मगर सवाल यही है कि प्रधानमंत्री मोदी और भारतीय जनता पार्टी क्या वाकई इस मुद्दे पर गंभीर है? क्या इस पर सभी राजनीतिक दल सहमत हो सकते हैं? एक अहम सवाल यह भी है कि भारत जैसे विशाल देश में क्या लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनाव एक साथ कराना व्यावहारिक रूप से संभव है? अगर इन सवालों को दरकिनार करते हुए भी प्रधानमंत्री मोदी सभी चुनाव एक साथ कराने की बात को लेकर गंभीर हैं तो सवाल है कि ऐसा करने में क्या बाधा आ रही है? उनके पास लोकसभा में भी बहुमत है और राज्यसभा में बहुमत न होते हुए भी उनकी सरकार ने कई विधेयक पारित कराए ही हैं। उनका तो यह भी दावा है कि उन्होंने ऐसे कई काम कर दिए हैं, जो पिछले 70 सालों में नहीं हो पाए थे। तो फिर यह काम क्यों नहीं हो पा रहा है?

प्रधानमंत्री मोदी ने जब इस मसले पर चर्चा के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई थी तो कांग्रेस के अलावा समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, द्रमुक, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, तेलुगू देशम, तेलंगाना राष्ट्र समिति सहित कई क्षेत्रीय दलों ने दूरी बनाए रखी थी। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, जनता दल (यू), बीजू जनता दल, अकाली दल, वाईएसआर कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, शिव सेना, अन्ना द्रमुक, नेशनल कांफ्रेन्स, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) आदि दलों ने बैठक में शिरकत तो की थी, लेकिन इनमें ज्यादातर दलों ने ‘एक देश-एक चुनाव’ की संकल्पना को अव्यावहारिक बताते हुए खारिज कर दिया था। जाहिर है कि इस मामले में सरकार और भाजपा को अपने कुछ सहयोगी दलों का ही समर्थन हासिल है। हालांकि उस समय सरकार की ओर से कहा गया था कि वह इस बारे में अपनी राय थोपेगी नहीं बल्कि आम सहमति बनाने की दिशा में अपने प्रयास जारी रखेगी। याद नहीं आता कि बाद में सरकार ने इस दिशा में कोई पहल की हो।

‘एक देश-एक चुनाव’ की संकल्पना प्रस्तुत करते हुए प्रधानमंत्री मोदी का कहना रहा है कि देश में हर समय कहीं न कहीं चुनाव होते रहने से प्रशासनिक मशीनरी के नियमित कामकाज पर असर पडता है और विकास संबंधी गतिविधियां भी प्रभावित होती है। इसके अलावा देश का समय और पैसा भी अतिरिक्त खर्च होता है, जिसका खामियाजा अंततः आम लोगों को ही भुगतना पडता है। अगर सारे चुनाव एक साथ होंगे तो समय और पैसे की बचत तो होगी ही, प्रशासनिक तंत्र को भी राहत मिलेगी और वह अपना नियमित दायित्व ज्यादा सुचारू रूप से निभा पाएगा।

इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारी चुनाव प्रणाली में कुछ बुनियादी बीमारियां घर कर गई हैं और उसमें लंबे समय से सुधार की जरुरत महसूस की जा रही है। चुनावों का आलम यह है कि दो-चार महीने भी ऐसे नहीं गुजरते जब देश चुनावी मोड में न दिखता हो। एक अनुमान के मुताबिक विधानसभा और लोकसभा चुनाव अलग-अलग होने से हर साल करीब चार महीने आचार संहिता के दायरे में आ जाते हैं। चुनाव वाले राज्यों में अपने दलीय हितों के मद्देनजर केंद्र सरकार लोक-लुभावन फैसले लेने लगती है, जिसका नुकसान बाकी राज्यों को होता है। राजनीति का मुहावरा ऐसा बदला है कि राज्यों में भी वोट केंद्र के फैसलों पर पडने लगे हैं। बढता चुनावी खर्च एक अलग समस्या है जिससे चुनाव में काले धन के इस्तेमाल को बढ़ावा मिल रहा है। सुरक्षा बलों और बाकी अमले की तैनाती में पैसे तो लगते ही है, उनकी नियमित भूमिकाएं भी प्रभावित होती है। इसलिए सरकार का तर्क है कि चुनाव एक साथ कराए जाएं तो इन बीमारियों का असर कम हो सकता है।

एक साथ चुनाव कराने को लेकर प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार की दलीलों से सरसरी तौर पर तो शायद ही कोई असहमत होगा, लेकिन सवाल यही है कि क्या भारत जैसे विशाल देश में ऐसा होना व्यावहारिक तौर पर संभव है और क्या हमारा चुनाव आयोग ऐसा कर पाने में सक्षम है?

एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में यह दलील भी दी जा रही है कि जब देश की आजादी के बाद शुरुआती दशकों में भी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही होते थे तो अब क्यों नहीं हो सकते? यह सही है कि देश आजाद होने के बाद करीब दो दशक तक यानी 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही होते रहे। तब तक केंद्र और लगभग सभी राज्यों में कांग्रेस की ही सरकारें भारी बहुमत से बनती रहीं। लेकिन 1967 से हालात बदलने लगे। राज्यों में सत्ता पर कांग्रेस की इजारेदारी टूटी और कई राज्यों में मिली-जुली सरकारें बनीं। इस सिलसिले में कई राज्यों में सरकारें गिरती और बदलती भी रहीं और कई राज्यों में मध्यावधि चुनाव की नौबत भी आई। इस प्रकार लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने का सिलसिला टूट गया।

एक साथ चुनाव कराने का सिलसिला शुरू होना अब इसलिए भी आसान नहीं है क्योंकि उस समय की आज की स्थिति में जमीन-आसमान का फर्क आ गया है। 1967 के आम चुनाव में देश में कुल मतदाताओं की संख्या लगभग 25 करोड थी, जबकि 2019 के आम चुनाव में यह संख्या 90 करोड के आसपास पहुंच गई। आगे भी इसमें इजाफा ही होना है। फिर हमारे यहां तमाम राज्यों में आबादी के लिहाज से पुलिस बल वैसे ही बहुत कम है। अभी भी चुनावों के वक्त पुलिस के अलावा रिजर्व पुलिस बल और अर्ध सैनिक बलों की तैनाती करना पडती है। ऐसे में पूरे देश में एक साथ सारे चुनाव कराने पर तो हमारे पूरे सैन्य बल को उसमें झोंकना पडेगा, जो कि व्यावहारिक रूप से संभव नहीं हो सकता।

फिर यदि सभी निकायों के चुनाव एक साथ होंगे तो राष्ट्रीय मुद्दों के शोर में स्थानीय और प्रादेशिक महत्व के मुद्दे गुम हो जाएंगे। ऐसे में विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनाव का कोई मतलब नहीं रहेगा। दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र के 90 करोड से भी ज्यादा मतदाता लोकसभा, विधानसभा, नगर निगम, नगर पालिका और पंचायत के लिए एक साथ मतदान करेंगे तो क्या उनके दिमाग में मुद्दे गड्डमड्ड नहीं होंगे और फिर उनके वोटों की गिनती कैसे होगी?

चुनाव आयोग की बात करें तो कुछ समय पहले उसने भी सरकार के सुर में सुर मिलाते हुए सभी चुनाव एक साथ कराने की पैरवी की थी। उसकी ओर से कहा गया था कि वह एक साथ सभी चुनाव कराने में सक्षम हैं। लेकिन उसका यह दावा कोरा बकवास है, क्योंकि उसकी क्षमताओं की सीमा पिछले कुछ समय में बार-बार दयनीय और हास्यास्पद रूप में उजागर हुई हैं। मसलन 2017 में गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल लगभग एक साथ खत्म हुआ था, लेकिन उसने दोनों राज्यों के चुनाव की अधिसूचना अलग-अलग समय पर जारी की थी। दोनों जगह चुनाव भी अलग-अलग कराए थे, जबकि आबादी और विधानसभा की सीटों के लिहाज दोनों ही राज्य अन्य कई राज्यों की तुलना में बहुत छोटे हैं।

सवाल है कि जब चुनाव आयोग दो राज्यों में एक साथ चुनाव नहीं करा सकता है तो वह पूरे देश में एक साथ कैसे चुनाव कराएगा? 2019 के लोकसभा चुनाव भी उसने दो महीने में सात चरणों में कराए थे। पूछा जा सकता है कि इतना लंबा चुनाव कार्यक्रम बनाने का क्या औचित्य रहा होगा? उस लोकसभा चुनाव के बाद गुजरात में राज्यसभा की एक साथ रिक्त हुई दो सीटों के लिए अलग-अलग चुनाव कराने का उसका फैसला तो हर तरह से हास्यास्पद ही था, जिसके बारे में वह कोई सफाई नहीं दे पाया था।

सवाल यह भी है कि एक साथ चुनाव हो जाने की स्थिति में भी अगर निर्धारित कार्यकाल से पहले ही लोकसभा के भंग होने की नौबत आ गई तो ऐसी स्थिति में क्या सभी विधानसभाओं और स्थानीय निकायों को भी भंग कर एक साथ मध्यावधि चुनाव कराए जाएंगे? यही सवाल विधानसभाओं के संदर्भ में भी उठता है। अगर चुनाव के बाद किसी किसी राज्य में सरकार नहीं बन पाती है या कार्यकाल पूरा होने से पहले ही गिर जाती है और वैकल्पिक सरकार नहीं बन पाती है तो क्या वहां मध्यावधि चुनाव नहीं कराए जाएंगे? और अगर वहां मध्यावधि चुनाव हुए तो क्या उस राज्य की विधानसभा को एक साथ चुनाव कराने के लिए उसकी निर्धारित अवधि से पहले ही भंग कर दिया जाएगा? ऐसे और भी कई सवाल हैं जो एक देश एक चुनाव की संकल्पना को अव्यावहारिक ठहराते हैं।

लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं कि चुनाव सुधार के बुनियादी सवालों से मुंह मोड लिया जाए। गंभीर रूप से बीमार हो चुकी हमारी चुनाव प्रणाली का उपचार तो हर हाल में होना ही चाहिए। इस दिशा में सबसे पहले तो इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन की गडबडियों को दूर करने की जरूरत है, जिनको लेकर हर चुनाव में शिकायतें मिलती हैं। इसके साथ ही चुनाव आयोग को वास्तविक रूप से स्वायत्ता देने और उसकी कार्यप्रणाली को पारदर्शी बनाने की भी जरूरत है। पिछले कुछ वर्षों से हर चुनाव के दौरान चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल उठते आ रहे हैं और उसकी छवि सीबीआई, आयकर और प्रवर्तन निदेशालय जैसी बदनाम सरकारी एजेंसियों की तरह हो गई हैं, जो सरकार के राजनीतिक इरादों से प्रेरित इशारों पर काम करती हैं। इस सिलसिले में टीएन शेषन और जेएम लिंगदोह जैसे मुख्य चुनाव आयुक्तों को याद किया जा सकता है। उनके नेतृत्व में चुनाव आयोग ने कई चुनाव सुधार लागू किए थे, जिनके चलते चुनाव में होने वाली तमाम गडबडियों पर काफी हद तक अंकुश लग गया था। इसलिए लोकतंत्र की मजबूती के लिए आवश्यकता एक साथ चुनाव कराने की नहीं, बल्कि चुनाव प्रक्रिया को साफ-सुथरा और पारदर्शी बनाने की है। (संवाद)