2000 घर कौन कौन थे, यह जानना भी बहुत दिलचस्प होगा। अनेक राज्यों में तो एक भी घर में टीआपी जांचने वाली मशीन नहीं लगी थी। और टैम का मालिक भी विदेशी थे, जिन्होंने अपने चैनल भारत भारत में खोल रखे थे। और यह अनायास नहीं था कि जिस चैनल के मालिक टैम के स्वामी थे, उनके कार्यक्रमों की टीआरपी सबसे ज्यादा होती थी। दूरदर्शन की पहुंच उस समय सबसे ज्यादा थी, लेकिन वह निजी चैनल टीआरपी के लिहाज से सबसे ज्यादा देखा जाने वाला मनोरंजन का चैनल था।
अब जिसे मालूम हो कि वे दो हजार घर कौन हैं, जिनमें वह मशीन लगी हुई है, तो वे आसानी से उन दो हजार घरों के लोगों को प्रभावित कर अपने चैनल की रेटिंग बढ़ा सकते थे। गौरतलब है कि टैम का मालिक चैनलों के एक ग्रुप का मालिक था और उसी ग्रुप के वे चैनल कथित रूप से सबसे ज्यादा देखे जा रहे थे। उन्हीं की टीआरपी ज्यादा आती थी, जबकि उनके अधिकांश प्रोग्राम्स देश में अपसंस्कृति को बढ़ावा दे रहे थे। उन्हें ज्यादा विज्ञापन मिल रहे थे और दूसरे चैनल अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए उनकी नकल कर भारत की अपसंस्कृति को बढ़ाने में अपनी तरफ से भी योगदान कर रहे थे। सास- बहू की सीरियलें, उसी काल की उपज है और उन सीरियलों ने भारत के लोगों की सोंच और संस्कृति को प्रभावित किया, विज्ञापनों की लूट में तो वे शामिल थे ही।
उस टीआरपी चोरी का नतीजा यह हुआ कि अच्छे अच्छे समाज को सकारात्मक दिशा देने वाले प्रोग्राम्स बनने लगभग बंद होने लगे। बड़े बड़े कहानीकारों और उपन्यासकारों की रचनाओं पर आधारित सीरियल बंद हो गए औ फूहड़ सीरियलों की बाढ़ आ गई। दूरदर्शन उसका शिकार तो हुआ ही, क्योंकि टीआरपी चोरी के कारण विज्ञापनों की चोरी का सबसे बड़ा शिकार वही हो रहा था। सभी घरों में उसकी पहुंच होने के बावजूद उसकी टीआरपी कम होती थी और विज्ञापन कम मिलते थे। दूसरी तरफ देश के लोगों में मानसिक बीमारी बढ़ी। उनकी सोंच बदली और संस्कृति भी बदली। उसके घातक नतीजे हम आज देख रहे हैं। देश भर में बलात्कार की बढ़ती घटनाओं के पीछे भी टीआरपी की उस चोरी को हम जिम्मेदार ठहरा सकते हैं, क्योंकि टीआरपी चोर प्रोग्राम्स भी भारतीय संस्कृति को बर्बाद करने के लिए बना रहे थे। उनमें महिलाओं को उस रूप में पेश किया जा रहा था, जिस रूप में वह समाज में नहीं थी। उसके कारण पुरुषों की महिलाओं के बारे में धारणाएं बदलीं और वे पुरुष भी मानसिक रूप से रुग्न हुए। वे रुग्न पुरुषों ने हिन्दुस्तान को आज रेपिस्तान में तब्दील कर दिया था।
ऐसी बात नहीं है कि सरकार के लोगों को उस घोटाले के बारे में पता नहीं था। प्रसार भारती के अधिकारियों ने उस घोटाले को महसूस किया था। सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दास मुंशी ने टैम की जगह एक नई व्यवस्था को लाने की कोशिश शुरू की थी, लेकिन उसी बीच वे गंभीर रूप से बीमार हो गए थे और कई साल तक बीमार रहने के बाद मृत्यु की गोद में चले गए थे। मीडिया में कुछ लोगों का मानना था कि टीआरपी चोरों ने उन्हें जहर दे दिया था और अपने रास्ते से हटा दिया था।
टैम का विरोध होता रहा। अदालत में भी मामला गया। फिर टैम की जगह एक दूसरा संगठन तैयार किया गया। लेकिन व्यवस्था नहीं बदली। टैम का स्थान बार्क ने ले लिया, जिसका स्वामी संयुक्त रूप से टीवी चैनल्स, एजेंसियां और विज्ञापन देने वाले लोग हैं। 2000 से बढ़कर 45000 मशीन घरों में लगा दिए गए हैं। लेकिन व्यवस्था वही पुरानी है। इस समय करीब 100 करोड़ लोग टीवी देखते हैं। 20 करोड़ टीवी सेट हैं, जिनमें मात्र 45 हजार टीवी सेट पर देखे गए कार्यक्रम की मायने रखते हैं। शेष ने क्या कार्यक्रम देखे, टीआरपी निर्माण से उनका कोई मतलब नहीं। और इन 45000 घरों में से यदि किसी चैनल ने 1000 घरों को भी साध लिया, तो वह सबसे ज्यादा देखा जाने वाला चैनल माना जाएगा। उसे सबसे ज्यादा विज्ञापन मिलेंगे और उनकी नकल अन्य चैनल भी करने लगेंगे। यानी एजेंडा सेट करने वाला भी हो जाएगा। यह सब सिर्फ न्यूज चैनलों के लिए सच नहीं है, बल्कि अन्य सारे चैनलों के लिए भी सच है।
अभी अर्णब गोस्वामी की चोरी कथित रूप से पकड़ी गई है। दो मराठी चैनल और भी हैं। लेकिन यदि देश भर में निष्पक्ष और प्रभावी जांच हो, तो अन्य अनेक चैनल टीआरपी की चोरी करते पकड़े जाएंगे। आखिर घटिया कार्यक्रम, जिन्हें पूरे परिवार के साथ देखा नहीं जा सकता, वे कैसे सबसे ज्यादा टीआरपी ला रहे हैं? अर्णब गोस्वामी के कार्यक्रम भी फूहड़, अश्लील और उसकी बददिमागी से जुड़े होते हैं। क्या भारत के लोग भी उसकी तरह बददिमाग हो गए हैं? शायद पूरे नहीं हुए हैं, लेकिन देखते देखते वे बददिमाग होने भी लगेगे और हो भी रहे हैं। उसकी टीआरपी चोरी का कमाल ही है कि नये नये पत्रकार अर्णब गोस्वामी की तरह बनना चाहते हैं और कुछ अन्य चैनलों ने भी ऐसे ऐसे ऐंकर उतारने शुरू कर दिए हैं, जो बददिमागी में अर्णब गोस्वामी को भी पछाड़ सकें। यदि यही सब होता रहा, तो समाज में बददिमागी बढ़ती जाएगी और कथित मनोरंजन चैनलों पर जो दिखाया जा रहा है, वह बदस्तूर दिखाया जाता रहा, तो फिर समाज में वह बीमारी लगातारी बढ़ती जाएगी, जिसके कारण बलात्कार की घटनाएं आम होती जा रही हैं। इसलिए टीआरपी की चोरी सिर्फ विज्ञापन चोरी का मामला नहीं, बल्कि यह समाज का बीमार करने का भी मामला है। (संवाद)
सिर्फ विज्ञापन चोरी का मामला नहीं है टीआरपी घोटाला
यह देश और समाज को मानसिक रूप से बीमार करने का मामला भी है
उपेन्द्र प्रसाद - 2020-10-12 10:16
टीवी चैनलों के टीआरपी घोटाले की चर्चा भले आज बहुत तेज हो गई हो, लेकिन यह कोई नया घोटाला नहीं है। 2000 ईस्वी से टीआरपी की सिस्टम अस्तित्व में आई थी। तब कोई टैम नाम का संगठन इसे संचालित करता था। उसने देश के मात्र 2000 घरों में अपनी मशीन लगा रखी थी और मात्र 2000 घरों में देखे जा रहे प्रोग्राम्स या न्यूज के आधार पर वह तय कर देता था कि देश के करोड़ों लोगों में सबसे कितने करोड़ ने किस चैलन को देखे।