मानसिक संतुलन बनाए रखना कठिन हो गया है क्योंकि आम जीवन की गुत्थियां जितनी बढ़ रही हैं, उतनी ही कठिन होती जा रही है, उन्हें समझ पाना मुश्किल ही होता जा रहा है। आर्थिक और सामाजिक जीवन में असहनीय परिवर्तनों को समझ नहीं पाने के कारण जनता में असहिष्णुता भी बढ़ती जा रही है।

पेट्रोल और डीजल की कीमतों में वृद्धि से जो बढ़ा हुआ राजस्व सरकार को मिलता है, उसे व्यय करने के प्रश्न पर केंद्र का उत्तर था कि यह सारी आय बुनियादी संरचना और विकासशील योजनाओं पर खर्च की जायगी। मार्च के लोकसभा सत्र में यह जानकारी दी गई थी कि पेट्रोल और डीजल के एक्साइज ड्यूटी से 2014-15 में 72,500 करोड़ रुपए तक की राशि केंद्र को मिली थी। यह 2020-21 में 300 प्रतिशत बढ़ गईं, अर्थात अब यह 300 लाख करोड़ तक पहुंच चुकी है। यही नहीं, इस आर्थिक वर्ष में, तेल का राजस्व भी बढ़ चुका है, जो इससे भी अधिक है पेट्रोल और डीजल पर लगे टैक्स से जहां 300 प्रतिशत वृद्धि हुई है, वहीं 2014-15 से आज तक सरकार द्वारा पूंजी निवेश में वृद्धि दस प्रतिशत से भी कम रही है। यह परिस्थिति मोदी सरकार के आने के बाद के वर्षों मे ही हुई है। पैनडेमिक की पहली दो लहरों में ही जनता मृतप्राय हो चुकी है, आर्थिक विकास शून्य में चला गया है। अब तीसरी लहर भयानक अनुभवों का खजाना लिये सामने खड़ी है। पेट्रोल और डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी रूकने की कोई संभावना नहीं है। सरकार इस बढ़ोतरी के लिये औचित्य को साबित करने के लिये युक्तियों की सूची बनाना शुरू कर चुकी है, और इसमें फिर से बुनियादी संरचना और विकास को प्राथमिकता दी गई है।

इस सबके बीच सूत्रों के अनुसार जो हकीकत सामने आ रही है उसमें अप्रैल-जून की तिमाही में बुनियादी संरचना और विकास पर होने वाले खर्च में चालीस प्रतिशत की कटौती ही हुई है। यह जनवरी-मार्च की तिमाही से अधिक है, और इसमें बढ़ोतरी की संभावना है। यह सारी कमियां तब आई हैं जब देश में लॉकडाउन भी नहीं था। आश्चर्य है कि इस सबके बावजूद केंद्र यह दावा करता रहा कि विकास का काम निर्बाध चलता रहा है, जिसमें सेन्ट्रल विस्टा भी शामिल है। यह सारे अन्तर्विरोध आज सार्वजनिक रूप से स्पष्ट हो चुके हें। सत्य और मिथ्या के बीच की खाई कम होती जा रही है। बुनियादी संरचना पर इतना ढिंढोरा पीटने के बावजूद इस पर खर्च में भीषण कटौती की गई है। यह सारी कटौतियां तब हो रही हैं तब तेल के राजस्व में भारी वृद्धि हुई है।े सरकार को इस पर श्वेतपत्र जारी करना पड़ेगा कि 300 प्रतिशत से भी अधिक ईंधन टैक्स राजस्व में वृद्धि को बुनियादी संरचना और जनता के हितों के लिये कैसे खर्च किया गया।

दस घंटो से भी अधिक खटने के बाद भी आधे से भी कम वेतन पर, जो रोजगार में लगे हुए हैं, क्योंकि बेरोजगारी आज भ आसमान ही छू रही है, ऐसी जनता आज प्रत्येक लीटर तेल के लिये सौ रुपए खर्च कर रही है। कर देनेवाली जनता, जिसकी इतनी भी आय नहीं है आज कि वह कम से कम अपने पूरे परिवार की भूख ही मिटा सके, आज यह जवाब मांगने का अधिकार रखती है कि 2020-21 में तेल पर लगे टैक्स को जमा करने के बाद सरकार आज किस मद में खर्च करने वाली है। इस 3.5 लाख करोड़ की राशि, जो कम नहीं है, उसके खर्च का हिसाब देश को आज चाहिए।

इस आर्थिक वर्ष का अंत आते तक यह सारा ब्यौरा जनता तक आना ही चाहिये। यहां यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिये कि पेट्रोल और डीजल पर लिये गए टैक्स में केंद्र ने 65 प्रतिशत तक विशेष शुल्क लिया है जो राज्यों को प्राप्य है, इस सारी राशि को केंद्र ने किसी भी राज्य के साथ साझा नहीं किया है। ऐसी स्थिति में केंद्र के लिये हुए तेल के टैक्स और बुनियादी संरचना में किये खर्च में निजी निवेश का हिस्सा भी कम ही है। इस परिस्थिति में श्वेतपत्र की आवश्यकता और भी बढ़ जाती है, क्योंकि सरकार के तेल टैक्स लेने और बुनियादी संरचना में घोषित खर्च के बीच का संबंध भी स्पष्ट होना जरूरी है यह सार्वजनिक व्यय ही है, निजी नहीं, जो विकास और वृद्धि को देश में आगे ले जाता है। रोजगार की संभावना को भी यही बढ़ाता है। आश्चर्य है कि जब देश की अर्थव्यवस्था ध्वस्त होने की कगार पर है, सरकार यह घोषणा कर रही है कि बुनियादी संरचना पर होने वाला यह खर्च रोजगार बढ़ायेगा और उसके साथ ही आम जनता की आय और मांग भी।

यह घोषणा सरकार इसलिये कर रही है क्योंकि विश्व के अर्थशास्त्री इस संकट की घड़ी में केंद्र से मांग कर रहे हैं कि आम जनता को आर्थिक सहायता मिलना अनिवार्य रूप से जरूरी है। इसके जवाब में सरकार का जवाब है कि आर्थिक सहायता के बजाय सरकार रोजगार की संभावना को प्राथमिकता देती है। करदाता को यह अधिकार है कि सरकार की इस घोषणा के स्पष्टीकरण की मांग करे, कि तेल पर टैक्स जो केंद्र के लिये आया का सबसे अहम स्रोत है, कहां खर्च होता है। अगर हम जनतंत्र में रहते हैं, तो हमें इन सारी समस्याओं पर पूरी तरह स्पष्टता चाहिये। (संवाद)