इस कानून को अदालतों में चुनौती दी जाएगी, इसे लेकर किसी को कोई संदेह नहीं पालना चाहिए। अदालत का फैसला क्या होगा, यह तो अभी नहीं कहा जा सकता। लेकिन इस तरह के कानून पर जो आपत्तियां उठाई जा रही है, उन पर चर्चा अदालत से बाहर भी की जा सकती है। सबसे पहली बात तो यह है कि यह कानून कथित तौर पर उन घटनाओं को रोकने के लिए बनाया जा रहा है, जिनमें मुस्लिम समुदाय के युवक अपनी पहचान छिपाते हुए किसी गैर मुस्लिम लड़की को अपने प्रेम जाल में फंसाता है। प्रेम जाल में फंसकर लड़की जब उस सीमा तक पहुंच जाती है, जहां से उसकी वापसी नहीं अत्यंत ही कठिन हो जाती है, तब उसे बताया जाता है कि उसका प्रेमी मुस्लिम है और फिर उसे शादी करने के लिए मुस्लिम मजहब को स्वीकार करने को मजबूर किया जाता है।

कुछ ऐसी घटनाएं भी सामने आईं हैं, जिनमें मजहब नहीं बदलने पर लड़की के साथ ज्यादती की गई और घातक हमले भी किए गए। उन अप्रिय घटनाओं के बाद ही कथित ‘लव जिहाद’ के खिलाफ कानून बनाने की बातें होने लगीं और उसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने एक अध्यादेश स्वीकृत कर लिया है, जिसके तहत कथित ‘लव जेहादी’ को 10 साल तक की सजा इस कानून के उल्लंघन पर दी जा सकती है। इसका विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के कुछ आदेशों का हवाला दिया जा रहा है, जिनमें शादी को किसी व्यस्क व्यक्ति का निजी मामला माना जाता है और उसे अपने मन मुताबिक पार्टनर से शादी करने से न तो उसके माता पिता रोक सकते हैं और न ही राज्य रोक सकता है। दूसरी तरफ कौन व्यक्ति कौन सा धर्म मानता है, वह भी उसका निजी मामला है। संविधान का आर्टिकल 25 व्यक्ति को धार्मिक आजादी का अधिकार देता है। उस अधिकार से भी उसे राज्य वंचित नहीं कर सकता।

इन दोनों कारणों से उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पारित अध्यादेश की संवैधानिकता सवालिया निशान के घेरे में आ जाता है। पता नहीं अदालत इस अध्यादेश को किस रूप में देखेगी और क्या फैसला करेगी, लेकिन जिस समस्या का सामना करने के लिए यह अध्यादेश लाया जा रहा है, वह समस्या काल्पनिक नहीं है। समाज में उसका अस्तित्व है और उसके कारण व्यक्ति ही पीड़ित नहीं हो रहा, बल्कि समाज में भी तनाव पैदा हो रहा है और उससे लोकतंत्र भी प्रभावित हो रहा है। उसके कारण समाज में सांप्रदायिकता फैलती है और मतदाताओं का वोटिंग पैटर्न भी प्रभावित होता है। इसलिए उस समस्या की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

असली समस्या धर्मांतरण है। इसके विरोधी कहते हैं कि इस तरह का प्रेम विवाह मुसलमानों के जेहाद का हिस्सा है, जिसके तहत वे दूसरे धर्म की युवतियों को मुस्लिम बनाते हैं। इस आपत्ति को धर्मांतरण पर पूरी तरह रोक लगाकर खारिज किया जा सकता है। यह सच है कि धार्मिक आस्था की आजादी एक मौलिक अधिकार है, लेकिन यह भी सच है कि पैदा होते समय ही व्यक्ति का धर्म निर्धारित हो जाता है। जिस धर्म के परिवार में व्यक्ति पैदा होता है, वही उसका धर्म हो जाता है। यही व्यावहारिक सच है। भारत का संविधान उसे अपने धर्म को मानने की आजादी देता है। उस पर सरकार किसी तरह का अंकुश नहीं लगा सकती और यदि कोई उसके धार्मिक अधिकार का अतिक्रमण करता है, तो उसके उस अधिकार की रक्षा के लिए कानून है।

लेकिन इसके साथ ही व्यक्ति को अपनी धार्मिक आस्था बदलने का भी अधिकार मिला हुआ है। इस अधिकार को समाप्त किया जा सकता है। इस अधिकार को छीनने का मतलब है कि धर्मांतरण पर पूरी तरह रोक लगा दी जाय। धर्म आस्था का विषय है। हो सकता है शिक्षित होने के बाद किसी को लगे कि धर्म अंधविश्वास है, तो ऐसे व्यक्ति को अपना घर्म छोड़कर धर्महीन होने का अधिकार तो मिले, पर किसी दूसरे धर्म में शामिल होने की इजाजत नहीं मिले, क्योंकि कटुता यहीं बढ़ती है। भारतीय संविधान के अनुसार किसी व्यक्ति को किसी धर्म की आस्था का अपमान करने की भी इजाजत नहीं। इसलिए यदि कोई व्यक्ति अपने धर्म को छोड़कर दूसरे धर्म में शामिल हो रहा है, तो वह अपने धर्म का अपमान कर रहा है। इससे उस धर्म के लोगों की आस्था को चोट लगेगी, क्योंकि वह व्यक्ति किसी एक धर्म को श्रेष्ठ और दूसरे को क्षुद्र कह रहा है। धर्म परिवर्तन को रोकने के लिए यह पर्याप्त कारण है। और यदि कोई व्यक्ति विवेकवादी है और धार्मिक कर्मकांडों और रीति रिवाजों को अंधविश्वास मानता है, तो उसके सामने धर्महीन होना ही एक विकल्प हो सकता है और यह विकल्प उसे मिलना चाहिए। वैसे जो भी व्यक्ति धार्मिक है, वह अपना धर्म कभी भी नहीं बदल सकता और जो व्यक्ति विवेकशील होने के कारण धर्म से जुड़ा रहना आवश्यक नहीं समझता, तो वह कोई दूसरा धर्म क्यों स्वीकार करेगा, क्योंकि सभी धर्मां के अपने अपने कर्मकांड हैं।

अब सवाल शादी का है। यदि दो धमों के व्यक्ति शादी करना चाहते हैं, तो उन्हें वैसा करने से रोका नहीं जा सकता। लेकिन उन दोनों को अपना अपना धर्म त्यागकर धर्महीन होने के लिए कहा जाना चाहिए और उनकी शादी सिर्फ और सिर्फ स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत ही होना चाहिए, जो पहले से ही हमारे पास मौजूद है। अंतर्धार्मिक शादी करने वाले जोड़ों के लिए अपना अपना धर्म छोड़ना अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। प्रेम के लिए वे इतनी कुर्बानी तो दे ही सकते हैं। (संवाद)