बेनीपट्टी थाने में जो हुआ, वह नरसंहार था। एक साथ छह लोगों पर हमले हुए। हमलावर दिन में खुलेआम भारी संख्या में वहां पहुंचे थे, ताकि आस पड़ोस के लोग भी बीचबचाव करने या पीड़ितों को बचाने की हिम्मत नहीं कर सकें। उन लोगों ने न केवल पीड़ितों को गोलियों से भूना, बल्कि उसके बाद नेपाली खूखरी से उनके शरीर पर वार भी किए और यह आश्वस्त होने की कोशिश की कि जिन्हें वे मारना चाहते हैं, वे किसी हालत में नहीं बचें।
चूंकि मरने वाले सभी एक ही जाति के थे, तो इस हिंसा को जाति हिंसा के रूप में वर्णित किया जाने लगा। राजपूत जाति के राजनैतिक नेता दलनिर्पेक्ष हो गए। मारने वालों में कई जातियों के लोग थे। दायर एफआईआर में कुछ राजपूतों को भी हमलावर बताया गया है। एफआईआर के अनुसार हमलावरों में दलित भी थे और ओबीसी का भी एक व्यक्ति था। लेकिन उस कांड का मुख्य अभियुक्त किसी प्रदीप झा को बनाया गया और वह ब्राह्मण है, इसलिए इसे नृशंस हत्या कांड को ब्राह्मणों द्वारा राजपूतों का किया गया नरसंहार करार दिया गया, जो तथ्यात्मक रूप से गलत था।
इस कांड में जाति कोई मुद्दा था ही नहीं। एक तालाब को लेकर दो गांवों के लोगों के बीच में तनाव था। वह तालाब सरकारी है और दो गांवों के बीचोबीच पड़ता है। झगड़ा उस तालाब की मछली को लेकर था। उसकी मछलियों का मालिक किस गांव के लोग हैं विवाद का मुद्दा यही था। वैसे आमतौर पर तालाबों को प्रतिवर्ष या कुछ सालों के लिए प्रशासन द्वारा नीलाम कर दिया जाता है और जो नीलामी में जीतता है, वह उसका मालिक होता है, लेकिन इस तालाब को नीलाम नहीं किया गया था और इसकी मछलियों का कोई खास व्यक्ति मालिक नहीं था। इस तरह से मछली संपदा को खुले किसी मालिक के बिना छोड़ रखना गलत है और इससे संघर्ष को बढ़ावा मिलता है। जाहिर है, इस घटना के पीछे प्रशासन की विफलता भी एक कारण है। यदि उसे नीलाम कर दिया जाता, तो फिर उस पर विवाद होता ही नहीं।
बहरहाल, उस पर विवाद था और वह विवाद भी कोई नया नहीं था। पिछले कई महीने से उसे लेकर तनाव था। संजय सिंह नाम के व्यक्ति को, जिसके तीन बेटे नरसंहार में मारे गए, इस विवाद के चलते जेल भी जाना पड़ा था। घटना के दिन भी वे जेल में ही थे, शायद इसीलिए बच गए, नही ंतो अपने बेटों के साथ साथ वे भी मारे जा सकते थे। पड़ोसी गांव के लोगों ने उनके ऊपर किसी दलित द्वारा एससी/एसटी एक्ट के तहत झूठा मुकदमा दर्ज करवा दिया था, और उसी मुकदमे में वे जेल में थे। जाहिर है कि प्रशासन को पूरा पता था कि तालाब की मछलियों के लिए दो गांवों के लोगों के बीच तनाव है और वहां कुछ भी हो सकता है, लेकिन प्रशासन ने वहां भी हस्तक्षेप नहीं किया। प्रशासन की यहां भी विफलता साफ दिखाई पड़ रही है।
हत्याकांड का दिन होली का दिन था। उसके पिछले दिन संजय सिंह के बेटों ने उस तालाब से मछली निकाली थी और कहते हैं कि पूरे हथियार के साथ वे वहां पहुंचे थे और गोली चलाकर विरोधी गांव वालों को चुनौती भी दे डाली थी कि मछली तो हम ले जाएंगे, जिसे आना हो आ जाए। उस रोज तो लोग नहीं आए, लेकिन पूरी तैयारी के साथ अगले दिन विरोधी गांव के लोग एक बड़ा गिरोह बनाकर संजय सिंह के घर के पास आ धमके और उनके बेटे तथा अन्य लोगों पर हमला करना शुरू किया। आधा घंटे तक वह चलता रहा, लेकिन तीन किलोमीटर दूर थाने से कोई नहीं वहां पहुंचा। कहते हैं कि पुलिस को वहां आने में तीन घंटे लग गए और जो भी नुकसान होना था, हो गया। पुलिस प्रशासन यहां भी विफल रहा।
उसके बाद मामले ने राजनैतिक तूल पकड़ा और राजपूत जाति के नेताओं ने बयानबाजी शुरू कर दी और वे संजय सिंह के गांव पहुंचने लगे। राजस्थान की करनी सेना के लोग तक वहां पहुंचने लगे और खून का बदला खून की बातें वहां होने लगीं। पूरे मामले को राजपूत बनाम ब्राह्मण का रूप दिया जाने लगा और इस बात को छिपाया जाने लगा कि हमला करने वालों में ब्राह्मण ही नहीं, बल्कि राजपूत भी शामिल थे और यह दो जातियां का नहीं, बल्कि गांवों के बीच एक सरकारी तालाब की मछलियो के लिए हो रहे संघर्ष का परिणाम था और इसमें कास्ट कोई फैक्टर नहीं था, भले ही दुर्भाग्य से मारे जाने वालों में सभी राजपूत जाति के लोग थे।
बहरहाल, पुलिस गिरफ्तारियों में सफल हो गई है। अनेक हमलावर पकड़े गए हैं और मुख्य अभियुक्त पंकज झा भी पुलिस की गिरफ्त में आ गया है। लेकिन इस बीच राजनेताओं का रवैया दुर्भाग्यपूर्ण रहा और उन्होंने मामले को शांत करने की बजाय उसे भड़काने का ही काम किया। हालांकि इस तरह की घटना ने यह सवाल जरूर खड़ा किया है कि बिहार में फिर नरसंहारों को दौर शुरू होगा? क्या फिर जातीय हिंसा शुरू हो जाएंगी? बिहार इस तरह की घटनाओं के लिए बहुत बदनाम रहा है, लेकिन पिछले कई सालों से इस तरह की घटनाएं नहीं घट रही हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि बिहार फिर से उस हिंसक दौर में नहीं पहुंचेगा। (संवाद)
बिहार में फिर नरसंहार का दौर होगा शुरू?
मधुबनी के गांव की घटना यह सवाल उठ खड़ा कर रही है
उपेन्द्र प्रसाद - 2021-04-10 09:34
मधुबनी जिले के बेनीपट्टी थाने का एक गांव नरसंहार का गवाह बना। पांच लोगों को वहां एक साथ मार डाला गया। छठा व्यक्ति भी निशाना था, जो अभी जीवन और मौत से अस्पताल में जूझ रहा है। मारे जाने वाले सभी एक ही राजपूत जाति के हैं। मरने वालों में तीन तो एक ही परिवार का है और वह एक ही पिता की तीन संतान थे। वैसे बिहार में हिंसा, हत्या और अपहरण तो आम बात है। कोई भी दिन ऐसा नहीं जाता होगा, जब प्रदेश में किसी की हत्या नहीं की जाती होगी। समाज बहुत हिंसक है और हिंसा होती ही रहती है। लेकिन बेनीपट्टी में जो घटना घटी वह न तो सामान्य किस्म की हिंसा थी और न सामान्य किस्म की हत्याएं, वैसे सभी प्रकार की हत्या समान रूप से निंदनीय है।