एक बात और सामने आ रही है। जिन 19 लाख लोगों को भारतीय नागरिक मानने से इनकार किया जा रहा है, उनमें से कई तो असम के मूलवासी ही हैं और ऐसे लोगों की संख्या लाखों में हैं, जो पड़ोसी पश्चिम बंगाल और अन्य हिन्दी प्रदेशों से आकर वहां बस गए थे। उन्हें इस बिना पर रजिस्टर में शामिल नहीं किया गया, क्योंकि वे अपने भारतीय होने का दस्तावेज नहीं पेश कर सके। चूंकि वे दस्तावेज 1971 या उसके पहले के होने थे, तो वहां अन्य प्रदेशों से माइग्रेट करके जाने वाले अनेक लोग दस्तावेज नहीं दे सके। उनलोगों ने अपने मूल प्रदेशों के जमीन जायदाद तक बेच डाले थे और कई तो ऐसे भी थे, जिनका अपने मूल प्रदेशों में कोई जमीन जायदाद थे ही नहीं। लिहाजा उनके पास दस्तावेज नहीं थे और उनके अभाव में वे विदेशी करार दिए गए हैं।
कुछ मामले तो ऐसे भी आए हैं कि पूरे दस्तावेज होने के बाद भी वे अपना नाम नागरिकता रजिस्टर में डलवाने में विफल रहे। एक कोई सनाउल्ला हैं, जो करगिल युद्ध में भारत की ओर से लड़ चुके हैं। 1987 से 2017 तक वे भारतीय सेना में थे। अभी भी वे बीएसएफ में हैं, लेकिन वे रजिस्टर से बाहर हैं। उनके पास तमाम दस्तावेज भी हैं, लेकिन उन्होंने एक फाॅर्म में गलती से सेना में शामिल होने का साल 1987 की जगह 1978 लिख दिया, तो उनके सारे दस्तावेज ही फर्जी करार दिए गए और वे अब वे भारत के लिए विदेशी करार दिए गए हैं। अब वे भारतीय बने रहने के लिए हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटा रहे हैं।
सनाउल्ला की तरह छवीन्द्र सरमा का भी नाम रजिस्टर से बाहर रह गया है। सनाउल्ला आर्मी में थे, जबकि छबीन्द्र सरमा एअरफोर्स में। सरमा 38 साल तक वायु सेना में अपनी सेवा दे चुके हैं। वे वहां एक कमिशंड अफसर थे। आज वे भी अपने ही देश में विदेशी करार दिए गए हैं। उनका दर्द है कि उन्होंने एक बार नहीं, बल्कि तीन-तीन बार अपने दस्तावेज जमा करवाए, उसके बाद भी वे अपना नाम रजिस्टर में डलवा नहीं पाए। वे कहते हैं कि एक बार क्लर्क गलती कर सकता है, दो बार भी कर सकता है, लेकिन तीन बार कैसे कर सकता।
खबर तो यह भी है कि पूर्व राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद का परिवार भी अपने आपको राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर में शामिल नहीं करवा पाया। अली अहमद 1970 के दशक में भारत के राष्ट्रपति थे। राष्ट्रपति बनने के पहले वे कांग्रेस के नेता थे और देश में मंत्री भी थे। आजदी के बाद से ही वे राजनीति में सक्रिय थे। लेकिन इसके बावजूद दस्तावेजों के अभाव में उनका परिवार रजिस्टर में स्थान पाने मंें विफल हो गया था।
रजिस्टर जो बनकर सामने आया, वह निश्चय ही दोषपूर्ण है। जब अनेक असली लोग उसमें जगह नहीं पा सके, तो यह आसानी से माना जा सकता है कि उसमें अनेक नकली लोग शामिल हो गए हैं। यदि सूची में शामिल होने का आधार दस्तावेज ही हों, तो नकली दस्तावेज बनाने की फैक्टरियां हमारे देश में कम नहीं हैं। दस्तावेज असली है या नकली इसकी जांच करने वाले सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों को खरीदा जाना भारत के लिए एक सामान्य घटना है। सच तो यह है कि जो वास्तव में घुसपैठिये होते हैं, वे ज्यादा स्मार्ट होते हैं और समय से पहले ही अपने आपको तैयार कर लेते हैं, ताकि वे अपने आपको नागरिक साबित कर सकें और जो मूलवासी होते हैं, उन्हें इस बात का डर ही नहीं होता कि वे रजिस्टर से बाहर भी हो सकते हैं। उन्हें तो यह लगता है कि यह सारी कसरत घुसपैठियों की पहचान के लिए है और चूंकि वे घुसपैठिया नहीं हैं, इसलिए उनको डरने की कोई जरूरत नहीं। और इसी चक्कर में वह मारे जाते हैं।
एनआरसी की कसरत शुरू होने के पहले नागरिकता संशोधन कानून बना दिया गया है, जिसके तहत 2014 तक भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से भारत आने वाले गैर मुस्लिमों को नागरिकता दे दी जाएगी। इस कानून के तहत जो गैर मुस्लिम अपने आपको दस्तावेजों के सहारे भारत के नागरिक साबित करने में सफल नहीं हो पाएंगे, उन्हें पाकिस्तान रिफ्यूजी मानकर भारत की नागरिकता दे दी जाएगी। इस कानून का एक मतलब यह भी है। अब गैर मुस्लिम इस बात को लेकर निश्चिंत हैं कि एनआरसी में तो उनका नाम आना ही आना है, भले वे दस्तावेज पेश कर अपने को नागरिक साबित कर पाएं या नहीं कर पाएं। लेकिन वे गलत मुगालता पाल रहे हैं। उनमें से कई तो अपने दस्तावेज लेकर कतारों में खड़े खड़े ही मर जाएंगे, जैसा नोटबंदी के समय लोग पुराने नोट लिए कतारों में खड़े खड़े मर रहे थे। नोटबंदी में तो अपने पुराने नोट लेकर बैंक में ही जाना होता था या अपने खाते से रुपया निकालना होता था, एनआरसी के लिए तो उन्हें दस्तावेजों के लिए भी दौड़ घूप करनी होगी और अपने वर्तमान स्थान से मूल स्थान की बार बार दौड़ लगानी होगी और यदि अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाए, तो फिर पाकिस्तानी रिफ्यूजी बनकर नागरिकता के लिए आवेदन करना होगा।
जाहिर है, एनआरसी बनाने में तबाही ही तबाही है। नोटबंदी से 10 गुना ज्यादा तबाही होगी और उसकी तरह ही कुछ हाथ नहीं आएगा। लिहाजा इस तरह का विचार पालना पागलपन के सिवा और कुछ भी नही है।(संवाद)
असम में एनआरसी की कसरतें विफल रहीं
फिर देश भर में उसे दुहराने का पागलपन क्यों?
उपेन्द्र प्रसाद - 2019-12-20 13:33
राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी को तैयार कर घुसपैटियों की पहचान करने की कोशिश असम में हो चुकी है। जो लोग उस कोशिश के प्रति बहुत आशावान थे, वे आज निराश हैं और उसे एक विफल प्रयास मान रहे हैं। उन्हें उम्मीद थी कि कम से कम एक करोड़ लोग घुसपैठिये के रूप में सामने आएंगे और कुछ अपवादों को छोड़कर वे सारे के सारे बांग्लादेशी मुसलमान होंगे। लेकिन जब यह कसरत समाप्त हुई, तो पता चला कि मात्र 19 लाख लोग ही ऐसे पाए गए हैं, जिनकी भारतीय नागरिकता संदिग्ध है और उनमें से 70 फीसदी तो हिन्दू ही ही हैं। और जो घुसपैठियों के रूप में पहचान लिए गए हैं, उन्हें भारत से निकाला ही नहीं जा सकता। उन्हें भारत में ही रखना होगा, भले उनके लिए अलग से डिटेंशन कैंप बनाकर उन्हें उनमें रखा जाय, लेकिन इस समाधान के भयानक खतरे हैं।