चूंकि भारत और चीन बडे व्यापारिक साझेदार भी हैं। दोनों देशों का आपसी व्यापार करीब 95 अरब डॉलर तक पहुंच चुका है। चीन की कई कंपनियों ने बडे पैमाने पर भारत में निवेश कर रखा है। दोनों ही देश परमाणु शक्ति संपन्न भी हैं। इसलिए दोनों के बीच युद्ध भी संभव नहीं है। ऐसे में भारत सिर्फ अपने कूटनीतिक कौशल से ही चीन को जवाबी तौर पर परेशान करते हुए उसे अपनी हद में रहने के लिए मजबूर कर सकता है। लेकिन इस सिलसिले में भी भारत का सबसे कमजोर पक्ष यह है कि नेपाल, भूटान, श्रीलंका, म्यांमार जैसे तमाम पडोसी देश जो कभी भारत के घनिष्ठ मित्र हुआ करते थे, वे अब चीन के पाले में हैं। पाकिस्तान की पीठ पर तो पहले से चीन का हाथ है और बांग्लादेश भी भारत के बजाय अब चीन के ज्यादा नजदीक है। इस सबके बावजूद भारत के पास एक ऐसा ‘हथियार’ है, जिसके जरिए चीन को परेशान किया जा सकता है, छकाया जा सकता है। उस नायाब हथियार का नाम है- दलाई लामा।

तिब्बतियों के सर्वोच्च धर्मगुरू दलाई लामा अपने हजारों तिब्बती अनुयायियों के साथ पिछले छह दशक से भारत में राजनीतिक शरण लिए हुए हैं। वे अब 85 साल हो चले हैं। करीब एक दशक पहले उन्होंने निर्वासित तिब्बत सरकार के मुखिया की जिम्मेदारी से मुक्त होने का ऐलान कर खुद को राजनीतिक गतिविधियों से अलग कर लिया था। उनका मूल नाम तेनजिन ग्यात्सो है। उन्हें उनके पूर्ववर्ती तेरह दलाई लामाओं का अवतार माना जाता है। तिब्बती बौद्ध पदाधिकारियों के एक दल ने जब उनके अवतार होने का ऐलान किया था तब उनकी उम्र महज दो साल की थी और चार साल का होने से पहले ही उन्हें विधिवत दलाई लामा के पद पर आसीन करा दिया गया था। यह वह समय था, जब तिब्बत एक स्वतंत्र देश था। बाद में चीन ने अपनी आजादी के कुछ समय बाद ही तिब्बत पर हमला कर उसे अपना हिस्सा घोषित कर दिया था।

तिब्बती सरकार के मुखिया की जिम्मेदारी और राजनीतिक गतिविधियों से निवृत्त होने के दलाई लामा के ऐलान को चीनी नेतृत्व ने एक नाटक करार दिया था। हालांकि दलाई लामा ने तब से ही अपनी घोषणा के मुताबिक खुद को राजनीतिक गतिविधियों से अलग रखते हुए आध्यात्मिक गतिविधियों तक ही सीमित कर रखा है। इसके बावजूद चीनी हुक्मरान दलाई लामा को लेकर अब भी आशंकित रहते हैं। दलाई लामा ने तिब्बती परंपरा के विपरीत यह ऐलान भी कर रखा है कि उनके उत्तराधिकारी यानी 15वें दलाई लामा का चुनाव लोकतांत्रिक तरीके से किया जाएगा। लेकिन चीनी नेतृत्व इस इंतजार में हैं कि कब मौजूदा दलाई लामा की इस दुनिया से रवानगी हो और वे अपनी मर्जी का कठपुतलीनुमा दलाई लामा तिब्बतियों पर थोप सकें।

करीब ढाई दशक पहले पंछेन लामा को भी उसने इसी नीयत से अगवा किया था। पंछेन लामा को तिब्बतियों का दूसरा बडा धर्मगुरू माना जाता है। 1989 में जब दसवें पंछेन लामा की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई थी, तब भी यह माना गया था कि चीन सरकार ने उन्हें जहर देकर मरवाया है। उसके बाद 1995 में दलाई लामा ने छह साल के गेझुन चोएक्यी न्यीमा की पंछेन लामा को 11वें अवतार के रूप में पहचाने जाने की घोषणा की थी। वे तिब्बत के नाक्शु शहर के एक डॉक्टर और नर्स के पुत्र हैं। 17 मई 1995 को चीन ने उन्हें अपने कब्जे में लिया था और तब से ही उन्हें लोगों की नजरों से दूर रखा गया है।

जाहिर है कि चीनी हुक्मरान अब भी तिब्बतियों के प्रथम पुरुष दलाई लामा को लेकर परेशान रहते हैं। इसलिए भारत चाहे तो उनके जरिए चीन को चिढा सकता है। इस सिलसिले में हाल ही में जो दो सुझाव आए हैं, वे बेहद महत्वपूर्ण हैं और भारत सरकार चाहे तो उन पर आसानी से अमल कर सकती है।

एक सुझाव हिमाचल प्रदेश के कांगडा से भारतीय जनता पार्टी के सांसद किशन कपूर का है। उन्होंने दलाई लामा को ‘भारत रत्न’ देने की मांग की है। गौरतलब है कि हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में ही तिब्बत की निर्वासित सरकार का मुख्यालय है और वहां कई बौद्ध मठ भी हैं। दलाई लामा को ‘भारत रत्न’ से सम्मानित करने तिब्बत की आजादी का समर्थन करने का सुझाव देने वालों में समाजवादी आंदोलन से जुडे मध्य प्रदेश के पूर्व मंत्री और शिक्षाविद रमाशंकर सिंह तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुडे वरिष्ठ पत्रकार विजय क्रांति भी हैं।

दूसरा सुझाव पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी की ओर से आया है, जिसके मुताबिक दिल्ली स्थित चीनी दूतावास के सामने वाली सडक का नाम दलाई लामा मार्ग कर देना चाहिए।

भारत सरकार के लिए दोनों सुझावों पर अमल करना कोई मुश्किल काम नहीं है। दिल्ली में वैसे भी कई सडकों के नाम विदेशी हस्तियों के नाम पर हैं और भारत रत्न का सम्मान भी नेल्सन मंडेला जैसी विदेशी हस्ती को दिया जा चुका है। इसलिए अगर दलाई लामा को भारत रत्न दिया जाता है और दिल्ली में उनके नाम पर सडक का नामकरण किया जाता है तो इसमें कोई अनोखी बात नहीं होगी। बल्कि अमेरिका सहित यूरोप के कई देश भी भारत के इस कदम का स्वागत करेंगे। हां, ऐसा किया जाना चीन को जरूर नागवार गुजरेगा लेकिन वह चाह कर भी कुछ नहीं कर सकेगा।

सवाल यही है कि क्या भारत सरकार ऐसा करने की हिम्मत दिखाएगी? उम्मीद कम ही है कि भारत सरकार ऐसा करेगी, क्योंकि चीन से मिले ताजा धोखे और जख्म के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दलाई लामा को चार दिन पहले उनके 85वें जन्मदिन पर बधाई और शुभकामना देने तक की औपचारिकता नहीं निभाई है। (संवाद)