शुक्रवार, 30 मार्च 2007

पिछड़ों की पहचान करेंगे तो राजनीति का क्या होगा

सर्वोच्च न्यायालय की रोक के बाद की स्थिति

ज्ञान पाठक

नई दिल्ली: भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कल अपने एक फैसले में आखिर 1931 के आंकड़ों के आधार पर 2007-08 में अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के लिए आईआईटी और आईआईएम जैसे उच्चतर शिक्षा के संस्थानों में आरक्षण लागू करने पर रोक लगा दी। न्यायालय ने सुझाव दिया है कि वर्तमान आंकड़ों के आधार पर पिछड़ेपन का आकलन हो और उसी के अनुरुप आरक्षण हो।

सर्वोच्च न्यायालय की बात सही है, लेकिन सवाल है कि यदि पिछड़ों की पहचान कर ही ली जायेगी तो देश में पिछड़ों के नाम पर राजनीति कैसे चलेगी? संभवत: हमारी सरकारें और उनके राजनीतिक नेतृत्व यह सब जानते हैं और इसी लिए तो कोई न कोई बहाना बनाकर 1931 से ही जातिगत आंकड़े एकत्रित नहीं करवा रहे हैं। इसका एक कारण यह बताया गया था कि देश से जातिवाद खतम करने के लिए जातिगत जनगणना नहीं करना आवश्यक है। लेकिन धार्मिक जनगणना होती रही। हो सकता है कि कुछ नेता यह कहते हुए सामने आयें कि धार्मिक साम्प्रदायिकता को रोकने के लिए धर्म के आधार पर जनगणना नहीं करायी जाये। लेकिन जब जाति और धर्म के आधार पर राजनीति करनी होगी तो वही पुराने आंकड़े सामने लाये जा सकते हैं। यही हमारा अनुभव रहा है।

प्रश्न यह है कि जाति के आधार पर जनसंख्या के आंकड़े जुटाना गलत और बिना आंकड़ों के या 76 साल पुराने आंकड़ों के आधार पर राजनीति करना सही कैसे हो सकता है? यदि जाति और धर्म के आधार पर पूर्वाग्रह या राजनीति छोड़नी है तो पिछड़ेपन का आकलन निरपेक्ष आधार पर करने में क्या समस्या है? यदि देश को जाति और धर्म के दायरे में ही पिछड़ापन निर्धारित करना है तो ताजे आंकड़े जुटाने से परहेज क्यों किया जाता रहा है?

इससे भी कुछ बड़े सवाल हैं कि पिछड़ेपन का आकलन कैसे हो। आज के वैश्वीकरण के जमाने में विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र ने पिछड़ेपन के आकलन के लिए मानव विकास सूचक बनाये हैं। भारत ने उनके ही नुस्खे पर राज्यों के लिए मानव विकास सूचक बनाये जिससे तुलनात्मक पिछड़ेपन का पता चलता है। इसके पहले भारत में पिछड़ेपन के आकलन के लिए अलग-अलग उद्देश्यों के लिए अलग-अलग मानदंड बनाये गये। अनेक सामाजिक और कल्याणकारी योजनाओं के लिए पिछड़ेपन का मानदंड गरीबी रेखा को बनाया गया। लेकिन राजनीति में पिछड़ेपन का आधार कुछ दूसरा अपनाया गया। लगभग 27 वर्ष पहले केन्द्र सरकार ने जनता पार्टी के कार्यकाल में 1979 में मंडल आयोग के गठन का फैसला लिया और उससे कहा गया कि जाति के दायरे में पिछड़ेपन का आकलन किया जाये। मंडल आयोग ने तमाम समस्याओं के बावजूद अपनी रपट दी। आज भी अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के मामले में इसी आयोग की रपट को आधार माना जाता है।

यह जानना काफी दिलचस्प होगा कि मंडल आयोग ने किस तरह पिछड़ापन निर्धारित किया था ताकि अब यह विचार किया जा सके कि मंडल आयोग की वही सिफारिशें कितने प्रासंगिक रह गयी हैं और आज के परिवेश में वास्तविक पिछड़ेपन की स्थिति क्या है।

सबसे पहले तो यह कि मंडल आयोग ने भी जाति के मामले में जनगणना के आंकड़े 1931 के ही लिये थे। सन 1931 के गुलाम भारत और 2007 के आजाद भारत की स्थिति में काफी फर्क आया है जिससे इनकार नहीं किया जा सकता। पूरा युग बदल गया। भारत राजतंत्र और सामंतवाद से बाहर आकर लोकतांत्रित हो गया है। अनेक राज्यों में अब आदिवासी, हरिजन, और अन्य पिछड़ी जातियों के मुख्य मंत्री हैं और यदि इस देश की सत्ता में किसी को भी आने की तमन्ना है तो बिना उनकी राजनीति किये आना संभव नहीं है। अब धार्मिक आधार पर भी राजनीति की जा रही है और कई राजनीतिक पार्टियों ने इसका सफल प्रयोग भी किया। जब स्थिति ऐसी हो गयी है तब वास्तविक पिछड़ेपन के निरपेक्ष आकलन की परवाह किसे है। अभी हाल में ही एक आयोग ने मुसलमानों पर, सिर्फ मुसलमानों पर आकलन किया। उसका दायरा ही इतना छोटा था कि सभी धर्मों के मुकाबले तुलना संभव नहीं रहा, लेकिन कुछ नेताओं ने धार्मिक आधार पर भी आरक्षण की मांग कर डाली है। बेहतर तो यह होता कि देश अब यह तय कर ले कि किस आधार पर और किस दायरे में आरक्षण देना है।

अब फिर लौटें मंडल आयोग पर जिन्होंने पिछड़ेपन के आकलन के लिए 11 मानदंड निर्धारित किये थे। वे मानदंड उस समय के हिसाब से कमोबेश सही कहे जा सकते हैं यद्यपि कुछ लोग उनके कुछ मानदंडों पर सवाल उठा सकते हैं जिसमें वस्तुनिष्टता की कमी भी शामिल हो सकती है और प्रतिशत तय करने का आधार भी।

जो भी हो, उनके मानदंड गौर फरमाने लायक हैं, और यदि उनके ही मानदंडों को आज की स्तिथि में लागू किया जाये तो साफ हो जायेगा कि सरकारें किस तरह झूठ के आधार पर राजनीति करती हैं और किस तरह वास्तविक रुप से पिछड़ों की पहचान करने तक में उसकी रुचि नहीं है, चाहे वह जाति के दायरे में हो या किसी अन्य दायरे में।

ध्यान रहे कि आर्थिक और धार्मिक आधार पर पिछड़ेपन से ग्रस्त लोगों को संविधान में आरक्षण देने की परिकल्पना हमारे आजाद भारत की संविधान सभा ने नहीं की थी। आज सभी राजनीति पार्टियों में नेताओं की एक बड़ी संख्या आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की बात करती है लेकिन उनकी रुचि इसका संवैधानिक प्रावधान करने में नहीं है। मंडल आयोग के गठन के समय भी ऐसी स्थिति थी इसलिए आयोग को जाति के दायरे में सामाजिक और शैक्षणिक आधार पर पिछड़ापन निर्धारित करने का जिम्मा दिया गया था। यह अलग बात है कि उनके पिछड़ेपन के ग्यारह मानदंडों में से चार आर्थिक थे।

उन्होंने इतनी मेहनत की कि सर्वेक्षण के दायरे में आने वाली सभी जातियों पर इन मानदंडों को लागू किया ताकि उनके पिछड़ेपन का पता चल सके। यह अलग बात है कि जैसा परिणाम चाहिए था वैसा हासिल करने के लिए इन मानदंडों को अलग-अलग महत्व और अंक दिये गये। ये ग्यारह मानदंडों के लिए तीन ग्रुप बनाये गये – सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक। ग्यारह मानदंडों के लिए कुल अंक तो 22 थे लेकिन सामजिक मानदंडों को तीन, शैक्षणिक मानदंडों को दो और आर्थिक मानदंडों को एक अंक दिये गये थे।

सामाजिक मानदंड थे – पहला, जिसे अन्य पिछड़े मानते हैं; दूसरा, जो आजीविका के लिए शारीरिक श्रम पर निर्भर हैं; तीसरा, जिनमें ग्रामीण क्षेत्रों में कम से कम 25 प्रतिशत लड़कियों और 10 प्रतिशत से ज्याद लड़कों की शादी 17 वर्ष से कम उम्र में हो जाती है और शहरी क्षेत्रों में क्रमश: 10 और पांच प्रति शत; और चौथा, जिनमें राज्य विशेष में कुल महिला श्रम बल से कम से कम दो प्रति शत ज्यादा औरतें काम कर रही हों।

शैक्षणिक मानदंड थे – पहला, जिनके 5-15 उम्र वर्ग के कभी स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों की संख्या राज्य के औसत से कम से कम 25 प्रति शत ज्यादा हो। दूसरा, इसी उम्र वर्ग के स्कूल छोड़ जाने वाले बच्चों की संख्या भी औसत से 25 प्रति शत ज्यादा हो; और तीसरा, जिनमें मैट्रिक पास लोगों की संख्या औसत से 25 प्रतिशत कम हो।

अब आर्थिक मानदंडों में आयें जिन्हें सबसे कम महत्व और अंक दिये गये। ये थे – पहला, पारिवारिक संपदा राज्य की औसत से कम से कम 25 प्रति शत नीचे हो; दूसरा, कच्चे मकानों में रहने वाले परिवारों की संख्या औसत से 25 प्रति शत कम हो; तीसरा, 50 प्रतिशत से ज्यादा परिवारों को पीने के पानी के लिए आधे किलोमीटर से ज्यादा दूर जाना पड़ता हो; और चौथा खाने के लिए कर्ज लेने वाले परिवारों की संख्या औसत से कम से कम 25 प्रति शत ज्यादा हो।

कहना न होगा कि आज इन्हीं मानदंडों के आधार पर भी पिछड़ेपन का आकलन किया जाये तो हमें परिणाम बदले हुए मिलेंगे। सत्ताईस साल या 76 साल पुराने पिछड़ेपन के जनसांख्यिकीय आंकडों को आज का पिछड़ापन बताने से सही अर्थों में पिछड़े वर्ग को भारी नुकसान हो रहा है और लाभ उन्हें हो रहा है जो उनसे सम्पन्न और खुशहाल हैं। उदाहरण से लिए कुम्हारों (मिट्टी का बर्तन बनाने वाले वर्ग) को तो कुछ भी हासिल नहीं हो रहा जबकि औद्योगिक विकास में प्लास्टिक और कागज के आने के बाद उनका पारंपरिक पेशा तक नष्ट हो गया है। उनकी संख्या कम हैं और उनके वोट भी कम हैं इसलिए उनकी दुर्दशा पर किसी का ध्यान नहीं जाता। संपन्न पिछडों को ज्यादा आरक्षण मिल रहा है तथा गरीब पिछड़े और दुर्दशा को प्राप्त हो रहे हैं।

यह समय कि मांग है कि देश के सही और संतुलित विकास के लिए हम जाति और धर्म के दायरे से बाहर आयें और पिछड़ेपन के ज्यादा निरपेक्ष मानदंडों को बिना किसी राजनीति के अपनायें। जीवन की वर्तमान स्थितियों को आरक्षण का आधार बनायें न की अतीत की स्थितियों को। #