इसका प्रभाव रोजगार पर पड़ा। संभावनाएं भीषण रूप से कम होती गई। तनख्वाहें कम होती गईं। श्रम के कानूनों को कठिनतर बनाते रहे। सर्वहारा फिर से जंजीरों में जकड़ता रहा। धारा यहीं नहीं रूकी। निर्धनता की चरम सीमाएं मध्यम वर्ग को भी अपनी जद में लेती रही। जिनके पास पेट भरने के अलावा बच्चों की अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं की सुविधाएं उपभोग करने लायक अर्जनशक्ति हुआ करती थी, उनके लिये अब यह सब विलासिता भर में बदलती जा रही है। सिवाय कुछ उच्चतम तबकों को छोड़कर जिनमें कइयों के नाम विश्व के सर्वाधिक धनी चौदह लोगों में भी आ चुका है, बाकी सभी अभाव और दुर्दशा के अंधकार में डूबते जा रहे हैं। क्या हमें अब मनुष्य, कहलाने का भी अधिकार नहीं रहा! देश की राजधानी में नौ साल की बच्ची की, स्वाधनीता दिवस से सिर्फ चंद दिनों पहले अस्मत लूटी जाती है, फिर असहनीय अत्याचार की यंत्रणा दी जाती है, और अंत में उसकी हत्या की जाती हैं। जब माता-पिता अपनी इस एकमात्र संतान पर हुए चरमतम अन्याय की रिपोर्ट पुलिस में लिखवाने जाते हैं, तो वहां भी उन्हें इंकार ही मिलता हैं वह तो जब इस पर तीव्र प्रतिक्रिया हुई, तो व्यवस्था की आंखें खुलीं।

क्या यही वह देश है जिसकी आजादी के लिये हम संघर्ष करते रहे, जान देते रहे? हमारे संविधान की बुनियादी शर्तों से भी हम दूर ही तो हो रहे हैं। हमारी जनवादी व्यवस्था, जो घायल और टूटी पड़ी है, क्या यही हमारी नियति थी? वह दूरदृष्टि जिसके साथ हम राष्ट्र निर्माण में लगे थे, क्यों लुप्त हो गई? इस आजाद देश के नागरिक हैं हम सब, और हमें ही अपनी जनतांत्रिक व्यवस्था को बचाना होगा, अपनी संस्कृति, उसकी बहुलता में एकता को संजोना होगा। कष्टों के दिन खत्म ही नहीं होते। ये तब भी था जब आजादी के लिये लड़ रहे थे। महात्मा गांधी की हत्या हो गई थी, इसीलिये नहीं कि वे एक संत थे, बल्कि इसलिये कि वे हमारी गंगा-जमुनी संस्कृति को बचाए रखने की हर कोशिश में लगे थे। हिन्दू और मुसलमानों के भाईचारे और स्नेह में कोई भी बाधा उन्हें स्वीकार नहीं थी। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि अगर अहिंसा की आड़ भीरूओं के लिये छुपने की जगह बन जाती है, तो फिर जनता को ही अपने ‘‘पवित्र आक्रोश’’ में इन सभी चुनौतियों को भष्म कर देना होगा। उन्होंने कहा था जनवाद का जनता ही निर्माण कर सकती है।

गांधी जी नहीं रहे। लेकिन राष्ट्रनिर्माण चलता रहा। कंस्टीट्यूएंट असेम्बली बनी। इसके सदस्यों में अन्यों के साथ अत्यंत लोकप्रिय कम्युनिस्ट नेता सोमनाथ लाहिड़ी, जो पश्चिम बंगाल से थे और हसरत मोहानी, जिन्होंने सबसे पहले देश की पूरी आजादी की मांग की थी, और पूर्व कम्युनिस्ट भी थे, इसमें शामिल थे। संविधान की रूपरेखा तैयार हुई और संपन्न होने के बाद 26 जनवरी, 1950 में अपनाई गई। पहली बार, देश को अपनी खोई हुई पहचान मिली। यह पहचान बराबरी, धर्मनिरपेक्षता, जनवाद और समाजवाद की बुनियाद पर बनी थी। मताधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे बुनियादी अधिकारों की सूची में शामिल थे। दिशा निर्देश के लिये भी संविधान में प्रविधान था। 1952 में पहली बार आजाद देश में चुनाव हुए। कम्युनिस्ट पार्टी प्रमुख विरोधी पार्टी के रूप में चुनी गईं। कांग्रेस प्रमुख पार्टी के रूप में चुनी गई जिसे ‘‘धर्मनिरपेक्षता की जीत’’ माना गया। दक्षिणपंथियों ने भारतीय जनसंघ, हिन्दू महासभा और रामराज्य परिषद के साथ मिलकर इस चुनाव को लड़ा। लोकसभा की 543 सीटों में उन्हें सिर्फ सात ही सीटें मिल पाईं संविधान बन जाने के साथ ही राष्ट्र निर्माण का कार्य शुरू हुआ। जनवाद को राजनैतिक ओर आर्थिक बुनियाद पर, विकसित करने की कोशिश चलती रही। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक विचित्र-सी समझदारी फैलाई गई थी कि भारतीय जनता को ‘‘जनवाद से अधिक भोजन की थाली’’ संतुष्ट करती है क्योंकि भुखमरी और अभाव हमें ब्रिटिश शासन से विरासत में मिले थे। लेकिन पहले ही चुनाव में इस भ्रम को तोड़ दिया गया जब जनता ने भूखे रहने के बावजूद जनवाद को ही चुना। राष्ट्रनिर्माण में, निःशुल्क स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा के लिये अत्यंत ही कम शुल्क, और यही स्कूल और उच्च शिक्षा के लिये भी लागू था, मेडिकल, इंजीनियरिंग कॉलेज और इस सबके साथ सार्वजनिक क्षेत्रों का भी विकास किया गया। देश में औद्योगिकीकरण और ऊपरी ढांचे के विकास के लिये कदम उठाये गये। रोजगार के दरवाजे खेले गए। निवेश के लिये धन जुटाने के लिये औद्योगिक बैंक खोले गए। विज्ञान और साथ ही ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में विकास चलता रहा।

1957 में, देश की पहली और विश्व में दूसरी कम्युनिस्ट सरकार केरल में आई। सारी बाधाओं के बीच एक जनवादी चेतना का विकास चलता रहा। इस राह पर विफलताएं भी आई पर साथ ही सफलताएं भी मिलती गईं। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इस सबके साथ ही दक्षिणपंथ का भी विकास होता रहा। विश्व स्तर पर साम्राज्यवादी देश आपस में बंटे हुए थे, और साथ बाजार भी। जहां भी प्रगतिशील ताकतें सिर उठाने की कोशिश कर रही थीं, उन्हें कुचलने की कोशिशें भी होती रहीं। क्रमशः प्रगतिशील, जनवादी ताकतों का विकास होता गयज्ञं साम्राज्यवाद के आक्रमण पर रोक भी लगती रही। लैटिन अमेरिकी देश इस सकारात्मक परिवर्तन के उदाहरण बने, जिसमें शक्ति संतुलन का एक नया रूप बन रहा था। इस सबके साथ ही विज्ञान आगे बढ़ता रहा, उत्पादन के साधन विकसित होते रहे। औद्योगिक पूंजी जो निवेश और उत्पादन पर टिके हुए थे, वे भी क्रमशः पुराने पड़ते जा रहे हैं। विशाल मशीनों की दुनिया अब नेपथ्य में जा रही हैं, मुख्य भूमिका में, हल्के, छोटे उत्पादन के उपकरण उपलब्ध होते जा रहे हैं। हम एक डिजिटल दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं, जो कम बजट और विशाल स्तर पर उत्पादन की दुनिया में जड़ें जमा रही है, और कॉरपोरेट जगत को भी चुनौती देने में सक्षम हो रही है।

बाजार का विस्तार द्वन्द्ववादी गति से चल रहा है। एक तरफ, वह हमारी चौखट तक आ गया है, तो दूसरी तरफ, विश्व के हर कोने तक यह अपनी पहुंच बना रहा है। यह पूरी विकास प्रक्रिया तीव्र गति से आगे बढ़ते हुए अपने आपमें एक ताकत बनती जा रही है।

तकनीकी विकास ऐसी अकल्पनीय सीमा तक पहुंच चुका है, जहां इक्कीसवीं सदी के एक दशक में हम उतना उत्पाद कर लेते हैं, जितना पूरी पिछली बीसवीं सदी में किया था। समाज का हर हिस्सा इतनी तेजी से विकसित हो रहा है कि यथार्थ और प्रतिबिम्ब की सीमाएं भी मिटती जा रही है। यहां तक कि हाथ के मोबाइल फोन का कीबोर्ड भी एक प्रतिबिम्ब की तरह ही, एक ही स्पर्श से उजागर हो जाता है। ऐसी बुनियाद पर पुरानी व्यवस्था का ढांचा नहीं चल सकता। अब हमें जनवाद के भी एक अति विकसित रूप की प्रतीक्षा है। (संवाद)