नर्मदा विस्थापितों के हित से जुड़े इस मामले को जब सामने लाया गया, तो पहले सरकार ने यह मानने से मना कर दिया था कि इन जिलों में फर्जी रजिस्ट्रियां हुई हैं, पर सूचना के अधिकार के तहत एक के बाद एक दर्जनों आवेदनों के माध्यम से रजिस्ट्रियों के नकल निकाल कर घोटाले को सामने लाया गया, तो अंततः प्रदेश सरकार ने जांच समिति गठित की।

एन.बी.ए. के अशाीष मंडलोई ने संवाद को ेबताया, ’’दिसंबर 2005 से ही इस फर्जीवाड़े के खिलाफ हम आंदोलन कर रहे थे, पर हमारे पास तब दस्तावेजी सबूत नहीं थे।‘‘ नवंबर 2006 में एन.बी.ए. की ओर से आठ लोगों दयाराम पटेल, देवेंद्र सिंह, आशीष मंडलोई, रेहमत, कैलाश आवस्या, मोहन पाटीदार, रमेश यादव एवं रणवीर सिंह ने सूचना के अधिकार के तहत झाबुआ, बड़वानी, धार, खरगोन के विभिन्न पंजीकरण कार्यालय में आवेदन लगाया।

दयाराम पटेल ने बताया, ’’लोग यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि कोई ऐसा कानून है, जिसमें विस्थापितों की रजिस्ट्री की नकल दी जा सकती है।‘‘ देवेंद्र सिंह का कहना है, ’’जब नकल मिली तो उसमें काफी पैसा लग गया. पर इससे यह मालूम हो गया कि विस्थापितों का किस हद तक शोषण किया जा रहा है।‘‘

सर्वोच्च न्यायालय ने 15 मार्च 2005 को नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण को आदेश दिया था कि मध्यप्रदेश में पुनर्वास चाहने वाले सरदार सरोवर बांध प्रभावित किसानों और उनके वयस्क पु़त्रों को कम से कम 5 एकड़ खेती लायक सिंचित जमीन दी जाए। प्रदेश सरकार ने 4304 प्रभावितों को इसके योग्य पाया।

सर्वोच्च न्यायालय के जमीन देने के आदेश के बावजूद अधिकारियों ने तय कर लिया कि जो भी प्रभावित जमीन का पात्र है उसे 5 एकड़ जमीन के बदले कम से कम 5 लाख 58 हजार रुपए नगद भुगतान किए जाएंगे, जिससे कि प्रभावित परिवार जमीन खरीद सके। जमीन के स्थान पर दिए जाने वाले नगद मुआवजे को विशेष पुनर्वास अनुदान (एस.आर.पी.) का नाम दिया गया था।

इसमें पहली किश्त के तहत आधी राशि और जमीन के सौदे का पत्र दिखाने के बाद आधी राशि देने की बात की गई। पर भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा प्रभावितों से पैसे ऐंठने हेतु दलालों का एक नेटवर्क तैयार किया गया। इसके बाद दलाल प्रभावितों से सौदा तय उनकी फर्जी रजिस्ट्री करवाते और पूरी राशि निकलवाते। इसके एवज में लाखों रुपए की रिश्वत ली गई।

रेहमत ने बताया, ’’नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के अधिकारी फर्जी रजिस्ट्री के आधार पर राशि जारी कर देते। राजस्व विभाग आंकड़ों में हेरफेर करते और हेरफेर की अनदेखी करते। 2777 रजिस्ट्रियों की जांच में 758 को सरकार ने फर्जी माना है।, पर एन.बी.ए. इससे ज्यादा फर्जी होने की बात कहता है।

शुरूआत में ऐसी जमीनों की रजिस्ट्रियां करवाई गई जो विक्रेता के नाम पर तो थी, पर उसका जमीन पर कब्जा नहीं था। इसके बाद एक ही जमीन को कई बार बेचा जाने लगा। देवास और खरगोन जिले में नाले, सड़क, तालाब, स्कूल और पहाड़ भी बेच दिए गए।‘‘

इन मामलों के अलावा भी प्रदेश में सूचना के अधिकार के तहत कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अहम जानकारियां प्राप्त की हैं, जिसके आधार पर यह पता चलता है कि गोपनियता की आड़ में सरकार कई महत्वपूर्ण जानकारियों को छिपाती रही हैं, जिनका सीधा संबंध जनहित से है। (संवाद)