2019 की जीत शायद भाजपा की अंतिम बड़ी जीत है। उसके साथ वह अपने चरम पर पहुंच चुकी है और उसके बाद वह ढलान पर है। इसका प्रमाण महाराष्ट्र और हरियाणा में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों में देखा जा सकता है। अभी हाल ही में राजस्थान के नगर निकायों के नतीजे भी कुछ यही कहानी बयां करते हैं। वहां भारतीय जनता पार्टी को भारी हार का सामना करना पड़ा। राजस्थान में ध्यान देने की बात यह है कि विधानसभा चुनाव में भाजपा हार गई, पर लोकसभा चुनाव में उसने सारी की सारी सीटें जीत लीं और उसके कुछ महीने बाद ही हुए नगर निकायों के चुनाव में उसका सूफड़ा फिर साफ हो गया। इसका मतलब है कि भाजपा की जीत सिर्फ और सिर्फ मोदी फैक्टर के कारण हो रही है। लोकसभा चुनाव में मोदी फैक्टर मायने रखता है, क्योंकि मोदी खुद पीएम के उम्मीदवार होते हैं, लेकिन विधानसभा और नगर निकायों के चुनाव में मोदी फैक्टर मायने नहीं रखता, क्योंकि उनमें हुई हारजीत से मोदी के सत्ता के अंदर या बाहर होने का भय नहीं रहता।

फिलहाल हम चर्चा कर रहे हैं शिवसेना के भाजपा विरोधी खेमे से बाहर होकर राजनीति करने की। शिवसेना पहली पार्टी है, जिसने 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद भाजपा को पूर्ण रूप से राजनैतिक अछूत होने से बचाया था। बाबरी मस्जिद के खिलाफ हुए आंदोलन में शिवसेना भी शरीक था। सच तो यह है कि बाबरी ध्वंस का श्रेय शिवसेना भाजपा को नहीं देना चाहती। वह कहती रही है कि शिवसैनिकों के कारण ही मस्जिद टूटी थी। अब वह शिवसेना भाजपा से अलग हो गई है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में भाजपा की वह सबसे पुरानी और सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी हुआ करती थी। इस बीच कई पार्टियां राजग में आईं और कई बाहर चली गईं। कुछ तो बाहर जाकर फिर राजग में आ गईं। पर शिवसेना राजग में बनी रही। भाजपा से उसके रिश्ते बहुत अच्छे कभी नहीं रहे। वह हमेशा भाजपा की आलोचना करती रही और कुछ मामलों मे तो उसने भाजपा के खिलाफ जाकर भी काम किया। 2007 के राष्ट्रपति चुनाव में तो उसने भाजपा के उम्मीदवार भैरों सिंह शेखावत के खिलाफ मतदान भी किया था और कांग्रेस की उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल को यह कहते हुए वोट दिया था कि वे महाराष्ट्र की हैं, इसलिए उसके मतदाता उन्हीं को वोट डालेंगे। 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में भी उसने भाजपा के खिलाफ जाकर कांग्रेस के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को वोट दिया था। नोटबंदी के निर्णय की भी उसने लगातार आलोचना की थी।

पर इन विरोधों के बावजूद वह राजग में बनी रही। 2014 में विधानसभा का चुनाव भी वह अकेली ही लड़ रही थी, हालांकि उस समय भी वह राजग में बनी हुई थी, क्यांेकि उसके कुछ सांसद मोदी सरकार में उस समय भी मंत्री बने हुए थे। उस चुनाव में शिवसेना और भाजपा अलग अलग लड़ी, पर सरकार चलाने के लिए भाजपा ने एक बार फिर शिवसेना से हाथ मिलाया। इस तरह एक दूसरे को नापसंद करने वाली दो पार्टियां एक दूसरे के साथ बनी रही। सत्ता दोनों के रिश्तों को सीमेंट की तरह जोड़े रहा।

हालांकि दोनों के बीच सिर्फ सत्ता के कारण ही संबंध नहीं थे। दोनों पार्टियां अपने को हिन्दुत्व का वाहक भी समझती हैं। जैसा का ऊपर कहा जा चुका है बाबरी मस्जिद के खिलाफ अभियान चलाने में दोनों एक साथ थी और उस अभियान में शिवसेना अपने आपको भाजपा का पिछलग्गू मानने के लिए तैयार नहीं थी। शिवसेना का नाम ही हिन्दुत्ववादी है। उसका झंडा भी हिन्दुत्व का बोध कराता है। उसका चुनाव चिन्ह हिन्दुत्व उग्रता का प्रतीक जैसा लगता है। शिवसेना के नेताओं के बोल भी हिन्दुत्ववादी ही होते हैं। पाकिस्तान के खिलाफ आग उगलने में उसने अपने आपको कभी भी भाजपा का छोटा भाई महसूस नहीं किया। मुंबई में पाकिस्तान क्रिकेटरों को रोकने के लिए उसने बहुत कुछ किया। पाकिस्तान का कोई संस्कृतिकर्मी यदि मुंबई आता था, तो उसे भी शिवसेना के विरोध का सामना करना पड़ता था।

दोनों में एक फर्क यह था कि शिवसेना क्षेत्रवादी की राजनीति भी करती थी, जबकि भाजपा ऐसा करने से परहेज करती थी, क्यांेकि उसका राष्ट्रीय विस्तार हमेशा से रहा है। इस क्षेत्रीयता की राजनीति को यदि छोड़ दें तो भाजपा और शिवसेना के विचारों में बहुत साम्य है। एक फर्क यह है कि शिवसेना अपनी वैचारिक उग्रता कभी नहीं खोती, जबकि भारतीय जनता पार्टी अवसर को देखकर कभी ठंढा और कभी गर्म होती रही है।

सबसे बड़ी बात यह है कि शिवसेना ने कांग्रेस और एनसीपी से गठबंधन के बावजूद अपना हिन्दुत्ववादी नजरिया नहीं बदला है। हां, वह जरूर कह रही है कि उसका हिन्दुत्व भाजपा के हिन्दुत्व की तरह नफरत फैलाने वाला नहीं है। अब जब वह भाजपा से अलग हो गई है, तो वह अपने हिन्दुत्व ब्रांड को भाजपा के हिन्दुत्व ब्रांड से अलग करने की कोशिश करेगी। चूंकि वह कांग्रेस और एनसीपी के साथ सत्ता की भागीदारी कर रही है और खुद नेतृत्व की भूमिका में है, तो वह अपने हिन्दुत्व को सर्वग्राही बनाने की कोशिश भी करेगी और इसके साथ वह हिन्दुत्व के दायरे में रहकर सब समुदायों को साथ लेकर चलने की कोशिश करेगी। तो क्या यह माना जाए कि अब हिन्दुत्व का एक नया ब्रांड तैयार होगा और अब देश में हिन्दू बनाम हिन्दू की भी राजनीति होगी? (संवाद)