प्रधानमंत्री के इस प्रशस्ति गान से यह भी जाहिर होता है कि हमारी न्यायपालिका किस कदर राजनीतिक सत्ता की बांदी बन चुकी है। इससे यह भी समझा जा सकता है कि जजों के सेवानिवृत्त होने के बाद भारी-भरकम वेतन, सरकारी बंगला, गाडी, नौकर-चाकर आदि तमाम सुविधाओं से युक्त उनका पुनर्वास कैसे होता है। किसी को किसी न्यायिक आयोग या ट्रिब्यूनल का अध्यक्ष बना दिया जाता है तो किसी को किसी सूबे के राजभवन में बैठा दिया जाता है। यहां यह भी गौरतलब है कि इन्हीं जस्टिस अरुण मिश्रा ने चंद दिनों पहले ही टेलीकॉम कंपनियों से संबंधित मामले की सुनवाई करते हुए कहा था- ‘‘एक सरकारी बाबू सुप्रीम कोर्ट के आदेश को दबा कर बैठ जाता है। पैसे के दम पर सब चलाया जा रहा है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को बंद कर देना चाहिए। देश छोडकर चले जाने की इच्छा होती है, क्योंकि यह रहने लायक नहीं रहा।’’

न्यायपालिका की विश्वसनीयता को लेकर उठ रहे सवालों के बीच हाल के दिनों में इलाहाबाद हाई कोर्ट से जुडी दो महत्वपूर्ण खबरें और भी आईं। पहली यह कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने यौन शोषण और उत्पीडन के गंभीर आरोपी पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता चिन्मयानंद को जमानत पर रिहा करने का आदेश दे दिया और इसके साथ ही पीडिता की नीयत पर भी सवाल खडे कर दिए। इसके दो दिन बाद ही दूसरी खबर यह आती है कि सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने चिन्मयानंद की जमानत मंजूर करने वाले इलाहाबाद हाई कोर्ट के अतिरिक्त जज राहुल चतुर्वेदी को पदोन्नत कर स्थायी जज के रूप में नियुक्त करने की सिफारिश की है। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि कोई तीन साल पहले सामूहिक बलात्कार के आरोप में जेल में बंद उत्तर प्रदेश के एक पूर्व मंत्री गायत्री प्रजापति को जमानत देने वाले एक स्पेशल जज (पॉक्सो एक्ट) को इलाहाबाद हाई कोर्ट प्रशासन ने निलंबित कर उनके खिलाफ जांच बैठा दी थी।

ये और इनके जैसी अन्य तमाम खबरें बताती हंै कि देश की अन्य संवैधानिक संस्थाओं की तरह हमारी न्यायपालिका भी इस समय संक्रमण के दौर से गुजर रही है और उसका भी तेजी से क्षरण हो रहा है। न सिर्फ उसकी कार्यशैली और फैसलों पर सवाल उठ रहे हैं, बल्कि उसकी हनक भी लगातार कम हो रही है। अदालती फैसलों को लागू कराने के लिए जिम्मेदार मानी जाने वाली कार्यपालिका यानी सरकार के विभिन्न अंग भी कई मामलों में अदालती आदेशों की अनदेखी कर रहे हैं या उसके विपरीत काम कर रहे हैं।

हालांकि न्यायपालिका का क्षरण कोई नई परिघटना नहीं है। यह सिलसिला बहुत पहले से चला आ रहा है। कुछ पुराने और बडे़ उदाहरण इस हकीकत की तसदीक करते हैं।

वैसे अदालतों में होने वाली गड़बड़ियों को लेकर संबंधित मामलों की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च अदालत के भीतर से ही आवाज उठने और पीठासीन जजों का अपनी मातहत अदालतों को फटकार लगाने का सिलसिला भी पुराना है। दो साल पहले तो सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने प्रधान न्यायाधीश की ही संदेहास्पद कार्यशैली पर सार्वजनिक रूप से सवाल उठा दिए थे और देश के लोकतंत्र को खतरे में बताया था। मीडिया से मुखातिब चारों जजों ने यद्यपि सरकार को लेकर कोई टिप्पणी नहीं की थी, लेकिन सरकार और सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ताओं ने उन चार जजों के बयान पर जिस आक्रामकता के साथ प्रतिक्रिया जताई थी और प्रधान न्यायाधीश का बचाव किया था, वह भी न्यायपालिका की पूरी कलंक-कथा को उजागर करने वाला था। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश पीवी सावंत ने एक टीवी इंटरव्यू में चारों जजों के बयान को देशहित में बताते हुए कहा था कि देश की जनता को यह समझ लेना चाहिए कि कोई भी न्यायाधीश भगवान नहीं होता। न्यायपालिका के रवैये पर कठोर टिप्पणी करते हुए उन्होंने दो टुक कहा था कि अदालतों में अब आमतौर पर फैसले होते हैं, यह जरूरी नहीं कि वहां न्याय हो।

न्यायपालिका में लगी भ्रष्टाचार की दीमक और न्यायतंत्र पर मंडरा रहे विश्वसनीयता के संकट ने ही करीब एक दशक पहले देश के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एस.एच. कपाडिया को यह कहने के लिए मजबूर कर दिया था कि जजों को आत्म-संयम बरतते हुए राजनेताओं, मंत्रियों और वकीलों के संपर्क में रहने और निचली अदालतों के प्रशासनिक कामकाज में दखलंदाजी से बचना चाहिए। 16 अप्रैल 2011 को एमसी सीतलवाड स्मृति व्याख्यान देते हुए न्यायमूर्ति कपाडिया ने कहा था कि जजों को सेवानिवृत्ति के बाद नियुक्ति के लोभ से भी बचना चाहिए, क्योंकि नियुक्ति देने वाला बदले में उनसे अपने फायदे के लिए निश्चित ही कोई काम करवाना चाहेगा। उन्होंने जजों के समक्ष उनके रिश्तेदार वकीलों के पेश होने की प्रवृत्ति पर भी प्रहार किया था और कहा था कि इससे जनता में गलत संदेश जाता है और न्यायपालिका जैसे सत्यनिष्ठ संस्थान की छवि मलिन होती है।

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की बात को सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश रहे वीएन खरे ने तो बडे ही सपाट अंदाज मे स्वीकार किया था। 2002 से 2004 के दौरान सर्वोच्च अदालत के मुखिया रहे जस्टिस खरे ने अपने एक इंटरव्यू मे कहा था- ‘‘जो लोग यह दावा करते हैं कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार नहीं है, मैं उनसे सहमत नही ’ं। मेरा मानना है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का यह नासूर ऐसा है जिसे छिपाने से काम नहीं चलेगा, इसकी तुरंत सर्जरी करने की आवश्यकता है।’’ जस्टिस खरे ने न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए महाभियोग जैसे प्रावधान और उसकी प्रक्रिया को भी नाकाफी बताया था।

ऐसा नहीं है कि न्यायपालिका में जारी गडबडियों से आम आदमी बेखबर हो, लेकिन मुख्य रूप से दो वजहों से ये गडबडियां कभी सार्वजनिक बहस का मुद्दा नहीं बन पातीं। एक तो लोगों को न्यायपालिका की अवमानना के डंडे का डर सताता है और दूसरे, अपनी तमाम विसंगतियों और गडबडियों के बावजूद न्यायपालिका आज भी हमारे लोकतंत्र का सबसे असरदार स्तंभ है, जिसे हर तरफ से आहत और हताश-लाचार आदमी अपनी उम्मीदों का आखिरी सहारा समझता है। (संवाद)