पर ऐसा नहीं हो सका और इसके लिए सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस जिम्मेदार है। यह सच है कि ओवैसी ने भी 20 उम्मीदवार खड़े कर दिए थे और उनके 5 उम्मीदवार जीत भी गए। पर यह कहना गलत होगा कि उनके अन्य 15 उम्मीदवारों के कारण महागठबंधन के उम्मीदवार हार गए। यदि नतीजों को ध्यान से देखा जाए, तो जहां जहां महागठबंधन के उम्मीदवार राजग उम्मीदवार से हारे, वहां ओवैसी के उम्मीदवारों के मत हार की मार्जिन से कम ही थे। यानी यदि तेजस्वी मुख्यमंत्री बनने से वंचित रह गए हैं, तो इसके लिए ओवैसी नहीं, बल्कि कांग्रेस जिम्मेदार है।

कांग्रेस ने दबाव बनाकर 70 सीटें हासिल कर लीं, लेकिन उसके मात्र 19 उम्मीदवार ही जीत पाए। दूसरी तरफ राजद के कुल उम्मीदवारों के 50 फीसदी से ज्यादा जीत गए। वामपंथी दलों को 29 सीटें आबंटित की गई थीं, और उनमें से 16 जीत गए। यानी वामपंथी उम्मीदवारों की जीत का प्रतिशत भी 50 से ज्यादा ही था। लेकिन कांग्रेस के 30 फीसदी उम्मीदवार भी चुनाव नहीं जीत सके। अब यदि उन 70 सीटों पर राजद और वामपंथी उम्मीदवार होते, तो उनमें भी जीत का प्रतिशत ज्यादा होता और महागठबंधन की सरकार बन जाती।

जाहिर है, कांग्रेस से गठबंधन करना राजद के लिए भारी पड़ा। पहले राजद उसे 60 से ज्यादा सीटें नहीं देना चाहता था और उसके साथ समझौता वार्ता विफलता की ओर बढ़ रही थी। पर कहते हैं कि लालू यादव के हस्तक्षेप के बाद आखिरकार कांग्रेस को 70 सीटें मिल ही गईं। अगर लालू यादव ने हस्तक्षेप करके कांग्रेस को 70 सीटें दिलाईं, तो निश्चय ही वे अफसोस कर रहे होंगे और तेजस्वी के मुख्यमंत्री नहीं बनने के लिए खुद को जिम्मेदार ठहरा रहे होंगे।

आखिर कांग्रेस ने क्या गलती कर दी? सबसे पहली बात तो यह है कि बिहार में कांग्रेस का अस्तित्व रह ही नहीं गया है। इसलिए उसके द्वारा ज्यादा सीटों की मांग ही गलत थी। दूसरी बात यह है कि टिकट बांटने में कांग्रेस ने घोर लापरवाही की। बिहार के बाहर के अविनाश पांडे और शक्ति सिंह गोहिल को सोनिया गांधी ने टिकट वितरण का पूरा अधिकार दे रखा था और उन दोनों ने भारी मनमानी की। खुद कांग्रेसियों ने उनपर रुपये लेकर टिकट बेचने तक के आरोप लगा दिए। यह आरोप खुले आम लगाए गए थे। जाहिर है, राहुल और सोनिया को भी उसके बारे में पता था, लेकिन उन दोनों ने भी अपनी तरफ से ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे सही उम्मीदवारों को टिकट मिल सके।

देश के अन्य राज्यों की तरह बिहार की राजनीति भी जाति से प्रभावित होती है। कांग्रेस का पतन ही इसीलिए हुआ, क्योंकि जाति के कारण बदल रही राजनीति से वह तालमेल नहीं बैठा सकी है। बिहार में भी वह इसके कारण ही समाप्त हुई है। वहां की आबादी का 65 फीसदी ओबीसी हैं। 17 फीसदी दलित- आदिवासी हैं और 16 फीसदी अगड़ी जातियों के लोग। 16 फीसदी अगड़ी जातियों में भी 6 फीसदी मुस्लिम और 10 फीसदी हिन्दू हैं। आरक्षित सीटों पर तो दलित या आदिवासी को ही टिकट देना होता है। अनारक्षित सीटों पर कांग्रेस बिहार की आबादी की 10 फीसदी अगड़ी जातियों को ही (कुछ अपवाद को छोड़कर) टिकट देती रही है। इस बार भी उसने वैसा ही किया। हिन्दू अगड़ी जातियों की पसंद बिहार में बीजेपी है। इसके कारण कांग्रेस को अधिकांश सीटों पर हार का सामना करना ही था, क्योंकि उसने ओबीसी जातियों की टिकट वितरण में उपेक्षा कर दी थी। ओबीसी जातियों में भी कांग्रेस ने दबंग जातियों के कुछ उम्मीदवारों को टिकट दिए थे, जबकि ओबीसी की वंचित जातियां अब दबंग जातियों से अपने को अलग मानने लगी हैं और उसके अनुसार ही मतदान करने का उनका मिजाज भी बदल गया है।

यानी कांग्रेस की रस्सी जल गई है, पर ऐंठन नहीं गई है। वह पहले की तरह ही निर्णय लेती है, जबकि उसके पैरों के तले जमीन खिसक चुकी है। राजनीति की जमीनी हकीकत का उसे पता नहीं है, ऐसा भी नहीं माना जा सकता। उसके नेता सबकुछ जानते हैं। राहुल गांधी को पता है कि कांग्रेस का पतन क्यों हुआ है। उन्हें यह भी पता है कि यदि चुनाव जीतना है, तो ओबीसी की वंचित जातियों को तवज्जो देना ही होगा, लेकिन वे अपनी आदत से लाचार हैं। उन्हें चमत्कार का भरोसा रहता है। उनकी पार्टी के नेता सिर्फ अपने स्वार्थ देखते हैं, पार्टी के बारे में नहीं सोचते। बिहार में भी उन्होंने इस बार भी वैसा ही किया, जिसका नतीजा उनके 70 फीसदी से ज्यादा उम्मीदवारों की हार के रूप में निकला। और इसके लिए सिर्फ शक्ति सिंह गोहिल या अविनाश पांडे का जिम्मेदार मानना गलत होगा। खुद राहुल, प्रियंका और सोनिया इसके लिए जिम्मेदार हैं, क्योंकि पार्टी की सारी ताकत इन तीनों के पास ही केन्द्रित है। सबकुछ वे ही तीनों निर्धारित करते हैं। वे चाहते तो बिहार के लिए नीति तैयार कर सकते थे कि 70 में से 35 सीटें ओबीसी उम्मीदवारों को मिलेगी और बाकी का काम पांडे, गोहिल या अन्य किसी पर भी छोड़ सकते। वे खुद डूबे ही, अपने साथ तेजस्वी को भी डूबा दिया। अब तो किसी भी पार्टी के लिए कांग्रेस से गठबंधन करना फायदेमंद होने की जगह नुकसानदेह हो सकता है। (संवाद)