राज्य की 230 सदस्यीय विधानसभा में 28 सीटों के लिए यानी 12 फीसद सीटों के लिए सीटों के लिए उपचुनाव इसलिए भी ऐतिहासिक है कि इससे पहले किसी राज्य में विधानसभा की इतनी सीटों के लिए एक साथ उपचुनाव कभी नहीं हुए।

आमतौर पर किसी भी उपचुनाव के नतीजे से किसी सरकार की सेहत पर कोई खास असर नहीं होता, सिर्फ सत्तारूढ दल या विपक्ष का संख्याबल में कमी या इजाफा होता है। लेकिन मध्य प्रदेश में 28 विधानसभा सीटों के उपचुनाव से न सिर्फ सत्तापक्ष और विपक्ष का संख्या बल प्रभावित होगा, बल्कि राज्य की मौजूदा सरकार का भविष्य भी तय होगा कि वह रहेगी अथवा जाएगी। इसलिए भी इन उपचुनावों को अभूतपूर्व कहा जा सकता है।

दरअसल मध्य प्रदेश में इतनी अधिक सीटों पर उपचुनाव सात महीने पुराने एक बडे राजनीतिक घटनाक्रम की वजह से हो रहे हैं। इसी साल मार्च महीने में पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस से अपना 18 साल पुराना नाता तोड कर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल हो गए थे। उनके साथ कांग्रेस के 19 विधायकों ने भी कांग्रेस और विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया था।

उसी दौरान तीन अन्य कांग्रेस विधायक भी पार्टी और विधानसभा से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हुए थे। इन तीन में से दो को पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का तथा एक विधायक को पूर्व सांसद मीनाक्षी नटराजन का समर्थक माना जाता था। कुल 22 विधायकों के पार्टी और विधानसभा से इस्तीफा दे देने के कारण सूक्ष्म बहुमत के सहारे चल रही कांग्रेस की 15 महीने पुरानी सरकार अल्ममत में आ गई थी। सरकार को समर्थन दे रहे कुछ निर्दलीय, समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के विधायकों ने भी कांग्रेस पर आई इस ‘आपदा’ को अपने लिए ‘अवसर’ माना और वे पाला बदल कर भाजपा के साथ चले गए।

प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद भाजपा के शीर्ष नेता पहले दिन से दावा करते आ रहे थे कि वे जिस दिन चाहेंगे, उस दिन कांग्रेस की सरकार गिरा देंगे। उनका दावा हकीकत में बदल गया। कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई। विधानसभा की प्रभावी सदस्य संख्या के आधार पर भाजपा बहुमत में आ गई और इसी के साथ एक बार फिर सूबे की सत्ता के सूत्र भी उसके हाथों में आ गए। इसी बीच तीन विधायकों के निधन की वजह से विधानसभा की तीन और सीटें खाली हो गईं और कांग्रेस के तीन अन्य विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया। इस प्रकार विधानसभा की कुल 28 सीटें खाली हो गईं।

ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ जो विधायक कांग्रेस और विधानसभा से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हुए थे, उनमें से आधे से ज्यादा को मंत्री बना दिया गया और अन्य को सरकारी निगमों और बोर्डों का अध्यक्ष बना कर मंत्री स्तर का दर्जा दे दिया गया। खुद सिंधिया भी भाजपा की ओर से राज्यसभा में पहुंच गए।

बहरहाल विधानसभा की 28 खाली सीटों के लिए उपचुनाव हो रहे हैं। फिलहाल 230 सदस्यों वाली राज्य विधानसभा में 202 सदस्य हैं, जिनमें भाजपा के 107, कांग्रेस के 88, बसपा के दो, सपा का एक तथा चार निर्दलीय विधायक हैं। इस संख्या बल के लिहाज से भाजपा को 230 के सदन में बहुमत के लिए महज 9 सीटें और चाहिए जबकि कांग्रेस को फिर से सत्ता हासिल करने के लिए उपचुनाव वाली सभी 28 सीटें जीतना होगी।

जिन 28 सीटों पर उपचुनाव हो रहा है, उनमें से 25 सीटें तो कांग्रेस विधायकों के इस्तीफे से खाली हुई हैं। विधायकों के निधन से खाली हुई तीन सीटों में भी दो सीटें पहले कांग्रेस के पास और एक सीट भाजपा के पास थी।

उपचुनाव वाली 28 सीटों में से 16 सीटें राज्य के अकेले ग्वालियर-चंबल संभाग में हैं, जिसे ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने प्रभाव वाला इलाका मानते हैं। इसके अलावा 8 सीटें मालवा-निमाड अंचल की हैं, जो कि जनसंघ के जमाने से भाजपा का गढ रहा है। दो सीटें विंध्य इलाके की हैं और एक-एक सीट महाकौशल और भोपाल इलाके की है।

इन सभी 28 सीटों पर मुख्य मुकाबला वैसे तो भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होना है, लेकिन अपने नीतिगत फैसले के तहत उपचुनाव से हमेशा दूर रहने वाली बसपा ने भी इन सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार कर मुकाबले के त्रिकोणीय होने का दावा किया है। मध्य प्रदेश की राजनीति में बसपा पहली बार उपचुनाव लड रही है। मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने के बसपा के दावे का आधार उसका अपना पुराना चुनावी रिकॉर्ड है।

मूलतः उत्तर प्रदेश की पार्टी मानी जाने वाली बसपा तीन दशक पहले मध्य प्रदेश में भी एक बड़ी ताकत बन कर उभरी थी। हालांकि उस समय छत्तीसगढ़ भी मध्य प्रदेश का ही हिस्सा हुआ करता था। वर्ष 1996 के लोकसभा चुनाव में उसने मध्य प्रदेश की दो लोकसभा सीटों पर चौंकाने वाली जीत दर्ज की थी। विंध्य इलाके की सतना सीट पर तो उसके एक युवा उम्मीदवार सुखलाल कुशवाह ने मध्य प्रदेश दो पूर्व मुख्यमंत्रियों- कांग्रेस के अर्जुन सिंह और भाजपा के वीरेंद्र कुमार सकलेचा को हरा कर जीत दर्ज की थी। अर्जुन सिंह तीसरे नंबर पर रहे थे।

उसके बाद 1998 में मध्य प्रदेश विधानसभा में भी बसपा के 11 विधायक चुन कर आए थे और उसने पूरे चुनाव में करीब 7 फीसद वोट हासिल किए थे। बाद के चुनावों में उसका वोट प्रतिशत तो 2013 के विधानसभा चुनाव तक कमोबेश बरकरार रहा, लेकिन विधायकों की संख्या घटती गई। हालांकि कई जगह चुनाव मैदान में उसके उम्मीदवारों की मौजूदगी भाजपा और कांग्रेस की हार-जीत को प्रभावित करती रही।

वर्ष 2०18 के विधानसभा चुनाव में भी बसपा ने राज्य की सभी 230 सीटों पर अपने उम्मीदवार खडे किए थे लेकिन उनमें सिर्फ दो ही जीत पाए थे। उसे प्राप्त होने वाले वोटों के प्रतिशत में भी जबर्दस्त गिरावट दर्ज हुई थी। उसे महज 0.9 फीसद वोट ही हासिल हुए थे। इस कदर छीज चुके जनाधार के बावजूद उसका दावा है कि वह इन उपचुनावों में चौंकाने वाले नतीजे देकर सत्ता की चाबी अपने पास रखेगी।

बसपा के अलावा भाजपा और कांग्रेस की संभावनाओं को प्रभावित करने के लिए 2018 में विधानसभा चुनाव के समय अस्तित्व में आई सपाक्स (सामान्य, पिछडा वर्ग, अल्पसंख्यक कल्याण समाज) पार्टी ने भी 16 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं। सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों द्वारा गठित इस पार्टी ने 2018 के विधानसभा चुनाव में भी 110 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे और आठ सीटों पर दूसरे अथवा तीसरे नंबर पर रहते हुए भाजपा तथा कांग्रेस के उम्मीदवारों की हार-जीत को प्रभावित किया था।

बसपा और सपाक्स पार्टी के अलावा शिवसेना ने भी भाजपा को सबक सिखाने की चेतावनी देते हुए मालवा-निमाड क्षेत्र की आठ और ग्वालियर शहर की दो सीटों पर अपने उम्मीदवार खडे किए हैं। मालवा-निमाड़ इलाका महाराष्ट्र की सीमा को छूता है। इस इलाके में और ग्वालियर में मराठी भाषी मतदाताओं की खासी तादाद है। वैसे शिवसेना का मध्य प्रदेश के अधिकांश जिलों में संगठन तो है लेकिन चुनाव मैदान में उसकी मौजूदगी कभी भी असरकारक नहीं रही है। शिवसेना सांसद और पार्टी की ओर से मध्य प्रदेश के प्रभारी अनिल देसाई के मुताबिक जब तक हम एनडीए में थे तब तक हमने महाराष्ट्र के अलावा भाजपा के प्रभाव वाले किसी राज्य में चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन अब हम अपनी पार्टी का विस्तार करने के लिए स्वतंत्र हैं और इसीलिए राजनीतिक दृष्टि से अपने अनुकूल लगने वाली सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं।

बहरहाल कुल मिलाकर राज्य की सभी 28 सीटों पर भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधे मुकाबले की स्थिति है। इन सीटों के नतीजों से न सिर्फ मौजूदा भाजपा सरकार का भविष्य तय होगा, बल्कि कांग्रेस से भाजपा में आए ज्योतिरादित्य सिंधिया के राजनीतिक प्रभाव की भी परीक्षा होगी, जो कि भाजपा में उनके और उनके समर्थकों की आगे की राजनीति का सफर तय करेगी। (संवाद)