लेकिन भारत के लोगों को इस बात को लेकर नाराजगी है कि जब कच्चा तेल सस्ता होता है, तो उससे भारत में पेट्रोल और डीजल सस्ते नहीं होते और यदि होते भी हैं, तो बहुत कम। यह तब होता है, जब सरकार ने इनकी कीमतों को तय करने का जिम्मा बाजार को सौंप दिया है। गौरतलब है, कि पहले इनकी कीमतें सरकार तय किया करती थीं। यह कहते हुए इन्हें बाजार के हवाले किया गया था कि जब कच्चे तेल की कीमतें बढ़ेंगी, तब ये भी महंगे होंगे और जब सस्ती होगी, तब ये सस्ते होंगे। लेकिन जब कच्चे तेल की कीमतें कम होती थीं, तो सरकार राजकोषीय हस्तक्षेप कर देती थी। टैक्स बढ़ाकर वह अपना राजकोष भरने लगती थी। उसका राजकोष समृद्ध भी होता था, लेकिन इसके कारण कीमतें घट नहीं पाती थीं।

लेकिन जब कच्चा तेल महंगा हो रहा है, तो सरकार अपने द्वारा लगाए गए टैक्स को कम करने को तैयार नहीं। पहले ठीक उलटा होता था। जब कच्चा तेल महंगा होता था, तक सरकार अपने राजकोष से पैसे निकालकर तेल कंपनियों को दे देती थी, ताकि वे डीजल पेट्रोल की कीमतों को बेतहाशा बढ़ने से रोके। लेकिन अब उलटी गंगा बह रही है। जब कच्चा तेल सस्ता होगा, तो उसका फायदा सरकार को होगा और जब महंगा होगा, तो उसका भारत उपभोक्ताओं पर पड़ जाएगा।

यह उलटी गंगा इसलिए बह रही है, क्योंकि सरकार की सोच ही उलट गई है। पहले सरकारें ध्यान रखती थी कि उपभोक्ताओं को कम कीमत पर वस्तुएं मिलें। हम जानते हैं कि पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ने से अन्य वस्तुओं की कीमतें भी बढ़ जाती हैं, क्योंकि परिवहन महंगा हो जाता है और पेट्रो आधारित माल भी महंगे हो जाते हैं। इसलिए सरकार उस वृद्धि को रोकन चाहती थी। लेकिन मोदी सरकार के लिए उपभोक्ता से ज्यादा जरूरी उत्पादक हो गए हैं। उसका ध्यान मांग पक्ष पर कम और आपूर्ति पक्ष पर ज्यादा रहता है। वह चाहती है कि आपूर्ति और आपूर्तिकत्ता मजबूत रहे और इसके लिए उनके ऊपर प्रत्यक्ष कर का अतिरिक्त बोझ नहीं डालना चाहती।

केन्द्र सरकार निजीकरण को बढ़ावा दे रही है। वह चाहती है कि सबकुछ निजी हाथों में दिया जाय। लेकिन भारत का सार्वजनिक क्षेत्र बहुत ही समृद्ध रहा है और यह इतना समृद्ध है कि इसे खरीदने के लिए निजी क्षेत्र के पास पर्याप्त संसाधन ही नहीं है। इसलिए सरकार व्यापारिक घरोनों को समृद्ध बनाना चाहती हैं। अमीर को और भी अमीर बनाना चाहती है, तांकि उनकी क्रयशक्ति बढ़े और वे सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्तियों को खरीदने में ज्यादा से ज्यादा सक्षम बनें। इसलिए उपभोक्ता की क्रयशक्ति बढ़ाने की जगह उसकी दिलचस्पी अमीरों की क्रयशक्ति बढ़ाने में है। उसकी इस नीति का शिकार डीजल और पेट्रोल के उपभोक्ता हो रहे हैं।

यह सच है कि आज संकट का दौर चल रहा है। वर्तमान वित्तीय वर्ष में विकास दर के करीब 10 फीसदी नकारात्मक होने का अनुमान है। यानी देश की अर्थव्यवस्था 10 फीसदी सिकुड़ने वाली है। इसके कारण राजस्व प्राप्ति में भी कमी हो रही है। अब राजस्व को बढ़ाना या कम होने से रोकने पर सरकार की नजर तो रहेगी ही, लेकिन इसके लिए क्या किया जाता है, यह सरकार के अपने आर्थिक दर्शन पर निर्भर करता है। यदि कोई प्रगतिशील सोच की सरकार होगी, तो वह अमीर लोगों पर ज्यादा टैक्स लगाकर अपनी राजकोषीय समस्या का समाधान करेगी। अमीर लोगों पर ज्यादा टैक्स लगाएगी और सुपर रिच कर सुपर टैक्स लगाएगी। बहुत आय करने वाली कंपनियों पर ज्यादा कॉर्पोरेट टैक्स लगाएगी। इस तरह वह अपना खजाना भरना चाहेगी। भारत में ऐसा बहुत बार हुआ है। संकट के समय एक बार तो 97 फीसदी आयकर लगता था। यानी सुपर रिच का अपनी आय के सुपर स्लैब पर प्रत्येक 100 रूपये की आय पर 97 रुपया आयकर के रूप में सरकार को दे देना पड़ता था। उसी तरह कॉर्पोरेट टैक्स बढ़ाकर भी सरकार राजस्व बढ़ाती थी।

अभी भी सरकार यह कर सकती है। सच तो यह है कि उसे करना भी चाहिए, क्योंकि कोविड काल में जहां अधिकांश लोगों की आय बहुत कम हुई है, कुछ तो बिना आय के भी हो गए हैं, वहीं एक छोटे तबके की संपत्ति बहुत ज्यादा बढ़ गई है। अनेक कंपनियां और लोगों की आय तो सिर्फ कोविड संकट के कारण ही बढ़ी है। उन्होंने संकट को अवसर में तब्दील कर दिया है, क्योंकि वे ऐसी स्थिति में थे। तो सरकार को फर्ज बनता है, वहां से राजस्व का जुगाड़ करें, लेकिन सरकार ऐसा नहीं कर रही है, क्योंकि उसे लगता है कि जो सुपर रिच हुए हैं, वे ही तो सरकारी संपत्तियों के खरीददार भी हांगे, तो फिर खरीददारों को कमजोर क्यों किया जाय। लिहाजा, कच्चे तेल की सस्ती के दौर में सरकार ने जो अतिरिक्त टैक्स तेल उत्पादों पर डाल दिया था, उसे हटाने को वह तैयार नहीं है। राज्य सरकारें जहां शराब के कर पर निर्भर हैं, तो केन्द्र सरकार वहीं तेल उत्पादों पर लगाए करों पर निर्भर है। तेल उत्पादों पर राज्य सरकारें भी टैक्स लगाती हैं। जब कच्चा तेल सस्ता हुआ था, तो उन्होंने भी बहती गंगा में हाथ धोते हुए तेल कर से अतिरिक्त राजस्व प्राप्त किया था। उनके पास तो केन्द्र की तरह राजस्व हासिल करने के व्यापक स्रोत भी नहीं हैं, इसलिए उनकी मजबूरी है कि वे तेल टैक्स को कम न करें, लेकिन केन्द्र सरकार ऐसा करने की क्षमता रखते हुए भी ऐसा नहीं करती, क्योंकि संकट के समय में सरकारी संपत्तियों को बेचने के अपने एजेंडे पर चलते रहने के लिए वह कृतसंकल्प है।(संवाद)