शुक्रवार, 18 मई 2007
“पिछड़ों को आरक्षण”, “वोट बैंक की राजनीति” और “अन्याय का सवाल”
खंड पीठ ने कहा सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ विचारण करे
ज्ञान पाठक
नई दिल्ली: सर्वोच्च न्यायालय की एक खंड पीठ के कल के आदेश से यह साफ हो गया है कि इस अध्ययन सत्र से देश के उच्च शिक्षा के संस्थानों में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रति शत आरक्षण लागू नहीं हो पायेगा। यह अलग बात है कि अब तक केन्द्र सरकार इसे लागू करने पर आमादा रही है। भारतीय संसद ने इस मामले में कानून बनाकर इसे लागू करने की कोशिश की और इस तरह विधायिका तथा न्यायपालिका के बीच टकराव का एक माहौल भी सृजित हो गया है। राजनीति के कारण भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों के बीच भी संघर्ष बढ़ने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
चाहे जो हो, बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष इस मामले के विचारण के लिए एस संविधान पीठ गठित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया है क्योंकि न्यायमूर्ति अरिजित पसायत और लोकेश्वर सिंह पन्टा की खंड पीठ ने आदेश दिया है कि इस मामले में संवैधानिकता और न्याय के ऐसे मामले दरपेश हुए हैं जिनपर सिर्फ इससे भी बड़ी पीठ ही फैसला दे सकता है। उन्होंने आदेश में कहा कि इस मामले में समुचित फैसले के लिए सारे रिकार्ड मुख्य न्यायाधीश के समक्ष पेश कर दिये जायें।
उल्लेखनीय है कि उच्च शिक्षा संस्थानों में पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा किये गये निर्णय के बाद काफी बखेड़ा खड़ा हो गया था और मामला उसके स्थगन के लिए सर्वोच्च न्यायालय की इस पीठ के पास गया। इस पीठ ने स्थगन आदेश जारी करने के बाद विचारण की प्रक्रिया शुरु की थी कि इस बीच केन्द्र सरकार ने संसद से 93 वां संविधान संशोधन विधेयक पारित करा लिया ताकि न्यायपालिक सरकारी निर्णय में दखल न कर सके।
लेकिन इसी खंड पीठ में इस संविधान संशोधन विधेयक की संवैधानिकता को ही चुनौती दे दी गयी। याचिका में तर्क दिया गया कि संविधान की धारा 15 (5) के तहत भाग तीन में इसे डालना गलत है, क्योंकि कानून की नजर में सभी नागरिक समान हैं तथा जाति, धर्म आदि किसी भी आधार पर नागरिकों के साथ भेद-भाव नहीं बरता जा सकता।
याचिका में इस बात को भी चुनौती दी गयी कि आरक्षण की नीति एक “सकारात्मक कदम” है। “जाति आधारित” आरक्षण या “जाति आधारित सकारात्मक कदम” की परिकल्पना को भी चुनौती दी गयी और कहा गया कि इससे सामाजिक संरचना भी छिन्न-भिन्न होती है और सबको समान न्याय देने की संवैधानिक व्यवस्था भी नष्ट हो जाती है।
याचिका दाताओं ने कहा कि सत्ताधारी वर्ग की पिछड़े वर्ग के लोगों का कल्याण करने संबंधी चिंताएं एक छलावा है जिसके पीछे का मूल उद्देश्य राजनीतिक खेल है जिसे आम तौर पर जनता में “वोट की राजनीति” के नाम से स्वीकार किया जाता है। सवाल है कि क्या राजनीतिक पार्टियों को किसी भी कीमत पर अपने लाभ के लिए वोट की राजनीति करने की खुली छूट दी जा सकती है ?
उधर सरकारी पक्ष ने दलील दी कि समाज के पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए कल्याणकारी कदम उठाना आवश्यक है।
ध्यान रहे कि इसके पहले सरकार से इस खंड पीठ ने पूछा था कि अन्य पिछड़ी जातियों को 27 प्रति शत आरक्षण किस आधार पर दिया जा रहा है? इसके जवाब में सरकारी वकील ने अदालत को बताया था कि 1931 में एक जनगणना की गयी थी जिसमें जातियों की जनसंख्या बतायी गयी थी। उसके बाद 1789 में मंडल आयोग ने विचारण किया था और बताया था कि कौन-कौन सी जातियां पिछड़ी हैं और उन्हें कितना आरक्षण चाहिए। इसपर याचिका दाताओं की ओर से कहा गया कि आज की स्थिति काफी बदल गयी है। अदालत ने इसपर सरकार से पूछा था कि क्या उसके पास कोई ताजा आंकड़ा है? सरकार की ओर से जवाब दिया गया नहीं। सरकार ताजा आंकड़ा एकत्रित करने में रुचि भी नहीं रखती। इसलिए यह नहीं पता है कि आज की स्थिति में पिछड़े कौन हैं।
खंड पीठ ने महसूस किया कि अदालत के समक्ष जो सवाल पेश किये गये हैं उसपर विचारण बड़ी पीठ ही कर सकती है।
खंड पीठ ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय की बड़ी पीठ इस बात पर विचारण करे कि संविधान का 93 वां संशोधन कानून 2005 क्या संविधान की मूल भावना के अनुरुप है ? यह असंवैधानिक तो नहीं और यह संविधान के मूलभूत ढांचे का उल्लंघन तो नहीं करता ?
इसके आगे पीठ ने कहा कि यदि यह अधिनियम वैध है तो इसकी व्याख्या किस तरह हो और इसे लागू किस तरह किया जाये ?
सर्वोच्च न्यायालय की बड़ी पीठ यह भी विचारण करे कि इस अधिनियम के तहत सरकारों को जो विशेष अधिकार दिये गये हैं वे कहीं संविधान की मूलभूत संरचना के खिलाफ तो नहीं है – खंड पीठ ने कहा।
अगला सवाल यह दरपेश हुआ है कि क्या सरकारों के पास बेलगाम शक्तियां हों और वे सामाजिक और शैक्षणिक वर्गों के लिए बिना किसी विशेष परिस्थितियों का वैध और मान्य साक्ष्य पेश किये ही कथित कल्याणकारी कदम उठा सकती हैं ? क्या सरकारें बिना समय सीमा या बिना वस्तुगत सीमा के ऐसे विशेष प्रावधान कर सकती हैं? यदि हां तो यह किस हद तक संविधान के मूलभूत ढांचे का उल्लंघन करता है ?
स्पष्ट है कि अब यह मामला संभवत: पांच सदस्यों या उससे ऊपर की सर्वोच्च न्यायालय की पीठ के पास जायेगा और फैसला आने तक देश के उच्च शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़े वर्ग के छात्र-छात्राओं को आरक्षण के आधार पर नामांकन नहीं हो पायेगा। फिर भी केन्द्र की संप्रग सरकार और विभिन्न राजनीतिक पार्टियां जिस ढंग से गोलबंद हो रहे हैं उससे लगता है कि राजनीति और न्यायप्रक्रिया के बीच, या यूं कहें कार्यपालिका तथा विधायिका एक तरफ और न्याय पालिका दूसरी तरफ रहकर संघर्ष के रास्ते पर चल पड़ें।
इधर पिछड़े वर्ग की राजनीति करने वालों और अगड़े वर्ग के वोट बैंकों के दावेदारों के बीच भी संघर्ष पल रहा है। सामाजिक समता का नारा तो है पर निजी स्वार्थों के बीच टकराव को रोक पाना अब तक संभव नहीं हो सका है। जहां कहीं भी निजी हित की बात आती है लोग खोमों में बंट जाते हैं और न्याय-अन्याय के बारे में सोचना बंद कर देते। ऐसे में समय आ गया है कि न्यायप्रिय लोग खुलकर सामने आयें। #
ज्ञान पाठक के अभिलेखागार से
आरक्षण, राजनीति, अन्याय ...
System Administrator - 2007-10-20 07:17
सर्वोच्च न्यायालय की एक खंड पीठ के कल के आदेश से यह साफ हो गया है कि इस अध्ययन सत्र से देश के उच्च शिक्षा के संस्थानों में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रति शत आरक्षण लागू नहीं हो पायेगा। यह अलग बात है कि अब तक केन्द्र सरकार इसे लागू करने पर आमादा रही है।