लोकजनशक्ति पार्टी का गठन रामविलास पासवान ने 2000 में किया था। वे उस समय केन्द्र में संचार मंत्री थे और जनता दल(यू) में थे। जदयू के तत्कालीन अध्यक्ष शरद यादव से उनकी नहीं पटती थी और उन्हें लग रहा था कि जदयू में उन्हें वह सम्मान नहीं मिलता, जिसके वे हकदार हैं। वे अपने को शरद यादव से बड़ा नेता मानते थे, लेकिन दल पर पकड़ शरद यादव की ही थी। इसलिए उन्होंने जदयू से अलग होकर अपनी अलग पार्टी बना ली। लालू यादव से तो उनका अलगाव उसी समय हो गया था, जब 1997 में लालू ने जनता दल से अलग होकर अपना एक अलग राष्ट्रीय जनता दल बनाया था। 2005 के फरबरी महीने में हुए विधानसभा चुनाव में जब किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला और लालू का राजद सबसे बड़ा दल था, तब रामविलास पासवान राबड़ी देवी का समर्थन कर राजद से हाथ मिला सकते थे, क्योंकि उनकी लोकजनशक्ति पार्टी को विधानसभा में 29 सीटें मिली थीं, लेकिन पासवान ने राजद से हाथ मिलाने से साफ इनकार कर दिया, जबकि उस समय लालू और रामविलास पासवान दोनो मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्री थे।
दरअसल, रामविलास पासवान और लालू के बीच में प्यार के रिश्ते से कम नफरत का रिश्ता रहा है। सुविधा का ख्याल करते हुए दोनों ने आपस में 2009 के लोकसभा चुनाव और 2010 के विधानसभा चुनाव में हाथ भी मिलाए, लेकिन दोनों के गठबंधन को उन चुनावों में शिकस्त का सामना ही करना पड़ा। हां, इसमें रामविलास पासवान का फायदा जरूर हुआ। 2010 के विधानसभा चुनाव नवंबर में हुए थे। उसके कुछ महीने पहले राज्यसभा का चुनाव हुआ था। लालू यादव ने अपने विधायकों की संख्या के बूते रामविलास पासवान को राज्यसभा का सदस्य बनवा दिया। यदि वे वैसा नहीं करते, तो रामविलास पासवान की 2010 में ही राजनैतिक मौत हो जाती, लेकिन लालू ने रामविलास पर वह उपकार इसलिए किया था, क्योंकि उन्हें 2010 के नवंबर के महीने में होने वाले विधानसभा चुनाव में गठबंधन करना था। रामविलास के दुसाध जनाधार पर लालू को बहुत भरोसा था, लेकिन वह जनाधार लालू के काम नहीं आया। उनकी पार्टी को बहुत ही बुरी पराजय मिली और रामविलास पासवान की पार्टी के हाथ भी दो-तीन सीटें ही लगीं।
इस पृष्ठभूमि में देखा जाय, तो स्पष्ट हो जाता है कि लालू और रामविलास के रिश्तों में वह गर्मी कभी नहीं रही, जिसे याद कर चिराग पासवान तेजस्वी के साथ हाथ मिला लें। लालू और पासवान का रिश्ता बहुत पुराना था। दोनों आपातकाल में जेल गए थे। दोनों पहली बार 1977 में लोकसभा का चुनाव जीत कर आए थे। दोनों एक ही पार्टी में थे। दोनों लोहियावादी विचारधारा के थे। जब जब मौके मिले, दोनों नेताओं ने गरीबों को केन्द्र में रखकर सरकारी नीतियां बनाईं। लेकिन न तो चिराग और न ही तेजस्वी पासवान और लालू की उस लोहियावादी विरासत का प्रतिनिधित्व करते हैं। दोनों अपने अपने पिता की सत्ता के प्रति अगाध मोह के वारिस हैं। और किसी तरह सत्ता में आना और बने रहना ही उनकी राजनीति का लक्ष्य और साध्य है। चिराग पासवान नरेन्द्र मोदी के कारण लोकसभा सदस्य हैं। मोदी लहर पर पर सवार होकर ही न केवल चिराग ने, बल्कि उनकी पार्टी के अन्य लोकसभा उम्मीदवारों ने भी चुनाव जीते थे।
अब चिराग पासवान अपने राजनैतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। इसे जीतने के दो रास्ते हैं। पहला रास्ता है सत्ता और दूसरा रास्ता है संघर्ष। तेजस्वी के साथ जाने का मतलब है संघर्ष का रास्ता चुनना, क्योंकि तेजस्वी खुद सत्ता में आने के लिए संघर्षशील हैं। चिराग में संघर्ष करने का कितना माद्दा है, यह अभी किसी को नहीं पता, क्योंकि उन्होंने संघर्ष अभी तक किया ही नहीं है। शायद खुद चिराग को भी नहीं पता होगा कि वे किस हद तक संघर्ष कर सकते हैं। इसलिए अभी भी उनके लिए सत्ता की सहायता से अपने राजनैतिक अस्तित्व की रक्षा करना एक बेहतर विकल्प है। और यह विकल्प वे मोदी के साथ रहकर ही आजमा सकते हैं। तेजस्वी से हाथ मिलाने का मतलब है, नरेन्द्र मोदी के विरोध में खड़ा हो जाना, जिसके लिए वे फिलहाल तैयार नहीं हैं।
यही कारण है कि चिराग ने साफ साफ कह दिया है कि तेजस्वी के प्रस्ताव पर वे विचार आगामी आमचुनाव के पहले करेंगे। वह चुनाव 2024 में है, जब चिराग खुद अपनी लोकसभा सीट बचाने के लिए चुनाव लड़ेंगे। तबतक वे तेजस्वी से हाथ नहीं मिलाने वाले। उस चुनाव में भी तेजस्वी से वे हाथ तभी मिलाएंगे, जब उन्हें भारतीय जनता पार्टी दुत्कार देगी या जब उन्हें लगेगा कि चुनाव जीतने के लिए तेजस्वी से हाथ मिलाना बेहतर विकल्प है। उसके पहले यदि चिराग संघर्ष भी करते हैं, तो वह संघर्ष नरेन्द्र मोदी को यह दिखाने के लिए होगा कि रामविलास पासवान वाला जाति का राजनैतिक आधार उनके पास आ गया है। जाहिर है, वह संघर्ष नरेन्द्र मोदी या भाजपा के खिलाफ नहीं होगा।
मोदी का समर्थन पाने के लिए चिराग ने अहमदाबाद जाकर प्रधानमंत्री के एक पुराने सहयोगी से बातचीत की। क्या बातचीत की, यह तो पता नहीं। लेकिन अनुमान लगाया जा सकता है कि उन्होंने उस पुराने सहयोगी को कहा होगा कि उन्हें मंत्री बनाने की सिफारिश करें और यदि मोदी उन्हें मंत्री नहीं बनाते हैं, तो उनके चाचा पशुपति पारस को भी मंत्री नहीं बनाएं। पशुपति यदि मंत्री बन गए, तो चिराग बिहार में जनाधार की लड़ाई भी अपने चाचा से हार जाएंगे। (संवाद)
चिराग को तेजस्वी का ऑफर मंजूर नहीं
रामविलास के बेटे के लिए मोदी क्यों जरूरी हैं
उपेन्द्र प्रसाद - 2021-06-30 09:49
राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव बहुत खुश हैं कि रामविलास पासवान द्वारा गठित लोकजनशक्ति पार्टी में फूट पड़ गई है और पांच सांसदों ने मिलकर रामविलास के बेटे चिराग पासवान को दरकिनार कर दिया है। वे बार बार अपील कर रहे हैं कि चिराग उनके साथ जुड़ जाएं। राजद के एक नेता ने तो चिराग को लालू के दल में शामिल होने की अपील भी कर डाली, लेकिन इन अपीलों का कोई प्रभाव चिराग पासवान पर नहीं पड़ रहा है। चिराग पासवान को अभी भी नरेन्द्र मोदी से ही उम्मीद है। वे भारतीय जनता पार्टी और मोदी को उलाहना तो दे सकते हैं कि वे उनकी रक्षा करने को नहीं आ रहे हैं, लेकिन उनकी आलोचना करने की हिम्मत वे नहीं जुटा रहे हैं।