लेकिन तब और अब में एक फर्क है। उस समय कांग्रेस बिहार में लालू के राजद की एक जूनियर पार्टनर थी। उसके बहुत कम उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे थे। तब रामविलास पासवान यह नहीं कह सकते थे कि चुनाव के बाद वे कांग्रेस की सरकार बनाने में मदद करेंगे। जाहिर है, उस चुनाव में कांगेस का दांव पर कुछ भी नहीं लगा हुआ था। लेकिन इस बार बेटे चिराग पासवान चुनाव के बाद बीजेपी सरकार के गठन का नारा देकर चुनाव लड़ रहे हैं और भाजपा लगभग आधी सीटों पर चुनाव लड़ रही है। 2005 के चुनाव में विधानसभा त्रिशंकु बनी थी। 29 विधायकों के साथ रामविलास पासवान लालू यादव या नीतीश कुमार में से किसी को भी मुख्यमंत्री बना सकते थे, लेकिन उन्होंने वैसा नहीं किया। लालू यादव को कहते रहे कि यदि राजद किसी मुसलमान को मुख्यमंत्री बनाए, तो वे राजद सरकार के समर्थन में आ सकते हैं। उधर नीतीश कुमार और बीजेपी को कहते रहे कि सुशील कुमार मोदी को ही मुख्यमंत्री बना दो, हम समर्थन कर देंगे। तब बिना रामविलास पासवान के 29 विधायकों के समर्थन के बिना बिहार में कोई सरकार बन ही नहीं सकती थी। विधानसभा निलंबित रही। किसी विधायक का शपथग्रहण तक नहीं हो पाया। फिर पासवान के 29 विधायकों में 22 को नीतीश कुमार ने तोड़ लिया। उनके समर्थन से नीतीश और भाजपा की सरकार बननी ही थी कि वहां विधानसभा को भंग कर दिया गया और फिर से चुनाव कराने की घोषणा कर दी गई। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने बाद में विधानसभा भंग करने के उस फैसले को गैरसंवैधानिक करार दिया। लेकिन फैसला आने के पहले ही विधानसभा का दुबारा चुनाव हुआ और नीतीश की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बन गई।
क्या इस बार फिर वैसा ही होगा और विधानसभा त्रिशंकु हो जाएगी? विधानसभा त्रिशंकु होगी या नहीं, यह तो अभी नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना तय है कि रामविलास पासवान की पार्टी 2005 की तरह प्रदर्शन नहीं कर पाएगी। उस समय रामविलास पासवान की अपील ज्यादा थी। मुसलमानों में भी अपील थी। वे मुस्लिम मुख्यमंत्री की बात कर रहे थे। गोधरा दंगे के बाद उन्होंने अटल सरकार से इस्तीफा दिया था, इसलिए मुसलमानों में भी उनकी कुछ पहुंच थी। उसके अलावा बिहार के दुर्दांत अपराधियों और उनके परिवार के लोगों को भी उन्होंने भारी पैमाने पर टिकट दिए थे। उन दबंगों की अपनी ताकत भी थी। अगड़ी जातियों के लोगों में भी वे लोकप्रिय थे और अगड़ी जातियों के लोगों की एकमात्र पसंदीदा पार्टी तब भाजपा नहीं बन पाई थी। इन कारणों से रामविलास पासवान की पार्टी को 14 फीसदी से भी ज्यादा मत मिले थे और 29 विधायक भी जीत गए थे।
लेकिन अब उनकी पार्टी मे कोई दम नहीं है। उनका बेटा बीजेपी सरकार के लिए चुनाव लड़ रहा है। जाहिर है, मुसलमानो के वोट तो मिलेंगे नहीं। भारतीय जनता पार्टी अगड़ी जातियों की पसंदीदा पार्टी बन गई है, इसलिए वे उन्हें भी अच्छी संख्या में तोड़ नहीं सकेंगे। रामविलास पासवान के पीछे उनकी जाति के लोग जिस तरह से 2005 में गोलबंद थे, उसे तरह से आज हैं नहीं। यानी चिराग पासवान अपनी पार्टी के बेहतर प्रदर्शन के लिए अगल चुनाव नहीं लड़ रहे हैं, बल्कि उनका उद्देश्य नीतीश की पार्टी के ज्यादा से ज्यादा उम्मीदवारों को हराना है। यदि वे सफल हो जाते हैं, तो बिहार विधानसभा त्रिशंकु भी हो सकती है। त्रिशंकु विधानसभा में भी चिराग की पार्टी का कोई विधायक शायद हो ही नहीं और यदि हो भी तो गिनती के। इसलिए देखने से तो लगता है कि भाजपा के लिए भी यह स्थिति खराब लगती है, लेकिन चुनाव के बाद विधायकों को खरीदने का जो नशा भाजपा का है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि वह ऐसी स्थिति का स्वागत करेगी, जिसमें विधानसभा त्रिशंकु हो और वह विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी हो। सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते वह मुख्यमंत्री पद पर दावा कर सकती है और पर पाकर अन्य पार्टियों में तोड़फोड़कर बहुमत का जुगाड़ भी कर सकती है।
बिहार की जो मौजूदा स्थिति है, उसे देखते हुए निर्दलीयों और छोटी छोटी पार्टियों के ज्यादा विधायक चुन कर आने की संभावना है। उन्हें आसानी से खरीदा जा सकता है। टिकट खरीद कर चुनाव जीतने वाले विधायक चाहे जिस भी पार्टी के हों, आसानी से बिकने को तैयार रहते हैं, बस खरीद बिक्री का माहौल हो और खरीदने वाले मौजूद हों। कांग्रेस को 70 सीटें महागठबंधन से मिली हैं। उनके जीते हुए कुछ विधायकों को भी भाजपा चाहे, तो खरीद ले। राजद के उम्मीदवार को भी वह खरीद सकती है।
नीतीश कुमार को ऐसी स्थिति के लिए अभी से तैयार रहना चाहिए, लेकिन उन्हें अपने दल की सफलता के ऊपर कुछ ज्यादा ही भरोसा है। उनका यह आकलन तो ठीक हो सकता है कि चिराग को कोई जीतेगा नहीं, लेकिन चिराग उनके अनेक उम्मीदवारों को हरा सकते हैं। यदि इस संभावना को वे नकारते हैं, तो यह उनकी गलती है। चिराग को तो इस पूरी रणनीति से कोई लाभ नहीं मिलने वाला है। हां, फायदा किसी को है, तो वह भाजपा को है। तो क्या चिराग का इस्तेमाल भाजपा अपना अगला मुख्यमंत्री बनाने के लिए कर रही है? (संवाद)
भाजपा की रणनीति का हिस्सा हो सकते हैं चिराग
अतिशय विश्वास नीतीश को पड़ सकता है भारी
उपेन्द्र प्रसाद - 2020-10-05 11:00
बिहार में इतिहास दुहराया जा रहा है। 2005 में केन्द्र में यूपीए की सरकार थी। उसमें रामविलास पासवान और लालू यादव मंत्री थे। उसी साल बिहार में विधानसभा के चुनाव हुए। तब चुनाव में लालू यादव का राजद और यूपीए का नेतृत्व कर रही कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़े, लेकिन केन्द्र में यूपीए सरकार का हिस्सा होने के बावजूद रामविलास पासवान अलग होकर लड़े। अब 2020 में केन्द्र में नीतीश कुमार और रामविलास पासवान एनडीए का हिस्सा हैं। बिहार में विधानसभा का चुनाव हो रहे हैं। एनडीए का नेतृत्व करने वाली भारतीय जनता पार्टी और नीतीश का जदयू मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं और रामविलास पासवान की पार्टी अलग से चुनाव लड़ रही है। उस समय चुनाव प्रचार के दौरान और उसके पहले से ही रामविलास पासवान बिहार को जंगल राज कहते थे और लालू यादव की आलोचना में कोई कसर नहीं छोड़ते थे। आज उनका बेटा चिराग पासवान भी नीतीश कुमार की आलोचना में किसी प्रकार की कसर नहीं छोड़ रहे हैं।