कहने की जरूरत नहीं कि गिरीराज सिंह को शांत होना पड़ा। इस बीच नीतीश कुमार ने भारतीय जनता पार्टी के कुछ नीतिगत फैसलों से अपनी असहमति जताई और उनके दल के सांसदो ने सरकार के खिलाफ जाकर संसद में मतदान भी किया या विरोध जताते हुए मतदान में हिस्सा नहीं लिया। तीन तलाक के कानून पर भी उनके दल ने असहमति जताई और संविधान की धारा 370 को कमजोर कर जम्मू और कश्मीर को मिले विशेष दर्जे को समाप्त करने के केन्द्र सरकार के निर्णय का भी विरोधी किया। असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर से संबंधित कानून का भी विरोध किया। हालांकि बाद में धारा 370 से संबंधित केन्द्र सरकार की नीति का यह कहते हुए समर्थन किया कि अब चूंकि संसद से यह पारित हो चुका है, तो इसका विरोध करने का कोई मतलब नहीं। पहले विरोध करने का कारण बताते हुए दल के नेताओं की ओर से कहा गया कि चूंकि उनके नेता जाॅर्ज फर्नांडीज धारा 370 को यथावत बनाए रहने का समर्थन किया करते थे, इसलिए उनकी नीति पर चलते हुए ही वे संसद में इसको कमजोर किए जाने का विरोध कर रहे थे।

भाजपा की केन्द्र सरकार की कुछ नीतियों का विरोध नीतीश की ओर से किए जाने के कारण बिहार के अधिकांश नेताओं को लगने लगा कि अब भाजपा के साथ जद(यू) का संबंध ज्यादा दिनों तक टिकने वाला नहीं है। नीतीश कुमार राजनैतिक सौदेबाजी में माहिर हैं और कमजोर रहते हुए भी वे अपने लिए बड़ा हिस्सा पाने मंे सिद्धहस्त रहे हैं, इसलिए बिहार भाजपा के नेताओं को लग रहा था कि अब उनके साथ भाजपा की नहीं निभ पाएगी, क्योंकि लोग नरेन्द्र मोदी के नाम पर वोट डालते हैं, नीतीश के नाम पर नहीं, तो फिर भाजपा नीतीश के दल के लिए ज्यादा सीटें क्यों छोड़ेगी। यही कारण है कि गिरीराज सिंह एक बार फिर मुखर हो गए और नीतीश के खिलाफ बयानबाजी करने लगे। उनकी सरकार में शामिल भाजपा के मंत्री सुरेश शर्मा ने भी उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया और भारी वारिस के कारण पटना के लोगों को हुई भारी असुविधा का ठीकरा मुख्यमंत्री पर ही फोड़ने लगे। निगम आयुक्त की उस समय आलोचना हो रही थी और उनकी योग्यता पर सवाल उठाया जा रहा था। सुरेश शर्मा ने भी उनकी योग्यता पर सवाल उठाए, लेकिन उनकी पटना के निगम आयुक्त के पद पर नियुक्ति करने के लिए मुख्यमंत्री को जिम्मेदार बताते हुए पटना के लोगों को हुए कष्ट के लिए नीतीश कुमार को ही जिम्मेदार ठहरा दिया। भाजपा के अनेक छुटभैये नेता भी नीतीश के खिलाफ बोल रहे थे और सबसे बड़ी बात है कि भाजपा का आईटी सेल भी बिहार के मुख्यमंत्री के खिलाफ आग उगलने लगा और बताने लगा कि भाजपा को अब जीत के लिए नीतीश कुमार की जरूरत नहीं है।

लेकिन भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने एक बार फिर हस्तक्षेप करते हुए नीतीश विरोधियों को चुप रहने का संदेश दे डाला गिरीराज सिंह को इस बार पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष नड्डा ने चुप रहने का आदेश दिया और पार्टी की ओर से यह भी स्पष्ट कर दिया कि आगामी चुनाव में भी भारतीय जनता पार्टी का जद(यू) के साथ गठबंधन बना रहेगा और यह गठबंधन नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही चुनाव का सामना करेगा। कहने का मतलब कि भारतीय जनता पार्टी अगले विधानसभा चुनाव में नीतीश को ही मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट करके चुनाव लड़ेगी। जाहिर है, टिकट के बंटवारे के समय भी नीतीश कुमार के दल को ही वरीयता दी जाएगी। यानी बिहार में नीतीश कुमार का महत्व भारतीय जनता पार्टी समझ चुकी है।

जिन लोगो को बिहार की राजनीति की जमीनी हकीकत की समझ नहीं है, उन्हें यह अटपटा लग सकता है, लेकिन यह सच्चाई है कि अभी भी भारतीय जनता पार्टी बिहार के पिछड़ों और दलितों के बीच स्वीकार्य नहीं है। नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए भले पिछड़े वर्गो के लोग वोट डाल देते हों, लेकिन जब विधानसभा का चुनाव आता है, तो वे मोदी के नाम पर भाजपा को वोट देने से हिचकते हैं। इसका कारण यह है कि भाजपा के मार्फत वे किसी अगड़ी जाति को मुख्यमंत्री पद पर बैठा हुआ देखना नहीं चाहते। पिछड़े वर्गो के लोगों के सामने बिहार में दो ही स्वीकार्य चेहरे हैं- एक नीतीश कुमार और दूसरा लालू यादव। लालू यादव जेल में हैं और उन्होंने अपने छोटे बेटे तेजस्वी को अपना राजनैतिक उत्तराधिकारी घोषित कर दिया है। लेकिन तेजस्वी की स्वीकार्यता सिर्फ उनकी अपनी जाति यादव के बीच में है और इसके अलावा भाजपा विरोध के नाम पर वे मुस्लिम समर्थन की उम्मीद कर सकते हैं। लेकिन गैर यादव ओबीसी के लिए नीतीश कुमार सबसे ज्यादा स्वीकार्य नेता हैं। यह सच है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को मात्र 17 फीसदी मत ही मिले थे, लेकिन तब मोदी के कारण ओबीसी मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा भाजपा में चला गया था, लेकिन लालू के साथ मिलकर नीतीश कुमार ने भाजपा को 2015 के विधानसभा चुनाव में पटकनी दे डाली थी। इसलिए नीतीश से संबंध तोड़ने पर उनके लालू के साथ चले जाने का खतरा है और यदि वह अकेले भी लड़े, तो भाजपा के लिए अपने दम चुनाव में बहुमत लाना असंभव हो जाएगा, क्योंकि भाजपा का समर्थन आधार वहां सिर्फ अगड़ी जातियों के लोग हैं और उनकी आबादी बिहार की कुल आबादी से 15 फीसदी से ज्यादा नहीं है। (संवाद)