अब वे इसे भूलवश केन्द्र सरकार के पक्ष में किया गया मतदान बता रहे हैं, लेकिन कोई इसे नहीं मानेगा, क्योंकि इतनी बड़ी भूल के लिए वे रांची से दिल्ली नहीं आ सकते थे और यह भूल एक साथ दो सांसदों से नहीं हो सकती है। गौरतलब है कि झामुमों के लोकसभा में दो सांसद हैं और दोनों ने ही सरकार के पक्ष में मत डाला।
केन्द्र सरकार के पक्ष में मत उन्होंने क्यों डाला और क्या उन्होंने इसके परिणाम पर भी विचार किया, इन सवालों का सही जवाब तो वे ही दे सकते हैं, लेकिन एक कारण शशि नाथ झा हत्याकांड हो सकता है। इस कांड में उन्हें निचली अदालत ने सजा सुनाई थी और बाद में वे उच्च न्यायालय से बरी हो गएए लेकिन सीबीआई चाहे तो अभी भी वह सुप्रीम कोर्ट में उनके खिलाफ अपील कर सकती है। सीबीआई द्वारा अपील के डर से केन्द्र सरकार के पक्ष में आ जाना एक संभावना हो सकती है।
कांग्रेस के पक्ष में आने का दूसरा कारण, केन्द्र की इस सत्तारूढ़ पार्टी से उनका हुई कोई सौदेबाजी भी हो सकती है, हालांकि कांग्रेस के रुख से ऐसा नहीं लग रहा है, लेकिन संभावना सह भी हो सकती है कि कांग्रेस की ओर से किसी ने उनको आश्वासन दिया और उन्होंने उस पर विश्वास करके कुछ ऐसा कर दिया, जिससे भाजपा नारज हो गई। शीबू सोरेन एक राजनैतिक समस्या से भी गुजर रहे हैं। उनकी समस्या अगले दो महीने के अंदर विधानसभा की सदस्यता हासिल करना है। पहले खबर थी कि उनके विधायक पुत्र हेमंत सोरेन अपनी सीट खाली करेंगे और वे वहां से चुनाव लड़ेंगे, लेकिन बाद में तोरपा के विधायक ने इस्तीफा देकर अपनी सीट उनके लिए छोड़ने का फैसला किया। तोरप विधायक माओवादी गतिविधियों में शामिल होने के मामलों में जेल में बंद हैं। आश्चर्यजनक रूप से श्री सोरेन ने तोरपा से चुनाव लड़ने से मना कर दिया और विधानसभा अध्यक्ष को कहा कि वे तोरपा विधायक का इस्तीफा स्वीकार नहीं करें। बाद में विधायक ने अपना इस्तीफा खुद भी वापस ले लिया।
दरअसल श्री सोरेन अपने बेटे हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैंख् लेकिन भाजपा को यह स्वीकार्य नहीं है। हेमंत खुद मुख्यमंत्री बनने के लिए अपने हिसाब से राजनीति कर रहे हैं। इसके लिए वे कांग्रेस के साथ भी बातचीत चलाते रहते हैं। तोरपा विधायक के इस्तीफे की वापसी श्री सोरेन द्वारा केन्द्र सरकार के पक्ष में मतदान के एक दिन पहले ही हुई थी। इससे लगता है कि कांग्रेस की ओर से किसी न किसी तरह का वायदा भी किया गया होगा। कहते हैं कि आंध्र प्रदेश के रेड्डी बंधुओं को झारखंड में खान देने के लिए श्री सोरेन पर भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व दबाव डाल रहा है और उसके कारण भी वे भाजपा से पिंड छुड़ाना चाह रहे थे।
लेकिन लोकसभा में बजट कटौती प्रस्ताव पर हुए मतदान के बाद शिबू सोरेन सरकार की अस्थिरता के बीच कांग्रेस अपनी शैली मे राजनैतिक गोटी खेलने लगी है। केन्द्र में उसकी सरकार है, इसलिए यदि वहां राष्ट्रपति शासन भी हो जाए, तो वहां की सरकार उसी की होगी, इसलिए वह झामुमो के साथ समझौता अपनी शर्तो पर करना चाहती है। यदि भाजपा और झामुमो के बीच दुराव नहीं मिटे तो पूरा मामला कांग्रेस के पक्ष में आ जाता है। कांग्रेस अपनी पसंद के व्यक्ति को वहां का मुख्यमंत्री बना सकती है अथवा राष्ट्रपति शासन के तहत सत्ता का उपभोग कर सकती है। भाजपा राजनैतिक स्थिति से भली भांति परिचित है, इसलिए हो सकता है कि वह श्री सोरेन की सरकार से समर्थन वापसी के मसले पर फिर से विचार करे। गुरुजी कह ही रहे हैं कि उन्होंने गलती से वह फैसला लिया और उसके लिए उन्हें खेद भी है। कांग्रेस के अड़ियल रवैये के बाद पे भाजपा को खुश करने की कोशिश कर रहे हैं। भाजपा यदि कांग्रेस को वहां सत्ता से बाहर रखना चाहती है, तो वह एक बार फिर झामुमो के साथ जा सकती है।
हो सकता है भाजपा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपने किसी नेता को बैठाना चाहे, लेकिन इसके लिए श्री सोरेन शायद ही तैयाा हों। यदि हेमंत को उपमुख्यमंत्री पद पर ही बैठाना हो और किसी और को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठानी हो, तो इसके लिए तो कांग्रेस का विकल्प ही उनके लिए अच्ठा है। कांग्रेस भी इस मौके को हाथ से जाने देना नहीं चाहेगी और उसे लगेगा कि यदि हेमंत को उपमुख्यमंत्री बनाकर वह मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल कर सकती है, तो वह सत्ता पाने के इस फार्मूले पर विचार कर सकती है। इसलिए अभी भी कांग्रेस और भाजपा के रूप में गुरूजी के पास दोनों विकल्प मौजूद हैं।
लगता है कि भाजपा ने अपना फैसला बहुत जल्द इसलिए किया, क्योंकि उसे लगा कि कांग्रेस के साथ गुरूजी की सौदेबाजी हो गई है। इसलिए गुरूजी भाजपा का साथ छोड़ने की घोषणा करें, उसके पहले ही भाजपा ने समर्थन वापसी का फैसला ले लिया। इसलिए राजनैतिक परिस्थितियों को देखते हुए भाजपा अपने फैसले पर फिर से विचार कर सकती है। अपना मुख्यमंत्री बनाने में उन्हें भी समस्या है। एक समस्या तो मुख्यमंत्री के लिए नेता का चुनाव करना है। पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा फिर से मुख्यमंत्री बनना चाहेंगे, तो उपमुख्यमंत्री रह चुके रघुवर दास खुद को ही मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहेंगे। दोनो के विवाद को हल करना भाजपा के लिए आसान नहीं है। इसलिए यदि कांग्रेस के साथ गुरूजी का कोई तालमेल नहीं बैठ पाता है और राज्य में राष्ट्रपति शासन ही एकमात्र विकल्प दिखाई देता है, तो भाजपा फिर से अपनी पुरानी भूमिका में आ सकती है।
झारखंड की राजनतिक अस्थिरता यह सोचने के लिए बाध्य करती है कि क्या इसके गठन का फैसला गलत था? करीग 10 साल पहले बिहार का विभाजन कर इसका गठन किया गया था। कहा जाता था कि बिहार के साथ रहकर यह विकास की अपनी संभावनाओं का पूरा दोहन नहीं कर पाता है। लेकिन गठन के बाद जिस तरह की राजनैतिक अस्थिरता का साम्राज्य यहां रहा है, उससे तो सही लगता है कि इस राज्य का गठन ही एक बहुत भारी भूल थी। बिहार के साथ रहकर इसकी खान संपदा ज्यादा सुरक्षित थी। अलग राज्य बनने के बाद यहां खानो की लूट जारी है। राजनैतिक अस्थिरता खानों की लूट को बढ़ावा दे रही है, हालांकि माआवादियों के कारण इस पर थोड़ा ब्रेक भी लगता है।
गठन के बाद झारखंड विधानसभा के दो बार आमचुनाव हुए हैं और दोनों बार विधानसभा त्रिशंकु रही है। बिहार के अंदर हुए विधानसभा चुनाव में जीते विधायकों से बनी झारखंड विधानसभा के पहले सवा चार साल में भाजपा जद (यू) गठगंधन को पूर्ण बहुमत प्राप्त था लेकिन उस दौरान भी दो मुख्यमंत्री बने। वहां किसी आदिवासी को मुख्यमंत्री बना दिया जाता है और फिर खदानों की लूट की जाती है। नए राज्य बनने से यहां के गरीब आदिवासियों का शायद ही कोई भला हुआ हो। इसलिए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या झारखंड का गठन एक बहुत बड़ी भूल थी? (संवाद)
झारखंड: संकट में सोरेन सरकार
उपेन्द्र प्रसाद - 2010-04-29 09:56
शीबू सोरेन की सरकार संकट में है। तीसरी बार मुख्यमंत्री बने श्री सोरेन ने दावा किया था कि वे इस बार 5 साल का कार्यकाल पूरा करेंगे, पर 4 महीने मे ही उसकी सरकार गिरती नजर बा रही है। हांलांकि इसके लिए इसबार वे खुद ही जिम्मेदार हैं। भारतीय जनता पार्टी के साथ राज्य में सत्ता की भागीदारी करते करते उन्होंने केन्द्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार का समर्थन कर डाला। यह नैतिक ही नहीं, बल्कि राजनैतिक रूप से भी गलत है।