत्रकारों को संसद की परिभाषा तक भी मालूम होगी कि नहीं यह भी शोध का विषय हो सकता है।

इस संबंध में 15-20 साल पहले संसद की रिपोर्टिंग करने वाले बुजुर्ग पत्रकारों का कहना है कि उस समय पीटीआई, यूएनआई जैसी एजेंसियों के प्रत्यायित पत्रकारों के अलावा इक्का-दुक्का अखबारों के ही पत्रकार संसद की गैलरी में देखे जाते थे लेकिन संसदीय सचिवालय की नई मीडिया नीति ने उन पत्रकारों को भी संसद की रिपोर्टिंग का कार्ड थमा दिया जाता है जिन्हें संसद का ककहरा तक का पता नहीं होता, वे क्या लिखेंगे यह तो बाद की बात है, वे उस कार्यवाही का समझ पाएंगे या नहीं यह सबसे चिंतनीय पहलू है।

संसदीय मीडिया सचिवालय के आंकड़ों के अनुसार संसद की रिपोर्टिंग के लिए 600 पत्रकारों को नामित किया गया है। इन पत्रकारों की काबिलियत और चरित्र के बारे में लोकसभा और राज्य सभा सचिवालय के जन संपर्क विभाग को पता नहीं होता और वे उन सभी को संसद की कार्यवाही की रिपोर्टिंग के लिए नामित कर लेते हैं। इससे संसद की गैलरी तो जीरो आवर में भरी-पूरी दिखती है लेकिन उसके बाद के क्वेश्चन आवर में पूरी की पूरी गैलरी खाली हो जाती है। हद तो तब हो जाती है जब संसद के गलियारे में ही मल्टीनेशनल कंपनियों की पैरवी का खेल होता रहता है और पत्रकारिता का नाम होता है! यह मीडिया को उसके चरित्र हनन करने की प्रक्रिया कही जाएगी। इससे बचने के लिए संसद सचिवालय को सोच विचार करना ही होगा।

जहां तक पीआईबी का सवाल है, इसके तहत प्रत्यायित पत्रकारों की जांच-पड़ताल गृह मंत्रालय द्वारा करायी जाती है। यदि कोई व्यक्ति दलाली और पैरवी के अवैध और तुच्छ धंधे में लिप्त पाया जाता है तो उसकी उम्मीदवारी शुरूआती दौर में ही रद्द कर दी जाती है। लेकिन संसदीय जनसंपर्क सचिवालय जिन पत्रकारों को संसद की रिपोर्टिंग के लिए कार्ड जारी करता है उसमें इन फूलप्रूफ तरीके अमल में नहीं लाये जाते। इसलिए संसद के गलियारे पत्रकारों के रूप में दलालों और पैरवीकारों से भरी-पड़ी रहती है। यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक स्थिति है। इससे बचने के लिए सूचना प्रसारण मंत्रालय और संसदीय सचिवालय को गंभीरता से सोचने की जरूरत है।