उसके पहले हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा हारी थी। हरियाणा में तो जोड़तोड़ कर सरकार बन भी गई, लेकिन दिल्ली में एक बार फिर शर्मनाक हार का सामना मोदी को करना पड़ा। उसके पहले झारखं डमें भी करारी हार का सामना करना पड़ा था। बिहार में स्थिति बेहतर थी, लेकिन वहां नीतीश कुमार का भी योगदान था। इसलिए पिछले दो मई की बंगाल की हार से एकाएक मोदी कमजोर हो गए, ऐसा नहीं कहा जा सकता।

दरअसल, कोरोना संकट शुरू होने के बाद मोदी के इर्द गिर्द बुना तिलिस्म समाप्त होता जा रहा था। उन्हें अवतार पुरूष के रूप में प्रोजेक्ट किया जा रहा था। उन्हें एक ऐसे नेता के रूप में प्रोजेक्ट किया गया था, जिसने हिमालय पर जाकर सिद्धि प्राप्त कर रखी है और जिसके नेतृत्व में भारत और भारत के लोग सुरक्षित हैं। लेकिन कोरोना संकट ने न केवल उनके इस तिलिस्म को धो डाला, बल्कि संकट के दौरान उनका बहुत ही खौफनाक रूप लोगों को नजर आया। करोड़ों विस्थापित मजदूरों का ख्याल किए हुए ही उन्होंने लॉकडाउन घोषित कर दिया और सारी गाड़ियों और रेलगाड़ियों के परिचालन पर रोक लगा दी। उसके बाद आजादी के बाद का सबसे बुरा दौर शुरू हो गया। करोड़ों मजदूरों की दुर्दशा के बीच उन्होंने ताली-थाली बजाने और दीया जलाने का उत्सव मनाना शुरू कर दिया। बैंड बाजा बजाए जाने लगे और हेलिकॉप्ट से फूल बरसाए जाने लगे। चूंकि मीडिया खासकर टीवी मीडिया द्वारा लोगों का ब्रेनबाश कर यह करवाया जा रहा था, तो लोग मजे ले लेकर कर भी रहे थे।

उत्सव मनाने के अलावा कोरोना संकट से लड़ने की जगह उन्होंने जनविरोधी कानून बनाने शुरू कर दिए और इस आपदा का अवसर में बदलने की घोषणा कर दी। ‘आत्मनिर्भर’ शब्द का जुमला फेंका, जो सुनने में तो लगता था कि वे देश को आत्मनिर्भर बनाने की बात कर रहे हैं, लेकिन जिसका असली मतलब लोगों का समझ में आया, तो पता चला कि उनकी ‘आत्मनिर्भरता’ का मतलब लोगों को अपनी हालात के भरोसे छोड़ देना है, जिसमे वे सरकार से कोई उम्मीद न करें। मतलब कि वे जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारियो से मुक्त होने की घोषणा कर रहे थे। उनकी आत्मनिर्भरता का मतलब कोरोना की दूसरी लहर के समय लोगों का समझ में पूरी तरह आ गया, जब कोरोना पीड़ित उसके परिवार ऑक्सीजन, अस्पताल में बेड और दवाइयों के लिए मारे मारे फिर रहे थे और कालाबाजारियों के पौ बारह हो रहे थे।

मोदी को योजनागत विकास से नफरत है। इसलिए उन्होंने पीएम बनते ही योजना आयोग को भंग कर दिया। उन्हें बाजार से प्यार है। इसलिए सबकुछ बाजार भरोसे करना शुरू कर दिया। रेल के रूट से लेकर रेल स्टेशनों तक को बेचना शुरू कर दिया। सारे सार्वजनिक संस्थानों को बेचना शुरू कर दिया। 2014 में उन्हें सरकारी संस्थानों में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए जनादेश मिला था, लेकिन उन्होंने भ्रष्टाचार मिटाने के लिए कुछ तो किया नहीं, उल्टे सरकारी संस्थानों को ही समाप्त करना शुरू किया और बाजार में अपनी निर्मम आस्था का इजहार किया। सरकार जब अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होकर लोगों को बाजार के भरोसे छोड़ देती है, तो बाजार की कोख से ही निकले कालाबाजार कैसे सितम ढाहता है, यह देश 2021 में देख चुका है।

और इस सितम ने मोदी को भाजपा और संघ के समर्थकों के बीच में भी कमजोर कर दिया है। संकट के दौरान मोदी आगे बढ़कर कोरोना के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व करते भी नहीं दिखे। उन्होंने सबकुछ नौकरशाहों के ऊपर छोड़ दिया। नोटबंदी और जीएसटी के दौरान भी उन्होने वही किया था। घोषणा करके वे पलायन करते थे और सबकुछ नौकरशाहों के ऊपर ही छोड़ देते थे। हमारे नौकरशाह कितने सक्षम हैं, इसके बारे में देश के लोगों को पहले से ही पता है। इसलिए एक तरफ नौकरशाह और दूसरी तरफ बाजार और कालाबाजार के बीच में देश की जनता संकट के दौरान पिसती रही है। इसका असर यह हुआ है कि अब नरेन्द्र मोदी की नेतृत्व क्षमता को लेकर ही प्रशासन तंत्र से जुड़े लोगों को संदेह हो गया है। यह संदेह भारतीय जनता पार्टी और संघ से जुड़े लोगों को भी हो गया है। नरेन्द्र मोदी के चुनाव जिताने की क्षमता पर उनका भरोसा था, लेकिन पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु में भाजपा की हुई किरकिरी ने चुनाव जिताने की उनकी क्षमता को भी संदिग्ध बना दिया है।

यही कारण है कि मोदी की पकड़ संघ और भाजपा पर कमजोर हो गई है और वे अपनी इच्छा को पार्टी पर अब थोप नहीं सकते। योगी आदित्यनाथ को भी पता है कि कोरोना की दूसरी लहर के दौरान उत्तर प्रदेश में जो अव्यवस्था फैली, उसके लिए वे कितने जिम्मेदार हैं और मोदी कितने जिम्मेदार है। इसलिए यदि वे पद छोड़ते तो इसका मतलब होता कि सारी जिम्मेदारी वे अपने सिर पर ले रहे हैं, इसलिए पद न छोड़ने की उनकी जिद्द सर्वथा उचित थी। अब उन्हीं के नेतृत्व में भाजपा अगला चुनाव लड़ेगी, लेकिन जीतना लगभग असंभव ही होगा, लेकिन हार के लिए योगी नहीं, बल्कि केन्द्र सरकार की नीतियां ही मुख्य रूप से जिम्मेदार होंगी। (संवाद)