दरअसल, जब हेमंत सोरेन ने कहा था कि उनकी पार्टी भाजपा के मुख्यमंत्री को स्वीकार करने के लिए भी तैयार है, तो उन्हें पता था कि उनके सहयोगी दल के लिए अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार चुनना आसान नहीं होगा। यथास्थिति में बहुत लोगों के निहित स्वार्थ बन जाते हैं और इसे तोड़ना आसान नहीं होता है।

रधुवर दास झारखंड के भाजपा अध्यक्ष हैं और वे वहां के उपमुख्यमंत्री भी हैं। उन्हें वित्त मंत्रालय मिला हुआ है। जाहिर है, यदि गठबंधन के अंदर कोई भाजपा का मुख्यमंत्री बनता हो, तो उसके सबसे प्रबल दावेदार श्री दास ही होगे। यदि उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाता है तो उन्हें मत्रिमंडल से ही बाहर जाना पड़ सकता है, क्योंकि भाजपा मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री दोनो का पद एक साथ नहीं रख सकती।

इसलिए मुख्यमंत्री बनना रधुबर दास की निजी राजनीति के लिए बहुत जरूरी था। इस बात को झाारखंड मुक्ति मोर्चे के नेता समझते थे। शीबू सोरेन के मुख्यमंत्री पद से हटने का मतलब रघुबर दास की भी सरकार से बिदाई मानी जाएगी, यदि खुद श्री दास को भाजपा मुख्यमंत्री नहीं बनाती है।

पर जब भाजपा के मुख्यमंत्री चुनने की बारी आई तो सबसे पहला नाम यशवंत सिन्हा का उभरा। उनकी अपनी एक लॉबी है, जो राजनीति में भी है और मीडिया में भी। उसने उनका नाम चलाना २शुरू कर दिया। लेकिन रघुबर दास के दावे को खारिज करना भी आसान नहीं था। वे एक ऐसी जाति से आते हैं, जिसकी संख्या झारखंड में सबसे ज्यादा है। राज्य की कुछ और जातियों ने मिलकर अपनी वैश्य पहचान बना ली है। वैश्य के रूप में अपनी पहचान कराने वालों की संख्या झारखंड में आदिवासियों की संख्या से भी ज्यादा है।

गौरतलब है कि राज्य में आदिवासियों की संख्या 2001 की जनगणना के अनुसार 26 फीसदी है। वैश्य समुदाय के लोग अपनी आबादी 40 फीसदी होने का दावा करते हैं। यदि उनके दावे को अतिशयोक्ति भरा मान भी लिया जाय तब भी यह मानना गलत नहीं होगा कि वैश्य समुदाय आदिवासियों के 26 फीसदी से तो ज्यादा ही होगा, क्योंकि उपमुख्यमंत्री रघुबर दास की अपनी ही जाति के लोगों की संख्या 1931 की जनगणना के अनुसार करीब 15 फीसदी होगी।

जाहिर है भाजपा इतनी बड़ी आबादी को नाखुश नहीं कर सकती थी। इसलिए यशवंत सिन्हा का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए जितनी तेजी से आया था, उतनी ही तेजी से चला भी गया। पर अर्जुन मुंडा फिर भी दावा करते रहे। उनके दावे का विरोध रधुबर दास खेमे की तरफ से होने लगा। रधुबर दास का खेमा मजबूत हुआ, तो हंमंत सोरेन ने आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग उठा दी। यह एक सफल राजनैतिक पैंतरा था, जिसकी जद में भाजपा आ गई।

जब से झारखंड का गठन हुआ है, तब से अब तक वहां 4 मुख्यमंत्री हुए हैं और वे सभी के सभी आदिवासी ही रहे हैं। वहां आदिवासियों की संख्या 26 फीसदी है। लोकसभा की 5 सीटें वहां आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं, लेकिन 14 में 7 सांसद आदिवासी ही हैं। दो आदिवासी सामान्य सीट से चुनाव लड़कर जीते हैं। राजनीति पर आदिवासियों के बढ़ते दबदबे के कारण गैर आदिवासियो में असंताष फैल रहा है। यदि २शीबू सोरेन को हटाकर भाजपा किसी आदिवासी को ही मुख्यमंत्री बनाए, तों वह इस असंतोष का राजनैतिक खामियाजा भुगत सकती है।

श्री सोरेन को राज्य की इस राजनैतिक सचाई का अंदाजा था, इसलिए, उन्होंने आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग सामने रख दी। रधुबर दास के मजबूत दावे को देखते हुए भाजपा अर्जुन मुंडा के नाम पर सहमत नहीं हो पा रही थी। झारखंड मुक्ति मोर्चे की अंदरूनी हालत को देखते हुए सरकार के स्थिर होने की सभावना भी कम थी। अस्थिरता के कारण फिर से चुनाव की संभावना भी बनी हुई है। आदिवासी मुख्यमं.त्री बनाकर भाजपा चुनाव का सामना करे, तो उसकी और भी फजीहत हो सकती है, क्योंकि उसका मूल राजनतिक आघार वैश्य समुदाय के लोग ही रहे हैं। इसलिए उन्हें नाराज करना राजनैतिक रूप से सही नहीं होता।

यही कारण है कि भाजपा मुख्यमंत्री बनाने को लेकर किसी निर्णय पर नहीं पहुंची। इस बीच झारखंड मुक्ति मोर्चा ने श्री सोरेन की सम्मानजनक बिदाई का पासा फेका। कहा गया कि यदि श्री सोरेन का संसद में गलती से गलत खेमें को मतदान करने के नाम पर हटाया जाता है, तो इससे उनकी बेइज्जती होगी। इसलिए उन्हें अपना 6 महीने का कार्यकाल पूरा करने दिया जाय। बिना विधायक रहे हुए वे 6 महीने तक मुख्यमंत्री रह सकते हैं और उसके बाद तो उन्हें अपने पद से हटना ही पड़ेगा। लेकिन तब संदेश जाएगा कि श्री सोरेन हटाए नहीं गए, बल्कि संवैधानिक प्रावधानों के तहत अपना 6 महीने का कार्यकाल पूरा करके हट रहे हैं।

मुख्यमंत्री का चुनाव करने में विफल भाजपा को भी यथास्थिति में ही अपना स्वार्थ सधता दिखाई दे रहा है। इसलिए उसने जून महीने तक गुरूजी को मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार कर लिया है। पर मूल सवाल तो जस का तस है। जब भी माजपा अपने मुख्यमंत्री का चुनाव करेगी, उसके सामने नेता चुनने की समस्या आएगी। और यदि झामुमो ने आदिवासी नेता की शर्त बरकरार रखी, तो फिर उसे गैरआदिवासी लोगांे के असंतोष का सामना करना पड़ेगा। इसलिए भाजपा की सह समस्या बनी रहेगी।

श्री सोरेन मुख्यमंत्री के रूप में अपने 4 महीने पूरे कर चुके हैं। 30 जून को उनके कार्यकाल का 6 महीना पूरा हो जाएगा। यदि वे तब तक विधायक नहीं बनें, तो उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ेगा। उनकी बहु और उनका बेटा हेमंत विधायक हैं। दोनों में से कोई उनके लिए सीट खाली कर सकता है। चूंकि हेमंत खु मुख्यमंत्री बनना चाह रहे थे, इसलिए वे अपनी सीट खाली नहीं रहे थे। अब तो यह जाहिर हो गया है कि हेमंत का पार्टी के अंदर ही भारी विरोध है इसलिए उनका मुख्यमंत्री बनना फिलहाल संभव नहीं है। इसलिए अब २शायद वे अपनी सीट खाली कर दें और वहां से उनके पिता चुनाव जीतकर विधायक भी बन जाएं।

अगले कुछ दिनों में ही स्थिति साफ होगी कि श्री सोरेन विधायक बन रहे हैं या नहीं। यदि वे चुनाव जीतकर विधायक बन जाते हैं, तो फिर उन्हें 30 जून के बाद भी मुख्यमंत्री पद से हटाना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा। सच कहा जाए, तो इससे २शायद भाजपा को फायदा ही होगा, क्योंकि तब वह आदिवासी और गैर आदिवासी के झमेले से बच जाएगी। (संवाद)