इसीलिए जब स्वाधीनता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनसंख्या विस्फोट पर चिंता जताई तो उसका आमतौर पर स्वागत ही हुआ। लेकिन सवाल है कि प्रधानमंत्री मोदी और उनके सुर में सुर मिला रही उनकी पार्टी क्या वाकई इस चिंता को लेकर गंभीर है? इस बयान से पहले तक मोदी बढ़ती हुई आबादी को देश के लिए वरदान बताते आ रहे थे। यही नहीं, संघ नेतृत्व और संघ से जुडे तथाकथित धर्माचार्य भी हिंदुओं से अपील कर रहे थे कि वे ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करें।

करीब साढे़ छह साल पुरानी बात है। नरेंद्र मोदी तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे और प्रधानमंत्री बनने की उनकी महत्वाकांक्षा अंगड़ाई लेने लगी थी। उन्होंने गुजरात से बाहर निकलना शुरू कर दिया था। इस सिलसिले में 6 फरवरी 2013 को दिल्ली के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में छात्रों को संबोधित करते हुए उन्होंने देश की 65 फीसद युवा आबादी को देश की सबसे बड़ी ताकत और विकास का इंजन बताया था। मोदी ने कहा था, ‘‘श्यूरोप बूढ़ा हो चुका है, चीन बूढ़ा हो चुका है लेकिन मेरा देश दुनिया का सबसे नौजवान देश है। देश की युवा आबादी हमारे लिए एक अवसर है, एक वरदान है, लेकिन हम इसका उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। हमारे पास अपार भू-संपदा और अन्य प्राकृतिक संसाधन हैं लेकिन हम उनका भी सही इस्तेमाल करके देश को समृद्ध नहीं बना पा रहे हैं। अवसर हमारे हाथों से निकलते जा रहे हैं।’’

बाद में 2014 के लोकसभा चुनाव में भी उन्होंने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की हैसियत से कई रैलियों-सभाओं में और प्रधानमंत्री बनने के बाद भी अपने पहले पूरे कार्यकाल के दौरान देश-विदेश में कई मौकों पर मोदी ने इसी आशय की बात करते हुए देश की बढ़ती जनसंख्या को डेमोग्राफिक डिविडेंट यानी जनांकिकीय लाभांश बताते रहे। लेकिन 2019 में दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद इस बारे में उनके विचार बिल्कुल उलट रूप में सामने आए।

इसमें कोई दो राय नहीं कि किसी देश की बड़ी आबादी उसके लिए ताकत या वरदान मानी जाती है, लेकिन उस आबादी का अगर सदुपयोग न हो तो वह अभिशाप साबित होती है। भारत के संदर्भ में तो अलग-अलग माध्यमों से अक्सर इस आशय की रिपोर्ट आती रहती हैं, जिनमें यह बताया जाता है कि आबादी के मामले में भारत जल्द ही चीन को पीछे छोड़ कर दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन जाएगा। यह बात कुछ हद सही भी है। चीन की जनसंख्या भारत के मुकाबले काफी धीमी गति से बढ़ रही है। इसीलिए जब स्वाधीनता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनसंख्या विस्फोट पर चिंता जताई तो उसका आमतौर पर स्वागत ही हुआ। लेकिन सवाल है कि प्रधानमंत्री मोदी और उनके सुर में सुर मिला रही उनकी पार्टी क्या वाकई इस चिंता को लेकर गंभीर है? सवाल यही है कि आखिर अब अचानक ऐसा क्या हो गया कि बढती जनसंख्या राष्ट्रीय चिंता का विषय बन गई?

दरअसल मोदी सरकार को अपने पिछले कार्यकाल में तेज गति से आर्थिक विकास की उम्मीद थी। आर्थिक मोर्चे पर उठाए गए कुछ अप्रत्याशित फैसलों और शुरू की गई योजनाओं के आधार पर उसे लग रहा था आर्थिक विकास दर तेज होगी, रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे और बड़ी संख्या में युवा कामगारों की जरूरत होगी। लेकिन सारे फैसले और योजनाएं नाकाम साबित हुई। रोजगार के अपेक्षित अवसर न तो मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल पैदा हुए और इस कार्यकाल में तो पैदा होने के कोई आसार दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे। यही नहीं अब तो रोजगारशुदा लोग भी बेरोजगार हो रहे हैं। इसीलिए जिस विशाल जनसंख्या को प्रधानमंत्री कल तक डेमोग्राफिक डिविडेंट बता रहे थे, अब उसे वे डेमोग्राफिक डिजास्टर बता रहे हैं। वे देश में बढती बेरोजगारी की स्थिति को स्वीकार नहीं कर रहे हैं, बल्कि अर्थव्यवस्था की बदहाली और बढ़ती बेरोजगारी पर चिंता जताने वालों को पेशेवर दलाल करार दे रहे हैं। उनके मंत्री तमाम तरह के कुतर्कों के सहारे बेरोजगारी बढ़ने की हकीकत को नकार रहे हैं।

वैसे जनसंख्या विस्फोट की स्थिति को लेकर प्रधानमंत्री का चिंता जताना इसलिए भी बेमानी है, क्योंकि जनसंख्या वृद्धि के आंकड़े चीख-चीख कर बता रहे हैं कि हमारा देश जल्द ही जनसंख्या स्थिरता के करीब पहुंचने वाला है। नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) 2015-16 के मुताबिक देश का मौजूदा कुल प्रजनन दर 2.3 से नीचे है। यानी देश के दंपति औसतन करीब 2.3 बच्चों को जन्म देते हैं। यह दर भी तेजी से कम हो रही है। जनसंख्या को स्थिर करने के लिए यह दर 2.1 होनी चाहिए और यह स्थिति कुछ ही वर्षों में खुद ब खुद आने वाली है।

भारत दुनिया में पहला देश है, जिसने सबसे पहले अपनी आजादी के चंद वर्षों बाद 1950-52 में ही परिवार नियोजन को लेकर राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम शु़रू कर दिया था। हालांकि गरीबी और अशिक्षा के चलते शुरुआती दशकों में इसके क्रियान्वयन में जरूर कुछ दिक्कतें पेश आती रहीं और 1975-77 में आपातकाल के दौरान मूर्खतापूर्ण जोर-जबरदस्ती से लागू करने के चलते यह कार्यक्रम बदनाम भी हुआ लेकिन पिछले दो दशकों के दौरान लोगों में इस कार्यक्रम को लेकर जागरूकता बढ़ी है, जिससे स्थिति में काफी सुधार हुआ है। लेकिन जनसंख्या को लेकर हमारे यहां कट्टरपंथी हिंदू संगठनों की ओर से एक निहायत बेतुका प्रचार अभियान सुनियोजित तरीके से पिछले कई वर्षों से चलाया जा रहा है, जो कि हमारे जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम के खिलाफ है।

जनसंख्या वृद्धि से संबंधित आंकड़ों और तथ्यों की रोशनी में यही कहा जा सकता है कि जनसंख्या विस्फोट पर प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी का चिंता जताना सिर्फ अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर सरकार की नाकामी से ध्यान हटाने का उपक्रम है। (संवाद)