इस्तीफा देने से पहले मुख्यमंत्री कमलनाथ ने एक पत्रकार वार्ता में भाजपा पर तीखे प्रहार किए। उन्होंने कहा, ‘‘मेरा क्या कसूर, मेरी क्या गलती।’’ जनता ने कांग्रेस को 5 साल का मौका दिया था, लेकिन भाजपा पहले ही दिन से सरकार को अपदस्थ करने की निरंतर साजिश रचती रही। भाजपा हर 15 दिन पर कहती थी कि कांग्रेस की सरकार 15 दिनों की है, कांग्रेस की सरकार अल्पमत की सरकार है, लेकिन कांग्रेस ने सदन में तीन बार अपना बहुमत सिद्ध किया। भाजपा को कांग्रेस द्वारा किए जा रहे विकास कार्य और माफिया के खिलाफ अभियान रास नहीं आ रहा था। कांग्रेस सरकार पर एक भी घोटाले के आरोप नहीं लगे। उन्होंने कहा कि भाजपा को डर था कि कांग्रेस के इन कामों की बदौलत प्रदेश की बागडोर उसे कभी नहीं मिलेगी, इसलिए उसने पहले महत्वकांक्षी सिंधिया को अपने पाले में किया और फिर होली के दिन कांग्रेस के विधायकों को प्रलोभन देकर बंधक बना लिया। करोड़ों रुपए खर्च करके खेल खेला गया। एक महाराज (ज्योतिरादित्य सिंधिया) और 22 लोभियों को प्रदेश की जनता माफ नहीं करेगी। उन्होंने कहा कि वे सौदेबाजी एवं नीलामी की राजनीति में कभी नहीं पड़े। भाजपा को यह याद रखना होगा कि आज के बाद कल आता है और कल के बाद परसो भी आता है। कल के बाद परसो आएगा।
ज्योतिरादित्य सिंधिया द्वारा भाजपा में जाने के बाद उनके समर्थक 22 विधायकों को बेंगलुरु में रखा गया, और वहां से भाजपा नेताओं के माध्यम से उनके इस्तीफे मध्यप्रदेश विधान सभा अध्यक्ष को दिए गए थे। इस तरह भाजपा ने मौजूदा सरकार को अल्पमत में बताते हुए राज्यपाल से मुलाकात की और राज्यपाल ने सरकार को विधान सभा में फ्लोर टेस्ट कराने को कह दिया। 16 मार्च को बजट सत्र के पहले दिन राज्यपाल के अभिभाषण के बाद विधान सभा कोरोना वायरस के कारण 26 मार्च को सुबह 11 बजे तक के लिए स्थगित कर दी गई। इसके बाद राज्यपाल ने सरकार को 17 मार्च को फिर से बहुमत साबित करने के लिए पत्र लिखा, लेकिन इस बीच भाजपा सुप्रीम कोर्ट भी चली गई। इसके बाद इस पूरे मामले को लेकर सभी की निगाहें सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई पर टिक गई थी। 19 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि 20 मार्च को शाम 5 बजे से पहले मध्यप्रदेश विधान सभा में फ्लोर टेस्ट कराया जाए। इतने दिनों में बेंगलुरु में रखे गए कांग्रेस विधायकों से कांग्रेस नेता आमने-सामने का संपर्क नहीं कर पाए, जिसकी वजह से उन्हें कांग्रेस की ओर मोड़ पाना संभव नहीं हो पाया। इस बीच बेंगलुरु में डटे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने बागी विधायकों को एक भावुक पत्र भी लिखा था। लगातार कोशिश के बाद भी बेंगलुरु में विधायकों से मुलाकात नहीं होने और मध्यप्रदेश कांग्रेस के नेताओं के साथ मारपीट और गिरफ्तारी से कांग्रेस का यह आरोप सिद्व होता गया कि उन विधायकों को लोभ के साथ बंधक बनाया गया था।
संख्या बल में कम रहने के बाद भी सत्ता पर काबिज होने की चाह और सरकार बनाने में भाजपा माहिर हो चुकी है। कर्नाटक इसका हालिया उदाहरण था, अब इसमें मध्यप्रदेश भी शामिल हो जाएगा। सत्ताधारी दल के सहयोगी दलों, वरिष्ठ नेताओं, मंत्रियों और विधायकों को तोड़कर भाजपा द्वारा सरकार बनाने का सिलसिला जारी है। मध्यप्रदेश के इस संकट का बीजरोपण नवंबर 2018 के विधानसभा चुनावों के परिणाम के बाद ही हो गया था। पूरे देश से कांग्रेस को सफाया करने के अभियान पर निकली भाजपा को सबसे बड़ा झटका नवंबर 2018 के विधानसभा चुनावों में लगा था, जब छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश में भाजपा सत्ता से बाहर हो गई थी। छत्तीसगढ़ और मध्प्रदेश में भाजपा 15 सालों से सत्ता में थी। इन तीनों राज्यों में से मध्यप्रदेश की स्थिति ऐसी थी, जहां भाजपा को चुनाव परिणामों के बाद से ही लग रहा था, कि साम, दाम, दंड, भेद यानी जोड़-तोड़ और खरीद-फरोख्त के माध्यम से सरकार बनाई जा सकती है। चुनाव परिणामों सें स्पष्ट हार के बाद भी तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान द्वारा इस्तीफा दिए जाने में की जा रही देरी को इसी नजरिए से देखा जा रहा था, लेकिन कई मौकों पर चूक जाने वाली कांग्रेस ने यहां कोई गलती नहीं की और भाजपा, सपा और निर्दलीयों से पहले संपर्क साधकर सरकार बनाने में सफलता हासिल कर ली। सरकार बना लेने के बाद भी कांग्रेस पिछले 15 महीनों में मुश्किल से 4-5 महीने ही सहज तरीके से सरकार चला पाई है, बाकी समय में भाजपा नेताओं द्वारा सरकार गिराने की धमकियों के बीच अपने असंतुष्टों को साधने में लगी रही। लेकिन कांग्रेस को इस बार बड़ा झटका लगा, जब उसके दिग्गज नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से इस्तीफा देकर अपने समर्थक विधायकों को इस्तीफा देने के लिए विवश कर दिया।
मध्यप्रदेश में सरकार गिराने को लेकर भाजपा नेता लगातार बयानबाजी कर रहे थे। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद ही प्रदेश के कई वरिष्ठ नेता कुछ महीने की मेहमान सरकार, लंगड़ी सरकार जैसी उपमाओं के साथ बयान देते रहे। इसके साथ ही वे यह भी कहते रहे कि यदि ऊपर से इशारा हो जाए, तो एक दिन में सरकार गिरा देंगे। राजनीतिक गलियारों एवं प्रशासनिक महकमों में भी सरकार के स्थायित्व पर संदेह किया जाता रहा। भाजपा ने सरकार गिराने की बयानबाजी करते हुए कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं और विधायकों को शांत नहीं होने दिया। असंतुष्ट नेता और विधायक सरकार को हमेशा परेशान करते रहे। पहले भाजपा ने असंतुष्ट कांग्रेसी विधायकों, निर्दलीय व सपा, बसपा के विधायकों पर डोरे डाले, लेकिन इनकी संख्या उतनी नहीं हो पाई, जिससे कि सरकार गिराई जा सके। लोकसभा चुनाव में मध्यप्रदेश में कांग्रेस की बुरी हार के बाद भाजपा फिर से कांग्रेस पर हमलावार हुई। लगातार सरकार गिराने की धमकियां सुनने के बाद कांग्रेस ने विपक्ष द्वारा बिना मांगे ही सदन में बहुमत साबित किया और इस दरम्यान भाजपा के दो विधायकों ने कांग्रेस के पक्ष में मतदान कर दिया। इस प्रकरण के कारण भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने प्रदेश भाजपा से नाख़ुशी जाहिर की, जिसके बाद भाजपा द्वारा सरकार गिराने का अभियान ठंडा पड़ गया। फिर यह लगने लगा कि कांग्रेस सरकार को भविष्य में अब संकट का सामना नहीं करना पड़ेगा।
एक ओर कांग्रेस यह समझती रही कि भाजपा द्वारा सरकार को अस्थिर करने का अभियान अब खत्म हो गया है, तो दूसरी ओर भाजपा अंदर ही अंदर दो स्तरों पर काम करने लगी। एक स्तर पर वह कांग्रेस के दिग्गज नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा में लाने का प्रयास करने लगी, तो दूसरे स्तर पर असंतुष्ट विधायकों को साधने की कोशिश करने लगी। भाजपा की पहली कोशिश कर्नाटक की तर्ज पर कुछ कांग्रेसी, निर्दलीय एवं सपा व बसपा विधायकों से इस्तीफा दिलवाकर सरकार पलटने की थी। भाजपा की इस कोशिश की भनक कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह को लग गई और उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस कर इसका भंडाफोड़ कर दिया। यदि भाजपा की यह कोशिश कामयाब हो जाती, तो उसे आयातित नेताओं के साथ बड़े समझौते नहीं करने पड़ते।
भाजपा ने फिर दूसरे प्लान पर काम करते हुए कांग्रेस के असंतुष्ट नेता सिंधिया से बात करना शुरू कर दिया। मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनवाने में सिंधिया की अहम भूमिका रही है। चुनाव परिणाम से पहले यह उम्मीद की जा रही थी कि कांग्रेस की जीत होने पर ज्योतिरादित्य सिंधिया को ही मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। पूर्ण बहुमत से कुछ सीटें कम रह जाने और भाजपा द्वारा दूसरे राज्यों में सरकार बनाने के लिए जोड़तोड़ में आगे रहने के अनुभवों को देखते हुए कांग्रेस आलाकमान ने अनुभवी नेता कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाना मुनासिब समझा। लेकिन हालात की गंभीरता को समझने के बजाय सिंधिया ने भी इस पर नाख़ुशी जाहिर की और उनके समर्थकों ने इसे सिंधिया काअपमान तक बताया। सरकार बनने के बाद सिंधिया समर्थक मंत्री अपनी बयानबाजी से अक्सर सरकार को असहज करते रहे। लोकसभा चुनाव में हार जाने के बाद हाशिये पर होते जाने का डर सिंधिया में बढ़ता गया। भाजपा ने उनके डर को भांप लिया और उन पर डोरे डालना शुरू कर दिया था। सिंधिया की भाजपा में उनकी स्वीकार्यता के खतरे को देखते हुए भाजपा इस दिशा में आगे नहीं बढ़ना चाहती थी, लेकिन इसके दरवाजे भी बंद नहीं किए।
राज्य सभा चुनावों की घोषणा के बाद मध्यप्रदेश की तीन सीटों में से दो सीटों पर जीत की चाह से बिसात बिछा रही भाजपा को सरकार पलटने की संभावना भी दिखने लगी। यहां से कांग्रेस को राज्य सभा की दो सीटें मिलने की पूरी संभावना रही है। ऐसे में उम्मीद की जा रही थी कि कांग्रेस की ओर दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया को राज्य सभा भेजा जाएगा। लेकिन तबतक सिंधिया कांग्रेस को अलविदा कहने का मन बना चुके थे।
यद्यपि इस पूरे घटनाक्रम के बाद भी अभी यह कहना मुश्किल है कि सरकार गिराने के बाद भाजपा की सरकार मध्यप्रदेश में स्थिर सरकार दे पाएगी। यदि यहां 25 सीटों पर उप चुनाव होते हैं, तब भाजपा को कम से कम 9 सीटों पर जीत हासिल करनी होगी। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो कांग्रेस फिर सत्ता में वापसी कर सकती है। इसके साथ ही यदि भाजपा की तरह ही कांग्रेस ने भाजपा के असंतुष्टों को साध लिया, तो भी भाजपा की सरकार मुश्किल में पड़ सकती हैं। ऐसे में यह कह पाना मुश्किल है कि इस्तीफा दिलाकर हाॅर्सट्रेडिंग यह दौर कब तक चलेगा। (संवाद)
मध्यप्रदेश का राजनीतिक संकट
क्या वाकई कमलनाथ की सरकार अल्पमत में थी?
कमलनाथ के इस्तीफे के बाद भी भाजपा की राह नहीं है आसान
राजु कुमार - 2020-03-20 11:23
पिछले 10 दिनों से मध्यप्रदेश में चल रही सियासी उठापटक का एक संभावित परिणाम सामने आ ही गया। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने राज्यपाल लाल जी टंडन को अपना इस्तीफा दे दिया। इस तरह मध्यप्रदेश में 15 महीने से सत्ता पर काबिज कांग्रेस आज सत्ता से बाहर हो गई। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद 20 मार्च को कांग्रेस को सदन में बहुमत साबित करना था, लेकिन विधायकों की संख्या कम होने से कांग्रेस के लिए सदन में अपना बहुमत साबित करना संभव नहीं था।