हरियाणा और महाराष्ट्र से भी ज्यादा दुर्गति भाजपा की झारखंड में हुई। वहां उसकी करारी हार हुई। उसका मुख्यमंत्री भी चुनाव हार गया। भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष भी चुनाव हारा। झारखंड के गठन के बाद वहां कभी भारतीय जनता पार्टी दूसरे नंबर की नहीं रही। वह सत्ता में हो या विपक्ष में, हमेशा पहले नंबर की पार्टी ही हुआ करती थी, लेकिन पहली बार वह दूसरे नंबर की पार्टी बन गई। उसे मात्र 25 सीटें मिल पाईं, जबकि झारखंड मुक्ति मोर्चा पहली बार झारखंड में 30 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बन गई। यह नरेन्द्र मोदी की चुनाव जिताऊ ताकत पर भी एक गंभीर टिप्पणी थी, क्योंकि चुनावी जीत हासिल करने के लिए उन्होंने वहां अपनी सारी ताकत झोंक रखी थी। राम मंदिर के मसले को उन्होंने उठाया। धारा 370 पर अपनी पीठ थपथपाई। नागरिकता संशोधन कानून पर पाकिस्तान और मुस्लिम विरोधी लहर पैदा करने के लिए वक्तव्य दिए। उस कानून के विरोधियों को पाकिस्तान परस्त तक करार दिया। लेकिन उनके भाषणों को वहां की जनता ने अनसुनी कर दी। जिन विधानसभा क्षेत्रों में मोदीजी के भाषण हुए, उनमें से एक या दो अपवाद को छोड़कर भाजपा के सारे उम्मीदवार चुनाव हार गए और यह स्पष्ट हो गया कि विधानसभा के चुनावों में मतदाताओं पर मोदी का जादू नहीं चलता।

झारखंड में हार की इस पृष्ठभूमि के बाद दिल्ली में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने यहां की सभी सातों सीटों पर जबर्दस्त जीत हासिल की थी। उसे कुल मतों का 55 फीसदी वोट मिले थे। सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी को मात्र 18 फीसदी वोट और देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को 22 फीसदी वोट ही मिल पाए थे। भाजपा का यहां मुख्य मुकाबला आम आदमी पार्टी से ही होना है और लोकसभा चुनाव में इसके 5 उम्मीदवारों की जमानतें तक जब्त हो गई थीं। इस लिहाज से तो भाजपा के सामने कोई चुनौती ही नहीं होनी चाहिए थी, लेकिन दिल्ली के विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव के पैटर्न को आमतौर पर फाॅलो नहीं करते। ऐसा कई बार देखा गया है। 1998 में लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत हुई थी, तो उसी साल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत हो गई। फिर 1999 में भाजपा की जीत हुई। 2013 के चुनाव में यहां कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के विधायक सबसे ज्यादा जीते थे और आम आदमी पार्टी की सरकार कांग्रेस के समर्थन से बनी थी, लेकिन अगले साल 2014 के चुनाव में भाजपा ने सातों सीटें जीत लीं। पर उसके एक साल के अंदर हुए 2015 के चुनाव में भाजपा की करारी हार हो गई और कांग्रेस का तो कोई नामलेवा भी नहीं रहा था।

यही कारण है कि 2019 में भारी जीत दर्ज करने वाली भाजपा 2020 के विधानसभा चुनाव को लेकर बहुत ही घबराई हुई है। लोकसभा चुनाव के बाद हुए तीन विधानसभाओं के चुनावों में मिल हार ने भाजपा की घबराहट को और भी बढ़ा दिया है। दिल्ली तीन तरफ से हरियाणा से घिरी हुई है। वहां की हार का में दिल्ली की हार भी देखी जा सकती है। दिल्ली में बिहार और झारखंड के लोगों की तादाद बहुत ज्यादा है। लिहाजा, भाजपा को झारखंड की हार में भी दिल्ली की हार दिख रही है। तीनों राज्यों में भाजपा के सामने कमजोर विरोधी थे, लेकिन दिल्ली में आम आदमी पार्टी के रूप में उसके सामने एक बहुत मजबूत प्रतिद्वंद्वी खड़ा है। यह मायने नहीं रखता कि आम आदमी पार्टी पिछले लोकसभा चुनाव में तीसरे स्थान पर खिसक गई थी और उसके 5 उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हो गई थीं, बल्कि मायने यह रखता है कि केजरीवाल सरकार ने अपने 5 साल के शासन के दौरान चुनाव के पहले किए गए अपने सभी वायदे लगभग पूरे कर दिए। यहां 20 हजार लीटर प्रति महीने पानी मुफ्त सप्लाई किया जा रहा है। दो सौ यूनिट बिजली प्रति महीने मुफ्त मिलती है। डीटीसी बसों में महिलाएं मु्फ्त यात्रा करती हैं। दिल्ली में सीसीटीवी लगाने का अपना वायदा भी केजरीवाल ने पूरा कर दिया है। इसके कारण अपराधी अब आसानी से पकड़ में आ जाते हैं। अब तो पूरी दिल्ली में फ्री वाई फाई की सुविधा भी केजरीवाल ने उपलब्ध करवा दी है। दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज होता है और इलाज की सुविधाएं भी बहुत बढ़ा दी गई है। इन सबके कारण केजरीवाल का समर्थन आधार अभी भी बना हुआ है। लोकसभा चुनाव में ऐसे लोग काफी संख्या में मिलते थे, जो कहते थे कि बड़े चुनाव में हम मोदी जी को सपोर्ट कर हैं, लेकिन छोटे चुनाव में केजरीवाल को ही सपोर्ट करेंगे। बड़े चुनाव से उनका मतलब लोकसभा चुनाव और छोटे चुनाव से उनका मतलब विधानसभा चुनाव होता था।

यानी प्रतिद्वंद्वी बहुत प्रबल है और मोदी का जादू अब चल नहीं रहा है और इस माहौल में दिल्ली के मतदाताओं का सामना भाजपा को करना है। जाहिर है, भाजपा एक हारी हुई लड़ाई दिल्ली में लड़ रही है। (संवाद)