मंत्री जी आप अच्छी तरह जानते हैं कि इसका फायदा कौन उठाया? ज्यादा उपज का लाभ शहरी उपभोक्ताओं को क्यों नहीं मिला? खेत में 80 पैसे किलो और शहर आते-आते 8 रुपये किलो। त्रासद तो यह है कि कृषि मंत्री माननीय शरद पवार जी की नजर इस आलू पर क्यों नहीं पड़ी। पिछले तीन माह से उन्होंने जिस वस्तु को लेकर संसद से सड़क तक में नाम भर लिया नहीं, कि उसके भाव आसमान पर पहुंच गए। चीनी, आटा, चावल और दाल इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। लेकिन शरद पवार को आलू का नाम लेना क्यों गवारा नहीं हुआ, इसलिए कि इससे किसानों को कुछ ‘लाभ’ मिल जाता और बिचौलिये और कारपोरेट सेक्टर को 10 पैसे किलो आलू खरीदने में कठिनाई हो जाती? आखिर कारपोरेट कंपनियों का घाटा मंत्री महोदय कैसे बर्दाश्त करते? किसान की नियति में ही रोना धोना लिखा है उसके लिए मंत्री और सरकार किस काम की। गन्ना किसानों को कथित मूल्य बढ़ोतरी का हवाला देकर चीनी मिल मालिकों को संसद तक में दाम बढ़ाते रहने की हिमायत और वकालत करने वाले शरद पवार को प्रधानमंत्री कैसे बर्दाश्त कर रहे हैं, देश की जनता तो उन्हें मंत्री लायक भी नहीं समझती। ऐसा मंत्री आखिर कैसा जनकल्याण का कार्य कर रहा है जिसकी बातों में ही महंगाई बढ़ाने और कारपोरेट को लाभ पहुंचाने की ‘दोधारी बयान’ हो। और जब बात किसानों के हित की आए तो उसे केवल अंगूर और कपास के किसान ही नजर आते हैं। उसे भी कीमतों के मामलों में भला नहीं कर पाता है यह मंत्री। हां, चीनी मिल मालिकों, शराब, बीयर निर्माताओं और अन्य उद्योगपतियों की व्यथा-कथा संसद में बयान करने में शर्म नहीं आती उसे।
किसान, खेती और सरकार तीन ऐसे शब्द हैं जो पिछले छह माह में अखबारों, टीवी चैनलों और यहां तक कि इंटरनेट पर भी लाखों बार आए होंगे। चर्चा परिचर्चा से लेकर सरकार और उसकी मंत्री की कारगुजारियों को उजागर करने में किसान शब्द का खूब प्रयोग हुआ है। महंगाई की जितनी बार चर्चा हुई है उतनी बार शायद खेती की भी चर्चा हुई ही होंगी। इसी के साथ कृषि मंत्री शरद पवार भी आए हैं। संसद के शीत सत्र के दौरान महंगाई पर चर्चा के दौरान सत्ता पक्ष के सदस्यों के अलावा विपक्ष के सदस्य भी नदारद थे। स्थिति यह उत्पन्न हो गयी कि जिस विपक्षी सदस्य ने यह मुद्दा उठाया था वह चर्चा के दौरान गायब पाया गया। सदस्यों की एक तिहाई संख्या नहीं होने के कारण कार्यवाही का कोरम पूरा करना भी मुश्किल हो गया। तो यह हाल था महंगाई पर चर्चा के दौरान हमारे विपक्षी सदस्यों का जो सड़क पर महंगाई को लेकर चिल्ल-पों मचाए हुए थे। आज चार माह बाद जब बजट सत्र चल रहा है तो बहस के लिए उपस्थित सदस्यों की संख्या चिंतनीय हालत में पहुंच गयी है। कई बार लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने मौखिक और लिखित संदेश माननीय सदस्यों के नाम जारी किया लेकिन हमारे नेताओं की मोटी चमड़ी पर इसका कोई असर नहीं हुआ। बहरहाल आते हैं महंगाई से किसानी के मुद्दे पर।
राजनीति के लिए किसान और खेती कितना जरूरी हो गया है इस बात की कल्पना ही नहीं हकीकत को भी देखा परखा जा सकता है। लगभग सभी राजनीतिक दलों के लिए महंगाई जनहित के खिलाफ है। किसानों को उसके फसल का उचित मूल्य नहीं मिलने से नेताओं की कथित घड़ियाली आंसू अब महंगे होते जा रहे हैं। क्योंकि जब जरूरत होती है वे किसानों के लिए कुछ करते नहीं हैं। गन्ना मूल्य बढ़ोतरी की मांग को लेकर जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश से किसान दिल्ली की सड़कों पर उतरे तो अगले ही दिन केंद्र सरकार ने गन्ना का मूल्य बढ़ा दिया। लेकिन चीनी की महंगाई ने जो तेवर दिखाए उससे लगा कि हमारे कृषि मंत्री चीनी मिल मालिकों को घाटे के भरपाई के लिए पूरा मौका देकर लूटने की छूट दे रखे हैं। एक बारगी चीनी के मूल्य 50 रूपये किलो से आगे पहुंच गये। यही नहीं शरद पवार ने संसद में मिल मालिकों की व्यथा सुनाई और कहा कि आने वाले दिनों में चीनी के दाम और बढ़ेंगे यानी मिल मालिकों की चांदी ही चांदी। कृषि मंत्री ने यह नहीं कहा कि गन्ने से केवल चीनी ही नहीं बनती बल्कि हजारों उत्पाद बनते हैं जिसमें सबसे महंगी वस्तु शराब भी शामिल है। आखिर गन्ने का मूल्य केवल चीनी के मूल्य से ही क्यों निर्धारित किया जा रहा है?
हमारा देश इस मामले में अनोखा है कि यहां का कृषि मंत्री किसानी और खाद्य सुरक्षा को छोड़कर बाकी सभी काम बहुत ही बखूबी और शिद्द से करता है। यानी क्रिकेट खेलने से लेकर सट्टेबाजों को प्रोत्साहन देना, आईपीएल ब्रांड का इजाद और अपने लोगों को पूंजी निवेश के भरपूर अवसर देना। आदि आदि। कृषि मंत्री की कृपा से ही इस देश के बिचौलिए और वायदा कारोबारी घंटों में हजारों के वारे-न्यारे कर जाते हैं जबकि देश का हाड़तोड़ मेहनता करने वाला किसान अपना शरीर जलाकर और गलाकर भी अपने फसल का उचित मूल्य नहीं पाता। आलू किसानों की दुर्दशा इस साल की ज्वलंत और संवेदनशील उदाहरण है। अब जब अगले साल आलू 40 रूपये किलो बिकेगा तो कृषि मंत्री कहेंगे कि किसानों ने फसल नहीं बोयी इसलिए दाम बढ़ गए। तो किसानों की समस्या जब आलू को खेत से निकालने की है तो उस समय कोई मंत्री, सरकार, बहुराष्ट्रीय कंपनियां या वायदा कारोबारी सामने क्यों नहीं आता। कहां हैं, सब। केवल बाजार में मूल्य बढ़ाते रहने और बिचौलियों को भरपूर फायदा पहुंचाने के लिए ही हैं ये सब। ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगा यह खेल।
कहां हैं सरकार और हमारे कृषि मंत्री शरद पवार?
शशिकान्त सुशांत - 2010-05-13 08:12
पिछले साल किसानों ने आलू नहीं बोया परिणामतः 45 रुपये किलो आलू बिक गया यह अनमोल रत्न, इस देश में। इसी भाव के लालच में किसानों ने इस बार कुछ ज्यादा बुआई कर दीं परिणाम 25 पैसे किलो भी किसी बहुराष्ट्रीय चिप्स बनाने वाली कंपनी के लिए खरीदना गवारा नहीं रहा। देश की राजधानी और इसके सटे इलाकों के बाजारों में आलू के भाव 7-8 रूपये से कम नहीं हुए। कस्बों और गांवों में इसके भाव 5 रूपये पर टिके रहे। खेत में आलू का भाव 50 पैसा किलो था हद से हद एक रूपये किलो और बाजार में कम से कम 5 रूपये किलो यह राष्ट्रीय औसत है।