2014 में भी भाजपा ने लोकसभा में शानदार जीत हासिल की थी और 2019 में भी उसे उससे थोड़ी बेहतर जीत ही हासिल हुई। लेकिन 2014 के बाद जहां वह एक के बाद एक विधानसभा चुनाव जीतती जा रही थी, वहीं वह 2019 के बाद एक के बाद एक विधानसभा चुनाव हारती जा रही है। 2015 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव ने भाजपा की जीत पर ब्रेक लगा दिया था। इस बार भाजपा कोशिश कर रही थी कि दिल्ली उसकी हार पर ब्रेक लगा दी थी। लेकिन उसे निराशा हाथ लगी। चुनाव जीतने के लिए उसने साम दाम दंड भेद सभी तरीके आजमा लिया। शायद ही कोई पार्टी किसी विधानसभा चुनाव को जीतने के लिए उतना जोर लगाती है, जितना भाजपा ने लगाया। लेकिन वह चुनाव हारी ही नहीं, बल्कि बुरी तरह हारी।
दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद 2015 में उसने बिहार विधानसभा चुनाव का सामना किया था और वहां भी वह बुरी तरह हारी थी। इस बार भी उसे दिल्ली के बाद बिहार में ही विधानसभा के चुनाव का सामना करना पड़ेगा। उसके विरोधी दिल्ली चुनाव से खुश हैं और उन्हें लग रहा है कि भाजपा बिहार में भी चुनाव हार जाएगी। लेकिन ऐसा सोचना सही है। इसका कारण यह है कि दिल्ली में भाजपा अपनी कमजोरी की वजह से नहीं हारी, बल्कि उसके सामने एक बहुत ही मजबूत प्रतिद्वंद्वी था, जिससे दिल्ली की जनता बहुत खुश थी। उस सरकार ने जनकल्याण के न केवल अनेक कार्यक्रम चलाए थे, बल्कि उन कार्यक्रमों का लाभ जनता को मिल भी रहा था और जनता उस लाभ को खोना नहीं चाहती थी। यही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी की सारी कोशिशें बेअसर हुईं।
लेकिन बिहार की राजनैतिक परिस्थितियां बिल्कुल अलग हैं। वहां भारतीय जनता पार्टी और नीतीश कुमार की मिलीजुली सरकार है, जिसका नेतृत्व नीतीश कुमार कर रहे हैं। भाजपा कह चुकी है कि अगला विधानसभा चुनाव भी नीतीश के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा और नीतीश ही जीत के बाद मुख्यमंत्री होंगे। यानी वहां चुनावी गाड़ी की पिछली सीट पर भाजपा बैठी दिखाई देगी और जीत का दारोमदार नीतीश कुमार पर होगा। जाहिर है, चुनावी रणनीतियां भी नीतीश के हिसाब से ही तैयार की जाएंगी। दिल्ली में भाजपा सांप्रदायिकता का खुला खेल खेल रही थी, लेकिन नीतीश कुमार उसे वहां वैसा नहीं करने दंेगे। यह भी सच है कि दिल्ली की तरह बिहार में भाजपा को मुस्लिम वोट नहीं मिलेंगे और उसके साथ होने के कारण नीतीश कुमार के दल को भी मुस्लिम वोट नहीं मिलने, लेकिन हिन्दू वोट पाने के लिए भाजपा को सांप्रदायिकता का खेल खेलने की इजाजत नीतीश कुमार हरगिज नहीं देंगै। सच कहा जाए, तो भारतीय जनता पार्टी को उसकी जरूरत ही नहीं पड़ेगी, क्योंकि नीतीश के साथ उसका गठबंधन बिहार में मजबूत स्थिति में है।
मजबूत होने का कारण यह नहीं है कि नीतीश सरकार केजरीवाल सरकार की तरह बहुत लोकप्रिय है। सच कहा जाय तो नीतीश सरकार भी बहुत अलोकप्रिय है और लोगों में उस सरकार के प्रति बहुत असंतोष है। नीतीश की निजी छवि भी अब अच्छी नहीं रह गई है। सत्ता के लिए वे अनेक बार पाला बदल चुके हैं। लेकिन इसके बावजूद प्रदेश की आबादी का एक हिस्सा उनके साथ नजदीकी से जुड़ा हुआ। इस जुड़ाव का कारण यह भी नहीं है कि नीतीश कुमार उन लोगों की जाति के है। सच तो यह है कि नीतीश कुमार की जाति के लोगों की संख्या बिहार में मुश्किल से दो फीसदी होगी, लेकिन वहां की जाति की राजनीति में नीतीश कुमार का विशेष स्थान है और उसके कारण ही, वे चाहें जिस पाले में जाएं, आबादी का वह हिस्सा उन्हीं के साथ जाता है। यदि वे लालू के साथ रहेंगे, तो वह हिस्सा लालू के साथ चला जाएगा और यदि वे भाजपा के साथ रहेंगे, तो वह भाजपा के साथ चला जाएगा। यह हिस्सा ओबीसी की कमजोर जातियांे का है, जिन्हें वहां अत्यंत पिछड़ा वर्ग कहा जाता है। वे कभी लालू के साथ हुआ करती थीं, लेकिन अब लालू उनके लिए डर और दहशत के प्रतीक हो गए हैं। उन्हें लगता है कि यदि लालू राज आ गया, तो लालू की जाति के लोग उनके लिए काल बन जाएंगे। इसलिए वे लालू के साथ नहीं जा सकते। वे सवर्णो से भी उतना ही डरते हैं, जितना लालू की जाति से। इसलिए सवर्ण पार्टी की पहचान वाली भाजपा के साथ भी वे नहीं जा सकते। उन्हें नीतीश कुमार ही पसंद हैं। उनकी आबादी करीब 20 फीसदी होगी।
भाजपा के साथ बिहार के 15 फीसदी सवर्ण हैं और इसके साथ कुछ ओबीसी जातियां भी हैं, जिनकी आबादी मुश्किल के 5 फीसदी होगी। इस तरह नीतीश और भाजपा मिलकर करीब 40 फीसदी आबादी पर अपना अच्छा प्रभाव रखते हैं। यह 40 फीसदी आबादी घोर लालू विरोधी है और जबतक लालू राजनैतिक रूप से बिहार में प्रासंगिक हैं, तब तक उन्हें या तो नीतीश या भाजपा के साये में बना रहना होगा। ये वोट ट्रांसफेरेबुल भी है। यानी नीतीश के समर्थक आसानी से भाजपा उम्मीदवारों को वोट देंगे, क्योंकि उन्हें पता है कि मुख्यमंत्री तो नीतीश को ही होना है। भाजपा के सवर्ण समर्थक भी नीतीश के उम्मीदवार को आसानी से वोट दे देंगे, क्योंकि नीतीश की छवि लालू की तरह अगड़ा विरोधी की नहीं है। यही कारण है कि बिहार में इस गठजोड़ को हराना फिलहाल संभव नहीं लगता। लालू का मुस्लिम यादव गठजोड़ 30 प्रदेश की आबादी का 30 फीसदी ही है, जो चुनाव जिताने के लिए पर्याप्त नहीं है। वहां मुकाबला भी दिल्ली की तरफ दो तरफा नहीं होता, बल्कि अनेक दल हैं, जो थोड़ा थोड़ा वोट पा ही लेते हैं। सच कहा जाए, तो लालू की उपस्थिति वहां भाजपा और नीतीश के गठजोड़ की जीत की गारंटी है। यदि लालू अपने बेटे के अलावा किसी और के नेतृत्व में चुनाव लड़ाएं, तभी शायद वहां विपक्ष चुनाव जीतने की संभावना रख सकता है। (संवाद)
दिल्ली के बाद क्या बिहार की बारी है?
लेकिन पाटलीपुत्र में राजग को हराना आसान नहीं
उपेन्द्र प्रसाद - 2020-02-13 10:36
दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी हार गई। यह उसकी लगातार सातवीं विधानसभा हार है। 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद यह उसकी चैथे राज्य में हार है, जबकि उस लोकसभा चुनाव के पहले उसने एक साथ ही तीन राज्यों में पराजय का सामना किया था। एक साथ उसने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ गंवा दिए थे। लोकसभा की जीत में उन तीनों राज्यों की हार ढक गई थी, लेकिन चार राज्यों में एक के बाद एक हारने के बाद अब उन तीनों राज्यों की हार भी ताजा हो गई है।