1930 की जनवरी के अंतिम रविवार को इसे एक प्रस्ताव के रूप में घोषित किया गया। यह दिन जनवरी 26 का था और इसे ‘‘पूर्ण स्वराज’’ दिवस माना गया। अगस्त 15, 1947 को हमें आजादी मिली और जनवरी 26, 1950 को संविधान अपनाया गया। अंततः जनवरी 26 संविधान दिवस या गणतंत्र दिवस घोषित हुआ और अगस्त 15, स्वाधीनता दिवस। आजादी की लड़ाई भी अपने-आप में अन्यतम थी। इसने पूरी जनता को इस संदर्भ में शामिल होने की प्रेरणा दी। अपने-अपने स्तर पर सभी इस विद्रोह की प्रक्रिया में शामिल थे। अन्याय के खिलाफ यह यु चरणों में चलता रहा। प्रत्येक चरण, अगले चरण के लिये रास्ता खोल देता था। इस तरह इस क्रम में एक जनवादी स्वरूप भी तैय्यार होता गया। आजादी की यह लड़ाई एक बार में उमड़ पड़ने वाली विद्रोह की धारा नहीं थी, न ही यह एक बहुत बड़ी हलचल भर थी, यह तो क्रमिक रूप से सुलगती रही, दुश्मन के हर सुनियोजित खंभों को गिराती हुई, उसकी हर कोशिश पर नजर रखते हुए बढ़ती रही। विद्रोह के इस स्वरूप् को सालों बाद इटालियन कम्युनिस्ट नेता, चिंतक और दार्शनिक एंतोनियो ग्राम्शी ने भी पहचाना और इसकी व्याख्या की। एक शताब्दी से भी अधिक हो गए जब 1857 की पहली आजादी की लड़ाई हमारे भारत में लड़ी गई और इसका नेतृत्व मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने किया। इस संघर्ष का उद्देश्य था आजादी। गुलामी की जंजीरों से पूरा भारत आजाद होकर निकल पाए इसके लिये। यहीं से एक नये युग की शुरूआत होती है।

प्रत्येक क्षणों में यह संघर्ष चलता रहा। एक-एक कर क्रमशः दुश्मन के खंभे गिरते रहे और हर कदम पर राजनैतिक वैचारिक विकास क्रम भी चलता रहा। यह धारा बाधाओं से लड़ती हुई आगे बढ़ती रही। कभी विजय और कभी हार का क्रम चलता रहा। इसी सिलसिले में मजदूर और किसान शामिल होते रहे, और क्रमशः जो एक प्रबु( वर्ग मजबूत हो रहा था, वह भी जुड़ता रहा, जिसमें समाज का मध्यम वर्ग भी था। 15 अगस्त, 1947 को हमें अंततः आजादी मिली। जनवाद, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद का उद्देश्य लिये संविधान 1950 में घोषित हुआ। वैज्ञानिक समझ की बुनियाद पर विभिन्न संस्थानों का जन्म हुआ, जनगण की बुनियादी जरूरतों और रोजगार मुहैय्या करने के लिये सार्वजनिक क्षेत्रों और उपक्रमों की शुरूआत हुई। वर्तमान और आनेवाली पीढ़ियों के लिये शिक्षण संस्थान स्थापित हुए। इस सबके साथ एक सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि तैय्यार हुई। इन कोशिशों में गलतियां भी हुई और हार भी होती थी। चुनौतियां बहुत थीं और पिछड़ने की संभावनाएं भी, फिर भी क्रम चलता रहा। आज शायद वैसा ही समय फिर से आ गया है। हमारी जनवादी परंपराएं चुनौतियों के घेरे में हैं। चारों तरफ बिखराव का माहौल है। समाज विभक्त है।

समाज के छोटे से, अति संपन्न हिस्से को छोड़कर, पूरी जनता आज अभाव की यंत्रणा झेल रही है। बुनियादी सारी जरूरतें मिट नहीं पा रही हैं, यहां तक कि सांस लेने के लिये ऑक्सीजन भी अलभ्य है। पिछले दो सालों से महामारी का कहर चल रहा है और इसमें लाखों लोग शिकार हुए हैं। एक अंतिम सांस के लिये लोग तड़पते हुए जान गंवा रहे हैं, लेकिन निरपेक्षता की भयंकरता कम होने का नाम ही नहीं लेती। कोविड-19 से आक्रांत देश में घोषित मृत्यु संख्या से भी अधिक, लाखों की संख्या में जानें भी गई हैं। विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा मृत्यु सूचनाओं के रिकॉर्ड की पुनः जांच या ऑडिट की मांग आ रही है। भारत की घोषित संख्या 414,000 से कुछ अधिक है जो हमें दुनिया में तीसरे स्थान पर रखता है। प्रथम दो देश अमेरिका और ब्राजील हैं। इसी माहौल में दूसरे क्षेत्र भी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, यहां तक कि संविधान द्वारा घोषित बुनियादी अधिकार भी आज खतरे में है।

अंत के कहीं आसार भी नहीं नजर आते। पूरे देश में जीवन स्तर गिरता जा रहा है, हर महीने कीमतों में वृद्धि जो पेट्रोल और डीजल के बढ़ते दामों से जुड़ा है। आधा पेट भोजन, घंटों की कड़ी मेहनत के बाद आधे से भी कम वेतन पर मजदूर खट रहे हैं, और यह भी कि ऐसी नौकरियां भी दुर्लभ होती जा रही हैं। लेकिन यह भी सच है कि इसी अभाव से आज सवाल भी पैदा हो रहे हैं। अव्यवस्था, अन्याय, और आम जनता के असीम कष्टों के प्रति प्रचंड निरपेक्षता पर आज प्रश्न चिन्ह लग चुके हैं। किसानों का आठ महीनों से चल रहा धरना उसी का एक उदाहरण है। असीम धैर्य लेकर किसानों के साथ ही जुड़े अन्य सभी अभावग्रस्त तबके, हर उम्र की महिलाएं और पुरुष दिल्ली के बॉर्डर पर धरने पर तो बैठे ही हैं, संसद के सामने बैठकर अपनी संसद भी चला रहे है और अपनी मांगें उठा रहे हैं।

वर्ग संघर्ष के इतिहास का नया आयाम, निष्ठुर शोषण का यह दौर वित्तपूंजी की ओर ही बढ़ता जा रहा है। आज कोई भी उत्पादन से जुड़ा निवेश नहीं हो रहा, बैंक भी औद्योगिक पूंजी के साथ समझौता कर चुके है। विपन्नता के इस दौर का अंत अभी भी दूर ही जान पड़ता है। इस सबके साथ ही हमारी नितांत व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर भी आक्रमण है। हमारी विचारों की स्वतंत्रता, अपने निष्कर्षों पर चलने की आजादी पर अंकुश लगाने की कोशिश है, जो जनवाद की रीढ़ होती है। उस पर पेगासस नामक जासूसी यंत्र को इजरायल के एनएसओ नामक ग्रुप से किराये पर लिया गया था। इस सारी कोशिश के पीछे मजबूत समर्थक शक्तियों के होने के बावजूद आज इस सबको कटघरे में लाने की कोशिश शुरू हो चुकी है, इसलिये शायद उम्मीदों की किरण दिखाई दे रही है। (संवाद)