लेकिन इस बार कुछ गंभीर बातें हुईं। महिला आरक्षण के वर्तमान स्वरूप के खिलाफ आपत्तियों को पहली बार संभवतः गंभीरता से देखा गया। महिला आरक्षण के सबसे बड़े समर्थक वामपंथी दलों ने कोटा के अंदर कोटा पर विचार करने की बात कही, हालांकि यह भी कह डाला कि यह शायद संभव न हो सके, लेकिन महिला आरक्षण पर मुस्लिम और पिछड़े के हितों को ध्यान में रखना और उस पर विचार करने को वामपंथी दलों द्वारा तैयार होना अपने आप में इस बैठक की उपलब्धि रही।
यदि विचार करने पर वामपंथी नेता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि महिला आरक्षण के वर्तमान स्वरूप से वास्तव में मुसलमानों और पिछड़ों को नुकसान होता है, और कोटा के अंदर कोटा को संभव बनाना सांवेघानिक रूप से संभव नहीं है, तो महिलाओं के सशक्तिकरण के किसी और स्वरूप पर विचाार किया जा सकता है। ऐसा तो हो नहीं सकता कि महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए आप समाज के एक बड़े तबके के हितों को ही नजरअंदाज कर दें।
हमारा समाज जातियोंए संप्रदायों और आर्थिक वर्ग समूहों में बंटा हुआ है, स्त्री और पुरुषों में नहीं। परिवार समाज की प्राथमिक सांगठिक इकाई है और परिवार स्त्री और पुरुष के साथ ही तैयार होता है। इसलिए महिलाओं के पुरुषों से भिन्न होने के बावजूद महिलाओं और पुरुषों का कोई अलग अलग वर्ग नहीं है। परिवार के हित में ही उस परिवार के पुरुषों और महिलाओं का हित जुड़ा होता है। महिलाएं अपने परिवार का हित त्याग कर दूसरे परिवार की महिलाओं के साथ आमतौर पर खड़ी नहीं होती।
यानी जब परिवार हित सामने आता है, तो परिवार हित को ही वरीयता देती हैं। जाति और संप्रदाय परिवारों से ही मिलकर बने है। यह कहना गलत है कि महिलाओं की जाति नहीं होती और महिला सिर्फ महिला होती है। यह सच है कि पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को बराबरी का हक नहीं मिला है और उनके सशक्तिकरण की सख्त जरूरत है। यदि समाज में उनकी हैसियत नहीं बढ़ाई गई, तों महिला भ्रूण की हत्याएं होती रहेंगी और पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या लगातार घटती जाएगी। इसलिए महिलाओं का सशक्तिबरण और परिवार व समाज में उसकी हैसियत बढ़ाना आज एक ऐतिहासिक आवश्यकता बन गई है।
यही कारण है कि महिलाओं की भागीदारी लोकसभा और विधानसभाओं में बढ़ाने के लिए सांवैधानिक प्रावधानों में और विलंब नहीं किया जाना चाहिए। जब से इसका प्रस्ताव आया है, तब से 14 साल बीत चुके हैं और महिलाओं के नाम पर सिर्फ राजनीति हो रही है। उनके सशक्तिकरण पर कोई ध्यान ही नहीं दिया जा रहा है। सर्वदलीय बैठकें कोई सर्वसम्मत समाधान निकालने का माध्यम रही ही नहीं, बल्कि इस पर टाल मटोल करने का बहाना भर थी।
इस मसले पर समाधान तभी निकल सकता है, जब आपत्तियों पर घ्यान दिया जाय। भाजपा, कांग्रेस और वामपंथी दलो ने उन आपत्तियों पर कभी ध्यान दिया ही नहीं, जो कुछ नेता उटाते रहे। भाजपा में रह चुकी उमा भारती ने भी पिछड़े वर्गों का मसला उठाया, लेकिन भाजपा ने अपनी पार्टी के अंदर भी उस पर कभी विचार नहीं किया।
महिलाओं को वर्तमान स्वरूप में आरक्षण देने से अन्य अनेक समस्याएं भी पैदा हो सकती हैं। उन समस्याओं पर भी कभी विचार करने की जरूरत नहीं समझी गई। जिन सांसदों के ऊपर महिला आरक्षण विधेयक को पारित करने का जिम्मा है, उनके लिए भी वर्तमान रूप में यह विधेयक समस्या पैदा करने वाला है, क्योंकि उनकी अपनी सीट की आरक्षित हो जाने का खतरा है, लेकिन पार्टी नेतृत्व ने कभी भी उन सांसदों की राय लेने की जरूरत नहीं समझी और उन सांसदों ने भी अपनी चिंताओं को मुखर करने की कोशिश नहीं की, क्योंकि उन्हें लगा कि कोटे के अंदर कोटा की मांग ही इस आरक्षण विधेयक को रोकने के लिए काफी है।
अब जब राज्य सभा से यह विधेयक पारित हो गया है और कोटा के अंदर कोटा की मांग इसे रोकने में सफल नहीं हो रही है, तो लोकसभा सांसद अपनी अपनी चिंताओं को स्वर देने लगे हैं। कांग्रेस सत्तारूढ़ पार्टी है और इसका नेत्त्व भी बहुत मजबूत है, इसलिए इसके सांसद खुलकर इसके खिलाफ नहीं बोल सकते। वामपंथी दलों के सांसद पार्टी अनुशासन में ज्यादा विश्वास रखते हैं, इसलिए उनमें महिला आरक्षण के वर्तमान स्वरूप को लेकर शायद विरोध भी नहीं है। लेकिन भाजपा का मामला अलग है।
भाजपा में पहले भी उमा भारती और विनय कटियार जैसे नेता महिला आरक्षण् के वर्तमान स्वरूप का विरोध कोटा के अंदर कोटा की मांग करके करते रहे हैं। इस विधेयक को हकीकत बनता देख अब भाजपा के अधिकांश सांसद इसके विराधी बन गए हैं और अपने विरोध को स्वर भी देने लगे हैं। पार्टी का नेतृत्व भी अब कमजोर पड़ गया है, क्योंकि अटल बिहारी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता अब पार्टी को दिशा नहीं दे रहे हैं। पार्टी के मुख्य सचेतक ने यह रहस्योद्घाटन किया कि पार्टी के 70 फीसदी लोकसभा सांसद इस विधेयक के खिलाफ हैं। लोकसभा में पार्टी नेता उमा भारती ने कहा कि पार्टी व्हिप जारी करेगी। लालकृष्ण आडवाणी के घर पर हुई बैठक में तय हुआ कि व्हिप जारी करने के पहले सांसदों की राय ली जाएगी। इसका सीधा मतलब था कि व्हिप जारी ही नहीं होगा, क्योंकि यदि सांसदों का बहुमत विधेयक के पक्ष में व्हिप के खिलाफ होगे। व्हिप के द्वारा अल्पमत को तो लाइन पर लाया जा सकता है, लेकिन बहुमत को नहीं हांका जा सकता।
यानी वर्तमान स्वरूप में महिला आरक्षण विधेयक को खतरा अब भाजपा से है। यही कारण है कि सुषमए स्वराज ने पार्टियों द्वारा टिकट बंटवारे में महिलाओं के आरक्षण् पर विचार करने की बात कर दी है। मुलायम सिंह यादव पिछले 14 सालों से इसकी मांग करते रहे हैं। पहले वे 15 फीसदी आरक्षण की बात करते थे, अब वे 20 फीसदी आरक्षण की बात कर रहे हैं। सुषमा स्वराज ने टिकट वितरण में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण के प्रस्ताव पर विचार करने की बात की है।
सव कहा जाए तो इसी फार्मूले से महिला आरक्षण विधेयक आमसहमति बन सकती है। इसके तहत न तो कोटा के अंदर कोटा की बात सामने आएगी और न ही लोकसभा सांसद अपनी सीटों के महिलाओं के लिए आरक्षित होने का खतरा महसूस करेगे। महिलाओं की समस्या यह नहीं है कि लोग उन्हे वोट नहीं देते उनकी समस्या यह है कि उन्हें टिकट ही नहीं मिलता। यदि उन्हें टिकट मिलता है, तो वे चुाव भी जीतेंगे। इसके बारे में किसी को गलतफहमी नहीं पालनी चाहिए। (संवाद)
महिला आरक्षण विधेयक: सर्वदलीय बैठक और उसके बाद
उपेन्द्र प्रसाद - 2010-04-11 07:48
पिछले सोमवार को महिला आरक्षण विधेयक पर हुई सर्वदलीय बैठक के बाद पहली बार लगा कि इस मसले पर किसी सहमति की ओर बढ़ा जा सकता है। पिछले 14 सालों में इस मसले पर अनेक बैठकें हुईं हैं, लेकिन वे सब बैठकें दिखावे के लिए हुआ करती थीं। जो महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने के पक्षधर थे। वे अपनी बात कहते थे और जो इसके विरोधी थे, वे अपनी बात कहकर चले आते थे। सच तो यह है कि महिलाओं के सशक्तिकरण के प्रति गंभीर वे भी नहीं थे, जो आरक्षण का समर्थन कर रहे थे। इसलिए महिला आरक्षण उनके लिए खबर बनाने का एक जरिया मात्र था।