हालांकि, यह भी निर्विवाद है कि बीजेपी ने कई सीटों पर जबर्दस्त टक्कर दी। 2015 में 32.8 प्रतिशत से भाजपा के वोट शेयर में आठ प्रतिशत की उछाल आई है, हालांकि यह 2019 के 56.9 प्रतिशत से तेजी से गिरा है।
इसलिए, परिणाम क्या रेखांकित करता है? वह सही रेखांकित करता है कि दिल्ली के मतदाता राज्य के चुनाव और राष्ट्रीय चुनाव को अलग अलग नजरिए से देखते हैं। हाल ही में हुए तीन अन्य विधानसभा चुनावों में भी यह प्रवृत्ति स्पष्ट हुई है। हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में, जहाँ भाजपा या तो सरकार बनाने में विफल रही या केवल सहयोगी के साथ ऐसा कर सकी।
अगर यह सिलसिला जारी रहा, तो बीजेपी को इस साल के अंत में बिहार में कड़ी चुनौती का सामना करने की उम्मीद की जा सकती है, खासकर तब जब उसके विरोधी आपसी गठबंधन बनाने में सक्षम हों। इसकी प्रबल संभावना है क्योंकि यह स्पष्ट है कि नरेंद्र मोदी की राष्ट्रीय स्तर की लोकप्रियता राज्य के चुनावों में मतदाताओं को प्रभावित नहीं करती। नरेन्द्र मोदी की यह विफलता इस बात की परवाह किए बिना है कि क्या महाराष्ट्र में देवेंद्र फड़नवीस जैसे स्वीकार्य स्थानीय नेता हैं या दिल्ली में कोई भी ऐसा नहीं है।
यकीनन, यह भाजपा का अहसास है कि मोदी लोकसभा चुनाव की तरह राज्य चुनाव को अपने पक्ष में करने में असमर्थ हैं, जिसने पार्टी को दिल्ली अभियान में विष की अतिरिक्त खुराक इंजेक्ट किया। यह सांप्रदायिक जहर जाहिर तौर पर मुख्यमंत्री के चेहरे की अनुपस्थिति में उनके शस्त्रागार में एकमात्र हथियार था।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि भाजपा ने राष्ट्रीय राजधानी में चुनावी स्तर को बहुत नीचा गिराते हुए एक गैर-भाजपा मुख्यमंत्री को आतंकवादी कहा। आम आदमी पार्टी और भाजपा के बीच राजनीतिक लड़ाई की तुलना भारत-पाकिस्तान लड़ाई के साथ कर दी थी।
यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि क्या भाजपा की रणनीति इतनी शातिर होगी यदि पार्टी को सैकड़ों मुस्लिम महिलाओं के शाहीन बाग में बैठने से रोका नहीं गया था, जिससे केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मतदाताओं को वोटिंग मशीनों पर बटन दबाने की सलाह दी थी। उन्होंने कहा था कि बटन इतने जोर से दबाना कि उसका करंट शाहीन बाग तक पहुंचे।
एक केंद्रीय मंत्री ने एक चुनावी रैली में अपने समर्थकों से आहवान किया कि वह देशद्रोहियों को गोली मार दे। गौरतलब हो कि भाजपा के लोग अपने राजनैतिक विरोधियों को ही देशद्रोही कहते हैं। एक सांसद ने तो यहां तक कहा कि शाहीन बाग प्रदर्शनकारियों के पीछे काम करने लोग बलात्कार और हत्या करने के लिए हिंदू घरों में प्रवेश करेंगे। मानो इस बात पर जोर देने के लिए कि पार्टी द्वारा इन विट्रियोलिक उक्तियों का समर्थन किया गया था, उस एम.पी. को भाजपा द्वारा राष्ट्रपति के अभिभाषण पर संसद में बहस करने के लिए मैदान में उतारा गया था, हालांकि चुनाव आयोग द्वारा उसे फटकार लगाई गई।
हालांकि, उल्लेखनीय यह है कि इस सांप्रदायिक विषाक्तता में से किसी ने भी भाजपा की मदद नहीं की। अगर कुछ भी होता है, तो पता चलता है कि आम लोग इस तरह के मुस्लिम-विरोधी जहर को नजरअंदाज कर दिया।
उन्होंने आम आदमी पार्टी पर अपना विश्वास बनाए रखा। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि अगर अरविंद केजरीवाल ने अपने कार्यकाल के पहले तीन साल बर्बाद नहीं किए होते तो नतीजे और भी बेहतर होते।
यह केवल पिछले दो वर्षों में था कि उन्होंने शासन पर ध्यान केंद्रित किया। ज्यादातर लोग उम्मीद करेंगे कि वह ऐसा करना जारी रखेंगे और अन्ना हजारे आंदोलन के समय पनपी राष्ट्रीय भूमिका निभाने की उम्मीद से विचलित नहीं होंगे, जब उन्होंने प्रधानमंत्री होने की महत्वाकांक्षा का पोषण किया था। (संवाद)
संप्रदायिकता के जहर ने भी बीजेपी की मदद नहीं की
दिल्ली में मोदी- शाह की करारी हार
अमूल्य गांगुली - 2020-02-12 12:13
बहुत लोगों ने आम आदमी पार्टी से पांच साल पहले के अपने धमाकेदार प्रदर्शन को दोहराने की उम्मीद की होगी। उस समय उसने 70 में से 67 विधानसभा सीटें जीती थीं। लेकिन यह तथ्य कि यह 62 सीटों को जीत चुका है और अपने 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर को बनाए रखने में सफल रहा है। यह दर्शाता है कि इसकी राजनीतिक अपील में बहुत कम कमी आई है।