मानव जीवन पर पड़ने वाले कुप्रभावों में कुपोषण में वृद्धि तथा उससे संबंधित रोग जैसे बच्चों के शारीरिक विकास पर असर पड़ना तथा लू , बाढ, तूफान, आग और सूखे के कारण मौतों में वृद्धि, उल्टी-दस्त के साथ-साथ अन्य संक्रामक रोगों में वृद्धि शामिल हैं।
सरकार विभिन्न क्षेत्रों में ऊर्जा संरक्षण और ऊर्जा कार्यकुशलता में वृद्धि, नवीकरणीय ऊर्जा के इस्तेमाल को प्रोत्साहन, बिजली क्षेत्र में सुधार, परिवहन में स्वच्छ और कम कार्बन वाले र्इंधनों के इस्तेमाल, स्वच्छ ऊर्जा वाले र्इंधन, वनारोपण, वन संरक्षण, स्वच्छ कोयला प्रौद्योगिकियों को प्रोत्साहन और मास रैपिड ट्रांसपोर्ट सिस्टम पर केंद्रित कार्यक्रमों केे माध्यम से संपोषणीय विकास की नीति पर चल रही है।
राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्ययोजना शुरू की गयी जिसके अन्तर्गत राष्ट्रीय सौर मिशन और राष्ट्रीय वद्र्धित ऊर्जा कार्यकुशलता मिशन शामिल है। इसका लक्ष्य जीडीपी के उत्सर्जन घनत्व को कम करना है।
हालांकि कृषि क्षेत्र के उत्सर्जन को उत्सर्जन घनत्व के आकलन में शामिल नहीं किया गया है। लेकिन कृषि कार्यों में सुधार और जैव उर्वरकों और संपोषणीय कृषि पद्धतियों के अधिक इस्तेमाल से कृषि उत्पादन में उत्सर्जन घनत्व में कमी आ सकती है।
भारत अपनी सीमा के अंदर जलवायु परिवर्तन के स्थानीय प्रभावों के प्रति बहुत जागरूक है। यूएनईसीसीसी और बाली कार्य योजना के हिस्से के रूप में उसे अपनी वैश्विक जिम्मेदारी का भी पूरा एहसास है। अगले एक दो दशक के दौरान हर वर्ष 8-9 फीसदी आर्थिक विकासदर के बावजूद भी भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन विकसित देशों के प्रति व्यक्ति उत्सर्जन से कम ही रहने वाला है। उत्पादन में भारत का ऊर्जा घनत्व भी ऊर्जा कार्यकुशलता में सुधार, स्वायत्त प्रौद्योगिकी परिवर्तन और ऊर्जा के कम उपयोग से घट रहा है। भारत का जलवायु परिवर्तन मॉडलिंग अध्ययन के अनुसार सन् 2020 तक प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 2-2.5 टन कार्बन डाइक्साईड तथा सन् 2030 तक 3-3.5 टन कार्बन डाइक्साइड के आसपास रहेगा जबिक फिलहाल यह 1-1.2 टन कार्बन डाइक्साइड है।
यह भी स्पष्ट किया गया है कि विकासशील देशों के आगे के कदम विकसित देशों द्वारा प्रदान किये जाने वाली वित्तीय और प्रौद्योगिकी मदद पर निर्भर करेंगे। हमारा देश उन कार्यों के लिए सहमति के आधार पर बनी निगरानी, रिपोर्टिंग और प्रमाणीकरण प्रणाली स्वीकार करने को तैयार है, जिनके लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से वित्तीय और प्रौद्योगिकी मदद मिली है। अपने घरेलू संसाधन से वित्त पोषित उसके स्वैच्छिक कार्य भी अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को सूचना और परामर्श के लिए उपलब्ध हैं। हालांकि भारत ने अपनी ऊर्जा सुरक्षा और संपोषणीय विकास के हित में जलवायु परिवर्तन के खिलाफ मुहिम के तहत उत्सर्जन कम करने के कई कदम उठाए हैं लेकिन इसके बाद भी वह राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्य योजना की प्राथमिकताओं और लक्ष्यों के अनुसार जलवायु परिवर्तन की समस्या के समाधान के लिए आगे भी स्वैच्छिक और राष्ट्रीय रूप से उपयुक्त कदम उठाएगा।
पंचवर्षीय योजना में निम्न कार्बन संपोषणीय विकास के लिए विशेष रणनीति शामिल की गयी है। भारत ने घोषणा की है कि वह 2005 की तुलना में 2020 तक जीडीपी के घनत्व उत्सर्जन में 20 से 25 फीसदी की कमी लाएगा लेकिन इस घनत्व आकलन में कृषि उत्सर्जन शामिल नहीं है। इस लक्ष्य को पाने के लिए विशेष क्षेत्रों में कई कदम उठाए जाएंगे और उसके लिए घरेलू तथा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से कई जरूरी वित्तीय और प्रौद्योगिकी प्रावधान किए जाएंगे। विशेषज्ञ दल की मदद से निम्न कार्बन संपोषणीय विकास की रूपरेखा तैयार की जा रही है। दल का गठन योजना आयोग ने किया है।
भारत अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी के एक जिम्मेदार सदस्य के रूप में जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय वार्ता कर रहा है। बहुपक्षीय एवं द्विपक्षीय मंचों पर हाल की वार्ताओं के दौरान भारत ने उपरोक्त के अनुसार अपना रुख स्पष्ट कर दिया है। भारत दिसंबर, 2010 में मैक्सिको के कानकून में होने वाले सीओपी-16 के सकारात्मक निष्कर्षों में और उससे पहले होने वाली बैठकों में संधि, क्योटो प्रोटोकॉल तथा बाली कार्ययोजना के सिद्धांतों और प्रावधानों में अपना यथासंभव सर्वश्रेष्ठ योगदान देने का भी इरादा जाहिर कर चुका है।
भारत में जलवायु परिवर्तन अनुमान
ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि से जलवायु के भावी परिदृश्य के अनुसार भारत में 21 वीं सदी में वर्षां और तापमान दोनों में वृद्धि के संकेत हैं।
भारतीय जल संसाधनों, कृषि, वानिकी, प्राकृतिक पारिस्थितकी, तटीय क्षेत्रों , मानव स्वास्थ्य, ऊर्जा, उद्योग और अवसंरचना क्षेत्रों पर जलवायु परिवर्तन प्रभावों का अनुमान संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन प्रारूप संधिपत्र के भारतीय प्रारंभिक राष्ट्रीय संचार के तहत मौजूदा क्षमताओं और पद्धतियों का इस्तेमाल कर लगाया गया है। ये अध्ययन जलवायु परिवर्तन का देश पर संभावित प्रभावों का अनुमान लगाने के प्रारंभिक प्रयास हैं।
जलवायु परिवर्तन का विभिन्न क्षेत्रों पर प्रभाव
जल संसाधन: ऐसा अनुमान है कि धरती से बहकर प्रमुख नदियों के बेसिनों और उपबेसिनों में जाने वाले बारिश के पानी की मात्रा में जलवायु परिवर्तन के कारण बहुत बड़ा परिवर्तन आएगा।
वानिकी एवं प्राकृतिक पारिस्थतिकी: भारत में वनों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के विश्लेषण निष्कर्षों पर जलवायु परिवर्तन अनुमान का बहुत असर पड़ सकता है। भारत में अधिकांश वनस्पतियां जलवायु परिवर्तन के कारण संबंधित पारिस्थितिकी में अपने आप को ढा़ल नहीं पाएंगी। फलस्वरूप जैवविविधता के भी बुरी तरह प्रभावित होने की संभावना है।
मानव स्वास्थ्य: तापमान में वृद्धि से मलेरिया जैसी संक्रामक बीमारियां फैलने की आशंका है। तापमान और आद्र्रता में वृद्धि से मच्छर जैसे संक्रामक वाहक तेजी से बढत़े हैं और उनसे फिर मलेरिया फैलता है।
अवसंरचना: ऊंची लागत से बनने वाले बांध, सड़कें, पुल जैसी बड़ी अवसरंचनाओं पर चक्रवात, भारी बारिश, भूस्खलन और बाढ ज़ैसी आपदाओं का असर पड़ने का खतरा है क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कारण इस शताब्दी के उतराद्र्ध में इस प्रकार की आपदाएं अधिक आ सकती हैं। उस समय उन अवसंरचनाओं पर ज्यादा खतरा उत्पन्न होगा जिन्होंने अपनर सामान्य जीवन अवधि पूरी कर ली है।
तटीय क्षेत्र: समुद्र स्तर संबंधी आंकड़े बताते है कि भारतीय तटरेखा के पास समुद्र के स्तर में बहुत बदलाव आ जाएगा। जहां कच्छ की खाड़ी और पश्चिम बंगाल तट के समीप समुद्र स्तर बढ ज़ाएगा वहीं कर्नाटक तट के समीप समुद्र स्तर घट जाएगा। इन आंकड़ों के अनुसार समुद्र स्तर में दीर्घकाल में औसतन एक सेंटीमीटर प्रति वर्ष वृद्धि होगी और 21 वीं सदी के अंततक समुद्र स्तर 46-59 सेंटीमीटर तक बढ ज़ाएगा। प्राथमिक आकलन निष्कर्ष के मुताबिक समुद्र स्तर में वृद्धि, टेक्टोनिक संचलन, हाइड्रोग्राफी और फिजियोग्राफी से भारतीय तट रेखा पर असर पड़ेगा।
कृषि: गैस उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन देश में कृषि पर बहुत बुरा असर डाल सकते हैं। जहां कार्बन डाइक्साइड की अधिक मात्रा से पौध बायोमास में वृद्धि हो सकती है, वहीं उत्सर्जन में वृद्धि से तापमान के बढऩे पर फसल की उपज घटेगी। अध्ययन बताते हैं कि तापमान के बढऩे से अनाज की गुणवत्ता घटने के साथ ही उसकी उपज भी घट जाएगी। कीट व बीमारियां फसलों की उपज की स्थिति को और गंभीर बना सकती हैं। जलवायु परिवर्तन कृषि पर विभिन्न रूप से असर डाल सकता है। उदाहरणस्वरूप कार्बन डाइक्साइड की मात्रा में वृद्धि, तापमान के बढऩे और वर्षा के घटने-बढऩे से विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न फसलों की उपज पर भिन्न भिन्न असर होगा। (पसूका)
भारत में कार्बन उत्सर्जन का प्रभाव
कल्पना पालखीवाला - 2010-04-28 10:18
कार्बन उत्सर्जन की वजह से पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों में ग्रीमकाल में अत्यधिक गर्मी तो सर्दी में अत्यधिक सर्दी, मानूसन में बदलाव, जमीन पर तापमान में परिवर्तन, समुद्र के स्तर में वृद्धि तथा हिमनदों के पिघलने जैसे कई तत्व शामिल हैं। जलवायु परिवर्तन से कृषि और खाद्य उत्पादन पर असर पड़ने की संभावना रहती है तथा संक्रामक बीमारियां फैल सकती हैं।