उसके बाद इस पर हो रहा हमला प्रत्यक्ष हो गया। इसके खिलाफ अफवाहें फैलाई जाने लगी। कैंपस में नकाबपोशों को भेजकर भारत विरोधी नारे लगवाए गए और आरोप लगाया गया कि जेएनयू के छात्र भारत विरोधी हैं। तत्कालीन छात्र संघ अघ्यक्ष कन्हैया कुमार को विशेष रूप से टार्गेट किया गया। उसके खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया। उसके अलावे कुछ अन्य छात्रों पर भी देशद्रोह के मुकदमे दर्ज किए गए। हालांकि बाद में जिन सबूतों को आधार बनाकर वे मुकदमे दर्ज किए गए थे, वे सबूत फर्जी पाए गए।
कुछ टीवी न्यूज चैनलों ने भी फर्जी वीडियो दिखाकर जेएनयू का चरित्रहनन किया। लेकिन इस पूरे मामले में एक बात नहीं हुई, जिसे अवश्य होना चाहिए था और वह है उन नकाबपोशों की गिरफ्तारी, जो भारत को टुकड़े टुकड़े कर देने के नारे लग रहे थे। उनकी गिरफ्तारी नहीं होना सरकार और दिल्ली पुलिस की मंशा पर शक पैदा करता है। दिल्ली पुलिस तो शासकों के इशारे पर नाचती है, इसलिए उस दोष देना अब शायद उचित नहीं, लेकिन शासक वर्ग अवश्य इस पूरे मामले पर नंगा हुआ, जो अब तक भारत के टुकड़े टुकड़े करने वाले नकाबपोशों के चेहरे से नकाब नहीं उतार सका है।
पांच साल के बाद एक बार फिर नकाबपोशों का एक गिरोह जवाहरलाल में घुसा। इस बार वह भारत के टुकड़े टुकड़े करने के नारे नहीं लगा रहे थे, बल्कि छात्रों और शिक्षकों पर हमले करते दिख रहे थे। वे कौन थे, इसके बारे में अनेक तरह की बातें की जा रही हैं, लेकिन इतना तो तय है कि उनमें से अधिकांश बाहरी ही थे। कुछ कैंपस के छात्र भी होंगे। वे कौन थे, इसका अनुमान लगाने के लिए इस तथ्य पर ध्यान देना होगा कि उन्हें विश्वविद्यालय प्रशासन का सहयोग प्राप्त था, क्योंकि बिना प्रशासन के सहयोग और जानकारी के वे उतनी अधिक संख्या में विश्वविद्यालय परिसर में घुस ही नहीं सकते थे। उनकी संख्या दो सौ के आसपास थी। और वे विश्वविद्यालय परिसर में दो घंटे रहे।
विश्वविद्यालय प्रशासन ही नहीं, बल्कि उन्हें पुलिस का संरक्षण भी प्राप्त था। शायद यही कारण है कि 100 से अधिक फोन काॅल आने के बाद भी पुलिस मौके पर समय से नहीं पहुंची, जबकि दिल्ली पुलिस नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ दिल्ली में हो रहे प्रदर्शनों के कारण हमेशा रेड अलर्ट पर रहती है और विश्वविद्यालयों को लेकर कुछ ज्यादा ही संवेदनशील भी रहती है। वैसे जेएनयू में पहले से ही फी वृद्धि के मसले पर छात्र आंदोलन कर रहे हैं और दिल्ली पुलिस के लिए जेएनयू अपने आप में एक संवेदनशील स्पाॅट है, जहां से उसे कभी भी बुलावा आ सकता है। इन सब तथ्यों के बावजूद पुलिस वहां समय पर नहीं पहुंची।
और पहुंचने के बाद भी दिल्ली पुलिस जेएनयू के गेट पर जाकर मूकदर्शक बनी रही। उसका कहना है कि बिना विश्वविद्यालय प्रशासन के आदेश के वह कैंपस में प्रवेश नहीं कर सकती, लेकिन कुछ दिन पहले यही दिल्ली पुलिस जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में बिना प्रशासन की इजाजत से विश्वविद्यालय के पुस्तकालय तक में पहुंच गई थी और वहां पढ़ाई कर रहे छात्र छात्राओं तक को पीट डाला था। लेकिन जेएनयू में नकाबपोश आतंकियों द्वारा किए जा रह उत्पाद के बावजूद वे विश्वविद्यालय प्रशासन से इजाजत मिलने का इंतजार कर रहे थे। और सवाल यह भी है कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने दिल्ली पुलिस को विश्वविद्यालय परिसर में प्रवेश की इजाजत देने में उतनी देर क्यों लगा दी?
दिल्ली पुलिस की बात अपनी जगह पर छोड़ भी दें, तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की अपनी आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था भी है। वहां सुरक्षा गार्डों की संख्या सैंकड़ों में है। उनका काम बाहरी तत्वों के परिसर में प्रवेश पर नजर रखना है। बिना उनकी इजाजत के कोई बाहरी व्यक्ति कैंपस में प्रवेश नहीं कर सकता। बाहरी व्यक्ति क्या जेएनयू के विद्यार्थी भी बिना पहचान पत्र दिखाए कैंपस में प्रवेश नहीं कर सकते। सवाल उठता है कि उन्होंने अपना फर्ज क्यों नहीं निभाया? दो घंटे तक आतंकी जब परिसर में आतंक फैला रहे थे, तो जेएनयू के आंतरिक सुरक्षा गार्ड क्या कर रहे थे? दिल्ली पुलिस यदि हमले को नहीं रोक सकती थी, तो हमलावरों को कैंपस से बाहर भागने से तो रोक ही सकती थी। प्रत्यक्षदशियों का कहना है कि आतंकवादी जेएनयू के उत्तरी गेट से निकल कर भागे और वही गेट जेएनयू का मेन गेट भी है, जो गंगनाथ मार्ग की ओर खुलता है। क्या दिल्ली पुलिस उस गेट को बंद नहीं करवा सकती थी। सबसे खराब बात तो यह है कि जब घायलों को अस्पताल ले जाने के लिए वहां एंबुलेंस आया, तो पुलिस के सामने ही एंबुलेंस के टायर की हवा निकाल दी गई और उसके शीशे तोड़ दिए गए। जिस समय आतंकी भाग रहे थे, उस समय गंगनाथ मार्ग की बिजली भी गुल हो गई। जाहिर है, सबकुछ योजनाबद्ध तरीके से किया गया था।
यही कारण है कि जेएनयू पर हुए आतंकी हमले की निष्पक्ष जांच दिल्ली पुलिस कर ही नहीं सकती और न ही विश्वविद्यालय प्रशासन कर सकता है, क्योंकि दोनों इस हमले में संलिप्त दिखाई पड़ रहे हैं। इसलिए इसकी न्यायिक जांच की जानी चाहिए। पर सवाल उठता है कि क्या दिल्ली की केजरीवाल सरकार न्यायिक जांच आयोग गठित करने में सक्षम है, क्योंकि केन्द्र सरकार से हम उम्मीद नहीं कर सकते कि वह जेएनयू मामले की जांच के लिए इस तरह का कदम उठाएगी। उसके कुछ मंत्री बेहद ही गैरजिम्मेदाराना बयान जारी कर रहे हैं। हां, सर्वोच्च न्यायालय या दिल्ली उच्च न्यायालय भी अपने अधिकार का इस्तेमाल कर इसकी न्यायिक जांच करा सकते हैं। (संवाद)
जेएनयू पर आतंकी हमला
निष्पक्ष न्यायिक जांच से ही चलेगा सच्चाई का पता
उपेन्द्र प्रसाद - 2020-01-06 10:59 UTC
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पर हिंसक हमला हो गयाा। यह हमला छात्रों को आतंकित करने के लिए किया गया था। इसलिए इसे आतंकी हमला कहना सही रहेगा। यह हमला अभूतपूर्व है, लेकिन इसे अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता। सच तो यह है कि अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त देश के इस प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय पर हमला नरेन्द्र मोदी सरकार के गठन के बाद से ही शुरू हो गया था। हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में वेमुला की आत्महत्या के खिलाफ देश भर में जो छात्र आंदोलन हो रहा था, उसमें जेएनयू भी शामिल था।