बजट का संबंध राजकोष से ही है और इस समय देश के आजादी के बाद का सबसे बड़ा राजकोषीय संकट खड़ा है। राजकोष में पैसे आते हैं। राजकोष से पैसे खर्च होते हैं। यही आवक और खर्च से संबंधित नीतियां ही राजकोषीय नीतियां हैं। इनसे देश का वर्तमान ही नहीं, भविष्य भी निर्धारित होता है। चाले वित्त वर्ष में खर्च ज्यादा हो गया, क्योंकि सरकार को उन मदों में भी खर्च करने पड़े, जिनके बारे में पिछले साल बजट पेश करते सोचा तक नहीं गया था। स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च हुए और सबसे ज्यादा तो मुफ्त अनाज कोरोना के कारण हुए लॉकडाउन पीड़ितों को देने के कारण खर्च हुए। खर्च तो ज्यादा हुए, लेकिन राजस्व घट गया। लॉकडाउन के कारण देश में आर्थिक गतिविधियां सिकुड़ती चली गईं। चालू वित्त वर्ष के पहले 6 महीने मो आर्थिक विकास 24 फीसदी की गिरावट आ गई। आर्थिक गतिविधियों के कम होने का मतलब राजस्व में कमी।
इस तरह राजकोष पर दोतरफा मार पड़ा। कोष से ज्यादा खर्च करने पड़े और इसमें आया राजस्व कम हो गया। फिर तो राजकोष का घाटा बढ़ना ही बढ़ना था। यह तीन गुना बढ़ गया और इसका असर देश पर पड़ना स्वाभाविक है। पड़ भी रहा है। राजकोष का घाटा पूरा करने के लिए सरकार जो नीतियां अपनाती हैं, उनका प्रभाव पड़ता है। अच्छा प्रभाव पड़ने की बात तो दूर, इसका बुरा प्रभाव ही पड़ता है। पर सवाल उठता है कि यह बुरा प्रभाव किस तबके पर पड़ेगा।
अगले वित्तवर्ष के लिए बजट में करीब पौने 8 फीसदी राजकोषीय घाटे का लक्ष्य रखा गया है। इस घाटे के और बढ़ने की संभावना है, क्योंकि निकट में एकाएक आर्थिक गतिविधियां बढ़ने की संभावना बहुत कम है। देश में कोरोना नियंत्रित होती दिखाई पड़ रही है। केरल को छोड़कर अन्य प्रदेशों में यह पहले से बहुत कम हो गई है, लेकिन दुनिया के अन्य देशों में भी जब तक कोरोना समाप्त यह बहुत कम नहीं हो जाता, तबतक भारत पर भी खतरा बना रहेगा और हम राहत की सांस नहीं ले सकते। कोरोना नये नये रूपों में अवतरित हो रही है। पता नहीं उसका कौन अवतार फिर से भारत में आ जाए और फिर संकट का एक नया दौर शुरू हो जाय।
जाहिर है, हमारा आर्थिक भविष्य अभी भी अनिश्चित है। कोरोना महामारी हमें किस दिशा में ले जाएगी, यह कहना मुश्किल है। वैसे दौर में राजकोष संकट दूर करने का जो सबसे बड़ा तरीका इस बजट में बताया गया है, उसकी उपयोगिता भी संदिग्ध है। वह तरीका है सरकारी संपत्तियों को बेचकर सरकार के राजकोष को भरना और राजकोषीय घाटा दूर करना। वैसे इन संपत्तियों को बेचने का यह सिलसिला लंबे समय से जारी है। मनमोहन सिंह जब वित्तमंत्री थे, तब से ही यह शुरू किया गया था, लेकिन तब बीमार पड़ी या घाटे में पड़ी कंपनियों को ही बेचा जाता था। लेकिन बाद में अटलबिहारी वाजपेयी के समय में एक नई प्रवृति उभरी।
वह फायदा दे रही कंपनियों को बेचने और घाटे की कंपनियों को बंद करने की थी। कंपनियों को पूरी तरह नहीं बेचा जाता था, बल्कि उनके एक हिस्से को बेचा जाता था। मनमोहन सिंह की सरकार के दौर में समर्थक वामपंथियों के दबाव में और शायद सोनिया गांधी के हस्तक्षेप के कारण भी, सरकारी कंपनियों के बिकने की रफ्तार पर ब्रेक रहा। मनमोहन सिंह का दूसरा कार्यकाल वामपंथी दबाव से मुक्त था, लेकिन फिर भी सोनिया गांधी के सलाहकारों के कारण इस पर नियंत्रण रहा। शायद इसी को पॉलिसी पारालिसिस कहा गया। चल रहे आंदोलनों के बीच मनमोहन सिंह की सरकार ज्यादा कुछ कर नहीं पा रही थी। भ्रष्टाचार के आरोप भी लग रहे थे। इसके कारण बेचने का काम या तो हो ही नहीं रहा था या बहुत मंद पड़ गया था।
लेकिन 2014 में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद कंपनियों की बिक्री तेज हो गई। सरकार ने कंपनियां बेचना अपने राजस्व की प्राप्ति का एक हिस्सा बना लिया और जहां कहीं भी ज्यादा मिल सकता था, उसे बेचने के लिए प्रस्तुत कर दिया गया। किसी ने नहीं सोचा होगा कि रेल को भी बेचा जा सकता है, लेकिन रेल रूटों और रेलवे स्टेशनों को बेचा जाने लगा।
और सरकारी संपत्तियों की बिक्री को ही राजस्व घाटे की समस्या से जूझने का एक बड़ा साधन केन्द्र सरकार ने बना लिया है। पिछले दिनों सीतारमण द्वारा पेश किए गए बजट की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि जो भी संभव है, उसे सरकार बेचने जा रही है। यह दीगर बात है कि कितनी संपत्तियों के खरीददार मिलेंगे। इसी बीच किसान आंदोलन चल रहा है। यह लगातार तेज भी होता जा रहा है। आगामी अप्रैल महीने से नये श्रम कानूनों को लागू किया जाएगा। उनके विरोध में मजदूरों द्वारा आंदोलन चलाने की भी संभावना है। फिर जो कंपनियां बिकने वाली हैं, उनके कर्मचारी भी हड़ताल पर जा सकते हैं। इस तरह कोरोना के साथ साथ नई समस्याएं पैदा होने जा रही हैं।
सरकार के पास अभी भी समय है। देश के माहौल को अशांत करने से बेहतर है कि सरकार राजकोष को भरने के लिए अन्य तरीकों का इस्तेमाल करे। एक तरीका तो अमीरों पर सुपर रिच टैक्स लगाना हो सकता है। ऐसे लोगों की संख्या बहुत हो गई है, जिनकी आमदनी बहुत ही ज्यादा है। हम यह नहीं कहते कि पहले की तरफ उनकी आमदनी पर 97 फीसदी का टैक्स लगा दो, लेकिन 60 फीसदी का टैक्स तो लगाया ही जा सकता है। उससे कर राजस्व में वृद्धि होगी, जो राजकोषीय संकट को हल करने में मददगार होगा। इसके अलावे नई करंसी छाप कर भी राजकोष के संकट से निपटा जा सकता है। (संवाद)
संकट काल का बजट
सरकारी संपत्तियों को बेचने की जगह रुपया छापा जाना चाहिए
उपेन्द्र प्रसाद - 2021-02-02 10:07
निर्मला सीतारमण ने अपना यह बजट ऐसे समय में पेश किया है, जब देश अभूतपूर्व आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है और सरकार के सामने जबर्दस्त वित्तीय संकट मौजूद है। पिछला बजट पेश करते समय वित्तमंत्री ने केन्द्र सरकार के राजकोषीय घाटे का अनुमान सकल घरेलू उत्पाद के साढ़े तीन फीसदी लगाया था, लेकिन अब अनुमान है कि यह साढ़े नौ फीसदी हो गया है। अभी भी चालू वित्त वर्ष के दो महीने शेष हैं। इसलिए पूरी संभावना है कि वास्तविक राजकोषीय घाटा 10 फीसदी से ज्यादा ही होगा।