सरसरी तौर पर देखें तो दोनों खबरों का आपस में कोई संबंध नजर नहीं आता, लेकिन हकीकत यह है कि दोनों ही खबरों का आपस में गहरा अंतरसंबंध है...और यह अंतरसंबंध एक बडी सुनियोजित और बहुआयामी साजिश का हिस्सा है। यह साजिश है राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को लांछित-अपमानित करने की। यह साजिश है गांधी के हत्यारों और हत्या की साजिश के सूत्रधारों को स्वाधीनता संग्राम के नायक और राष्ट्र निर्माता के रूप में स्थापित करने की। यह साजिश है अपने राजनीतिक पुरखों के माथे पर लगे स्वाधीनता संग्राम के साथ भीतरघात करने के कलंक को धोने की।

अभी इसी महीने जब पूरी दुनिया महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मना रही थी, तब सोशल मीडिया पर गांधी को कोसने और गोडसे को सराहने का अभियान चल रहा था। गोडसे को ‘महात्मा’ और ’हुतात्मा’ बताकर उसके अमर रहने का घोष किया जा रहा था। ऐसा करने वाले लोग किस विचारधारा, संगठन और राजनीतिक दल से जुडे हैं और किस नेता के भक्त हैं, यह बताना आवश्यक नहीं। गांधी जयंती के दिन श्गोडसे अमर रहे’ को ट्विटर पर ट्रेंड कराने वालों के प्रोफाइल आसानी से बता देंगे कि ऐसे तमाम लोग रात-दिन किस राजनीतिक महाप्रभु की आराधना में लीन रहते हैं। इनमें से ज्यादातर के प्रोफाइल पर सावरकर, हेडगेवार, गोलवलकर, गोडसे, मोहन भागवत या नरेंद्र मोदी की तस्वीरें, संघ का भगवा ध्वज, भारतमाता का काल्पनिक चित्र या श्अखंड भारत’ का नक्शा मिलेगा। यही वे लोग है जो मनगढंत किस्सों के जरिए जवाहरलाल नेहरू से लेकर राहुल गांधी और विपक्ष के तमाम नेताओं तक का सोशल मीडिया में तरह-तरह से चरित्र हनन करते रहते हैं। सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों, लेखकों और बुद्धिजीवियों को अश्लील गालियां और धमकियां देते हैं। ऐसा करने वाले कई श्राष्ट्रभक्तो’ को खुद प्रधानमंत्री मोदी सोशल मीडिया में फॉलो करते हैं।

इस तरह एक तरफ गांधी को खलनायक और गोडसे को नायक के तौर पर प्रचारित करने का अभियान तो अबाध रूप से चल ही रहा है और अब अपने एजेंडे याकि साजिश के अगले चरण के तौर पर सावरकर को महानायक बताने का अभियान तेज हो गया है। उन सावरकर को स्वाधीनता संग्राम के महानायक के तौर पर पेश किया जा रहा है, जिन्होंने एक नहीं कई-कई माफीनामे ब्रिटिश हुकूमत को लिखकर दिए और अंततः माफी भी पाई और स्वाधीनता संग्राम से खुद को अलग करने के पुरस्कार स्वरूप मासिक पेंशन भी। प्रधानमंत्री मोदी खुद इस अभियान के अगुवा हो गए हैं। वे महाराष्ट्र में अपनी चुनावी रैलियों में खुलेआम कह रहे हैं कि हिंदुत्व विचारक सावरकर के संस्कार ही राष्ट्र निर्माण का आधार है। वे उन सावरकर को प्रेरणास्रोत बता रहे हैं, जिन्हें नाथूराम गोडसे अपना गुरू मानता था और जिन्हें गांधी-हत्याकांड की जांच करने वाले जस्टिस जीवनलाल कपूर की अध्यक्षता वाले आयोग ने अपनी रिपोर्ट में साजिश का सूत्रधार माना है।

वैसे यह पहला मौका नहीं है जब सावरकर को भारत रत्न देने की बात हो रही है। इससे पहले वर्ष 2001 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय भी उन्हें भारत रत्न देने की कोशिश की गई थी। इस सिलसिले में बाकायदा प्रधानमंत्री की ओर से एक प्रस्ताव तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन के पास भेजा गया था। उनके नाम के साथ ही मशहूर शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां को भी भारत रत्न देने की सिफारिश की गई थी। कहा जाता है कि वाजपेयी खुद नहीं चाहते थे कि सावरकर का नाम भारत रत्न के लिए प्रस्तावित किया जाए लेकिन लालकृष्ण आडवाणी और संघ नेतृत्व के दबाव में उन्हें सावरकर का नाम प्रस्तावित करना पडा था। चूंकि सावरकर के बारे में नारायणन सब कुछ जानते थे, लिहाजा उन्होंने बिस्मिल्लाह खां के नाम को तो मंजूरी दे दी थी, लेकिन सावरकर के प्रस्ताव वाली फाइल अपने पास ही रख ली थी। बाद में किसी अवसर पर जब वाजपेयी से उनकी मुलाकात हुई तो उन्होंने सावरकर की फाइल रोकने की वजह से वाजपेयी को अवगत कराया। यद्यपि वाजपेयी की वैचारिक पृष्ठभूमि भी संघ से जुडी हुई थी, लेकिन वे स्वाधीनता संग्राम और महात्मा गांधी की हत्या में सावरकर की भूमिका को भी भलीभांति जानते-समझते थे, लिहाजा उन्होंने नारायणन की दलीलों को न सिर्फ शालीनता के साथ सुना बल्कि स्वीकार भी किया। इस तरह उस समय सावरकर को भारत रत्न दिलाए जाने का प्रयास सफल नहीं हो सका।

अब चूंकि भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में है। राष्ट्रपति भी उसके अनुकूल है। सारी संवैधानिक संस्थाएं सरकार की दासी बनी हुई हैं। विपक्ष बेहद कमजोर और डरा हुआ है। मीडिया पूरी तरह सरकार के ढिंढोरची की भूमिका है। इसीलिए अब वह खुलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे पर अमल कर रही है। इसीलिए उसके नेताओं को लगता है कि यही बेहद उपयुक्त समय है जब वह वैचारिक पुरखों को नायक और राष्ट्र निर्माता के तौर पर स्थापित कर सकती है। सावरकर को भारत रत्न देने का प्रस्ताव में उसके इसी इरादे की झलक मिलती है। हालांकि सावरकर की करनी को लेकर उसका अपराध बोध अभी भी बना हुआ है, जिसके चलते वह अकेले सावरकर का ही नाम प्रस्तावित करने की हिम्मत नहीं जुटा सकी। उसे सावरकर के नाम को वैधता और स्वीकार्यता दिलाने के लिए उनके साथ ही स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में ऐतिहासिक योगदान करने वाली सावित्री बाई फूले और फातिमा शेख को भी भारत रत्न देने की बात भी कहनी पडी। जबकि इन दोनों विभूतियों को तो बहुत पहले ही यह सम्मान मिल जाना चाहिए था। इसके लिए पूर्ववतीह्म कांग्रेसी और गैर कांग्रेसी सरकारों की भी निंदा की जानी चाहिए कि उन्होंने इन दोनों महान महिलाओं के योगदान को नजरअंदाज किया। (संवाद)