शुक्रवार, 4 मई 2007

क्यों बढ़ रहा है जेल और अपराध का आकर्षण

पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की इस त्रासदी से निपटने की समस्या

ज्ञान पाठक

इस समय दुनिया एक विशेष तरह की वीभत्स पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रही है जिसमें जीवन के अधिकांश पक्षों की योग्यता, श्रेष्ठता और वांछनीयता के लिए पूंजी या धन को ही सर्वोच्च मानदंड माना जा रहा है। इस समाज ने अधिकांश कार्यों के लिए न्यूनतम धन का निर्धारण किया है जिससे कम धन वालों को अयोग्य करार दिया जाता है – स्कूलों में पढ़ने से लेकर लोकत्रांत्रिक व्यवस्थाओं में चुनाव लड़ने तक के लिए । सौभाग्य से जेल जाने के लिए ऐसा कोई मानदंड निर्धारित नहीं है, वरना गरीबों के लिए जेल जाकर पेट भरना भी मुश्किल हो जाता। यह कुछ लोगों के लिए चौंकाने की बात हो सकती है लेकिन न्यायिक हिरासत में जेल में रह रहे अनेक अभियुक्तों और कैदियों से आपको यह पता चल सकता है कि उनके जेल में रहने का मूल कारण क्या है और बाहर से वे किन आरोपों में जेल आये हैं।

यह अनुसंधान की बात है, लेकिन एक ताजा उदाहरण का रिकार्ड इसी सप्ताह दुनिया के सामने आया जब अमेरिका के एक बैंक डकैत लॉरेंस लॉसन को अदालत ने सिर्फ एक साल की सजा सुनायी यह साबित होने के बाद कि इस डकैत का इरादा सिर्फ जेल जाना था ताकि वहां उसे कम से कम खाना और कपड़ा तो मिलेगा। जिस देश की अर्थव्यवस्था का सारी दुनिया के देश अनुकरण कर रहे हैं उस देश के आम लोगों की यह मनोदशा बड़ा सदमा पहुंचाने वाली है। वहां नियोक्ताओं को किसी भी कर्मचारी या श्रमिक को मनमर्जी काम पर रखने और हटाने की छूट है। बेचारे लॉरेंस को काम से निकाल देने के बाद कोई काम नहीं मिला और वह दाने-दाने को तरसने लगा। उसने सोचा कि इस समाज में सिर्फ जेल ही ऐसी जगह है जहां उसे खाना और कपड़ा मिल सकता है।

अब आप भारत की स्थिति देखिये। यहां भी आपको थोड़े-बहुत अंतर के साथ ऐसा ही देखने को मिलेगा बशर्ते आप अपनी आंखें बंद न रखें।

जेलों के अंदर रह रहे विचाराधीन और सजायाफ्ता दोनों प्रकार के कैदियों पर नजर डालें तो आपको यह सहज ही पता चल जायेगा कि उनमें से अनेक जेल को ही समाज में सबसे सुरक्षित स्थान मानते हैं। वहां उनके जान को सबसे कम खतरा होता है। वे वहां अपने दुश्मनों से बाहर की तुलना में स्वयं को ज्यादा सुरक्षित मानते हैं और रणनीतिगत ढंग से समय का इंतजार करते हैं और उस समय जमानत की अर्जी देकर बाहर आने की कोशिश करते हैं जब उन्हें उनका जीवन सर्वाधिक सुरक्षित लगता है।

सिर्फ भोजन और वस्त्र के लिए बारंबार छोटे-छोटे अपराध कर जेल जाने वालों की संख्या का ठीक-ठीक पता तो किसी को नहीं है, क्योंकि इस दृष्टि से कभी सर्वेक्षण नहीं कराया गया, लेकिन इस लेखक के काफी समय तक विधि संवाददाता रहने के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि ऐसे अपराधियों की संख्या भी काफी ज्यादा है।

ध्यान रहे कि स्थानीय न्यायायुक्त स्तर के अधिकारी जेलों में रह रहे न्यायिक हिरासत वाले कैदियों के मालिक की तरह होते हैं, जेल प्रशासन कार्यपालिका के अधीन होता है सिर्फ प्रबंधन और कार्य में वह पुलिस प्रशासन से भिन्न होता है। निचली अदालतों में निगरानी समितियां होती हैं जिनकी बैठकों में सरकार के प्रशासनिक अधिकारी (जिलादंडाधिकारी), पुलिस अधीक्षक और स्थानीय मुख्य जज भाग लेते हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि उन बैठकों में किन बातों पर चर्चा होती है। जेलर कहते हैं कि जेल में जगह नहीं है और कैदियों की संख्या इतनी ज्यादा है कि उन्हें अमानवीय हालात में रखने के अलावा कोई चारा नहीं है। सरकार बड़े जेल बनाने को तैयार नहीं रहती और न्यायाधीशों के संरक्षण में रह रहे न्यायिक हिरासत में कैदी अमानवीय जीवन जीने को मजबूर रहते हैं। न्यायाधीशों के लिए उन अभियुक्तों को जमानत पर बाहर करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता और बड़ी संख्या में अभियुक्तों को जमानतें सिर्फ इसीलिए दी जाती हैं। इस मामले में उदारता बरती जाती है। लेकिन सरकार और पुलिस प्रशासन के लिए अभियुक्तों को जमानत पर छोड़ना समस्या खड़ी करता है। प्रशासन के अधिकारी निगरानी समितियों के अंदर भी कहते हैं कि हम बड़ी मुश्किल से अपराधियों को पकड़ते हैं और उन्हें न्यायालय जमानत पर छोड़ देता है। इसके कारण कानून व्यवस्था बनाये रखना काफी मुश्किल होता है। और इस तरह बैठकें चलती रहती हैं, समस्याएं बरकरार रहती हैं और कार्यपालिका तथा न्यायपालिका अपनी ही धुन में चलती रहती हैं।

इसी क्रम में कार्यपालिका ने कुछ ऐसे कानून बना लिये हैं जिसके तहत उन लोगों के जेल से बाहर नहीं निकलने देने का इंतजाम किया गया जिन्हें वे जेल में ही रखना चाहते हैं। न्यायालय का अधिकार काफी हद तक ऐसे कानूनों में छिन लिया गया है। ये प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी उन लोगों को कभी गिरफ्तार कर जेल नहीं भेजते जिनके अपराध छोटे-छोटे होते हैं ताकि जेल में भीड़ न बढ़ जाये।

लेकिन समस्या यहीं तक नहीं है। रेलवे या राज्य परिवहन के बसों में बिना टिकट यात्रा करना कानूनी अपराध है जिस अपराध के लिए भूखे-नंगे गरीबों को कभी गिरफ्तार कर जेल नहीं भेजा जाता क्योंकि सरकार को उन्हें वहां खाना और कपड़ा देना पड़ेगा। संभवत: यह भी एक कारण है उन्हें जेल नहीं भेजने के पीछे। उन्हें मारपीट कर सिर्फ भगा दिया जाता है। भीख मांगना एक जुर्म है, और उन्हें पकड़कर पुनर्वासित करने के शिविरों में रखने का प्रावधान है। सरकार का कहना है कि ये भिखमंगे पुनर्वास केन्द्रों से भाग जाते हैं। परंतु वे इस संभावना पर विचार नहीं करतीं कि यदि जेल के कैदियों को दी जा रही सुविधाओं के स्तर पर भी भिखमंगों को सुविधा दी जाये तो संभवत: वे वहीं रहें। उधर शिविरों में भिखमंगों को रखने के खर्च भी हमारी पूंजीवादी व्यवस्था वहन करने को तैयार नहीं है जिसके कारण बड़ी संख्या में सड़कों पर भीख मांगने का जुर्म करने वालों को देखा जा सकता है।

तीसरी श्रेणी उन बेसहारा लोगों की है जो सड़कों पर ही जीवन गुजारने को विवश हैं। उनका कुछ भी सुरक्षित नहीं। जाड़ा, गर्मी, बरसात सभी सड़कों पर गुजरता है और खाना-कपड़ा मिल पाने की भी सुनिश्चितता नहीं रहती। ये अपराध के भी शिकार होते हैं जिनमें यौन शोषन प्रमुख है क्योंकि शरीर को अलावा इनको पास कुछ नहीं होता। यह अब जग जाहिर हो कि उनमें से अनेकों का शरीर विकृत कर उनसे भीख मंगवाया जाता है, जिसकी घटना कुछ ही समय पहले नोएडा से सामने आयी थी और समाचार माध्यमों में भी प्रकाशित और प्रचारित हुई थी। फिर उन्हीं में से अनेकों से तस्करी करवाया जाता है।

यह सबकुछ जारी है और हमारी सरकार तथा धन कमाने की होड़ में लगे लोगों को इसकी परवाह नहीं है। ऐसी स्थिति में आम असुरक्षित आदमी की सोच पर भारी दुष्प्रभाव पड़ता है। जेल की तुलना में उसके लिए ज्यादा सुरक्षित स्थान कोई नहीं है। कम से कम खाना और कपड़ा तो उसे मिल ही जाता है और बाहरी शारीरिक शोषण और पीड़ा से भी वह बच जाता है। वहां उसका इलाज भी ज्यादा आसान हो जाता है। लेकिन उनकी समस्या यह है कि भारत की शासन व्यवस्था उसे छोटे अपराधों के लिए जेल नहीं भेजती। उसे बड़े अपराध करने पड़ते हैं। भारत ही क्यों, अमेरिका में भी लॉरेंस को जेल जाने के लिए बैंक में डाका डालना पड़ा।

इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि अनेक लोगों को पूंजीवाद का वर्तमान स्वरुप बड़ा अपराधी बना रहा है, क्योंकि छोटे अपराध से उनका काम नहीं चलता। यह चिंताजनक है, उन लोगों के लिए भी जो धन के पीछे पागलपन की हद तक दौड़ रहे हैं। यदि आम लोगों का जीवन सुरक्षित नहीं तो उनका भी जीवन सुरक्षित नहीं है। यह उन्हें गांठ बांधकर रखना चाहिए।

इसे स्पष्ट करने के लिए एक और उदाहरण अमेरिका से ही लें जिसकी पूंजीवादी नीति पर दुनिया चलने की कोशिश कर रही है। कुछ ही सप्ताह पहले एक छात्र ने अंधाधुंध गोलियां चलाकर अनेक छात्रों को मार डाला था। दुनिया भर के अखबारों में यह खबर छपी पर मूलभूत बात पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। उस छात्र ने यह कांड करने के बाद आत्महत्या कर ली थी और एक नोट लिख छोड़ा था – जिसमें लिखा था “आप धनी मां –बाप की संतानों ने मुझे यह कदम उठाने को विवश कर दिया।” घटना दुर्भाग्यपूर्ण है और ऐसी मनोदशाओं पर लगाम लगनी ही चाहिए। सवाल पूछा ही जाना चाहिए कि ये धनी मां-बाप अपने बेटे बेटियों को कौन सी शिक्षा दे रहे हैं। गरीबों और धनिकों के बिगड़ैल बच्चों की संख्या यदि तेजी से बढ़ने लगी तो कौन सा परिवार, समाज और देश सुख-शांति से रह सकेगा?

ऐसी समस्याओं को वामपंथ और दक्षिणपंथ के दायरे से भी ऊपर उठकर देखना आज की जरुरत है। धन पर अत्यधिक जोर देने वाली पूंजीवादी व्यवस्था में तात्कालिक लाभ के लिए समाज की दुर्दशा न की जाये। इसमें कोई भी सुरक्षित नहीं रह जायेगा। विपन्न और संपन्नों के बीच घृणा का भाव और एक दूसरे को लूटने का भाव किस तरह कम होगा इसपर समय रहते काम होना चाहिए। जेल और अपराध का आकर्षण बढ़ने से ज्यादा पतन और क्या होता है।#