लेकिन उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ। ओवैसी की पार्टी को पांच सीटें मिल गईं और मायावती की पार्टी को भी एक सीटी मिली, लेकिन उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी के हाथ एक सीट भी नहीं लगी। बहरहाल, मायावती की पार्टी का विधायक जदयू में शामिल हो चुका है और अभी नीतीश सरकार में मंत्री है। ओवैसी की पार्टी के पांचों विधायकों के भी जदयू में शामिल होने की चर्चा बीच बीच में होती रहती है और इस बीच उपेन्द्र कुशवाहा एक बार फिर अपने पुराने नेता नीतीश कुमार की शरण में जा चुके हैं।

उपेन्द्र कुशवाहा का जदयू में शामिल होना समझ में आता है। बार बार आस्था बदलने और हारने के कारण वे बिहार की राजनीति में अप्रासंगिक हो चुके हैं। इसलिए फिर से प्रासंगिक बनने के लिए उन्हें सत्ता के साथ जुड़ना जरूरी है। हालांकि उनकी विश्वसनीयता पूरी तरह से समाप्त हो चुकी है। जिसके बल पर वे आगे बढ़ते हैं, वे उसी के दुश्मन हो जाते हैं। नीतीश कुमार उनके राजनैतिक पिता रहे हैं। वे पहली बार 2020 में विधानसभा के सदस्य बने थे। तब कुछ दिनों के लिए नीतीश कुमार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। पर उनकी सरकार को विधानसभा का विश्वास हासिल नहीं हो सका था। फिर वे दिल्ली अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में वापस आ गए थे। उस समय नीतीश की समता पार्टी के विधानसभा में नेता कौन हो, इसका मसला उठा था। बहुत जूनियर और फर्स्टटाइमर होने के बावजूद नीतीश ने उन्हें अपनी समता पार्टी विधायक दल का नेता बना दिया था। राबड़ी की सरकार थी और विधानसभा में भाजपा सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी थी। लिहाजा, भाजपा के सुशील मोदी ही विधानसभा में विपक्ष के नेता था। इसी बीच बिहार का विभाजन हुआ। झारखंड प्रदेश बना और भाजपा के लगभग आधे विधायक झारखंड में चले गए। और इघर नीतीश की समता पार्टी का जदयू में विलय हो गया। समता पार्टी और जदयू के विधायकों की संयुक्त संख्या भाजपा के बिहार विधानसभा में बचे विधायकों की संख्या से ज्यादा हो गई। और तरह उपेन्द्र कुशवाहा सुशील मोदी की जगह बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता हो गया। विपक्ष का नेता मललब छाया मुख्यमंत्री। इसके साथ ही उपेन्द्र कुशवाहा की मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा जाग गई।

लेकिन दुर्भाग्य से वे फरवरी 2025 में हुई विधानसभा का चुनाव हार गए। त्रिशंकु विधानसभा होने के कारण उसी साल नवंबर महीने में विधानसभा के फिर चुनाव हुए। इस बार भी दुर्भाग्य ने कुशवाहा का साथ नहीं छोड़ा। फिर चुनाव हार गए। नवंबर चुनाव के बाद नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने। उपेन्द्र कुशवाहा यदि विधानसभा का चुनाव जीते हुए रहते, तो उन्हें निश्चय ही मंत्री बनाया जाता, लेकिन वे हारे हुए थे, इसलिए नीतीश ने उन्हें मंत्री नहीं बनाया। यदि कुशवाहा कुछ धैर्य रखते, तो विधान परिषद का सदस्य बनाकर उन्हें फिर भी मंत्री बनाया जा सकता था, लेकिन उन्होंने नीतीश कुमार को उनके लिए कुछ करने का मौका ही नहीं दिया और उनका दुश्मन बन गए। छगन भुजबल की पार्टी से जुड़कर शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए। छगन भुजबल के शह पर वे बिहार की यात्रा करने लगे और अपनी जाति के लोगों को राजनैतिक रूप से संगठित करने लगे। वे खांटी जाति की राजनीति करने लगे और कहने लगे कि एक कुशवाहा का बेटा प्रदेश का मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सकता है?

फिर उन्होंने छगन भुजबल का साथ भी छोड़ दिया। अपनी खुद की राष्ट्रीय समता पार्टी बना ली। पर कुछ हाथ नहीं लगा। किसी तरह उन्होंने नीतीश को एक बार फिर प्रसन्न किया और नीतीश ने उन्हें राज्य सभा का सदस्य बना दिया। राज्य सभा का सदस्य बनने के बाद वे फिर नीतीश की आलोचना करने लगे। खुदरा सेक्टर में विदेशियों के प्रवेश वाले एक विधेयक पर राज्य सभा में मतदान करते समय उन्होंने विधेयक के पक्ष में वोट कर डाला, जबकि पार्टी ने उस विधेयक के खिलाफ वोट करने का ब्हिप जारी कर रखा था। व्हिप के उल्लंघन का मुद्दा उठाते हुए पार्टी ने दलबदल विरेधी कानून के तहत उनकी राज्यसभा सदस्यता समाप्त करने की याचिका राज्यसभा के सभापति के पास डाली। उस कानून के तहत उनकी सदस्यता समाप्त हो, उसके पहले ही उन्होंने राज्यसभा और जदयू से इस्तीफा दे दिया और राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समता पार्टी नाम की एक नई पार्टी बना डाली। 2014 के चुनाव मेें बीजेपी से गठबंधन किया और मोदी लहर पर सवार होकर लोकसभा में आए और मंत्री भी बन गए। लेकिन 2019 के पहले सीटों की संख्या में मसले पर वे मोदी विरोधी हो गए और नीतीश-मोदी दोनों की आलोचना करते हुए लालू की शरण में जाकर दो सीटों से लोकसभा का चुनाव लड़ बैठे और दोनों से हार गए। 2020 के विधानसभा चुनाव में वे लालू को छोड़कर एक बार फिर नीतीश- मोदी से जुड़ने की कोशिश करने लगे। विफल होकर मायावती-ओवैसी के साथ, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, वे पहुंचे और वहां भी हारे।

अब वे फिर अपने गॉडफादर की शरण में हैं। लेकिन दो दो बार उपेन्द्र कुशवाहा से धोखा खाकर नीतीश उन्हें फिर अपने साथ क्यों ले रहे हैं? पहले तो नीतीश ने अध्यक्ष का पद छोड़ दिया और आरसीपी सिंह को अध्यक्ष बना दिया। आरसीपी सिंह को जदयू को मजबूत करने का जिम्मा सौंप दिया है और बिहार का जातीय समीकरण अपने पक्ष में करने में लग गए है। इसी बीच अविश्वसनीय कुशवाहा को अपने साथ लेकर नीतीश क्या संकेत कर रहे हैं? क्या वे चुनाव की तैयारी कर रहे हैं। (संवाद)