बात सही है। भ्रमित व्यक्ति का कल्याण हो भी कैसे? यह तो संभव ही नहीं। इसलिए महाभारत के युद्ध से ठीक पहले, युद्ध के मैदान में ही, अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण ने साफ-साफ कहा - तपस्वियों से श्रेष्ठ योगी है, योगी ज्ञानियों से भी श्रेष्ठ है, निरन्तर कर्म में प्रवृत्त (लोगों) से भी योगी श्रेष्ठ है, इसलिए अर्जुन, तू योगी बन। सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद् गीता के सात सौ श्लोकों में योग शब्द 84 बार आया है, और इस पद के साथ इनसे अलग अनेक श्लोक सीधे-सीधे योग सम्बंधी अर्थ ध्वनित करते हैं। अट्ठारहों अध्यायों के अन्त में जहां अध्याय के नाम हैं वहां भी उस नाम के साथ योग शब्द जुड़ा है - जैसे सांख्ययोग, कर्मयोग, भक्तियोग, मोक्षसन्यासयोग आदि। इतना ही नहीं 'ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे' शब्दावली का प्रयोग किया गया है। अर्थात् ब्रह्मविद्या में यह योगशास्त्र है।

दुर्भाग्य की बात यह है कि अधिकांश लोग योग से इतर व्याख्याओं को ही पढ़ते हैं, योग से इतर प्रवचन करते हैं, योग से इतर व्याख्याएं सुनते हैं, और हद तो यह कि योग से इतर ज्ञान का प्रयोग केवल बुद्धि विलास के रूप में करते हैं। उसका परिणाम भी उन्हें मिलता है - उनका कल्याण नहीं होता जबकि स्वयं श्रीमद्भगवद्गीता में तथा तंत्र साहित्य में मिलने वाले गीता महात्म्य में निश्चित रूप से कल्याण होने अथवा निःश्रेयस की प्राप्ति की बात कही गयी है। स्वयं महर्षि व्यास, जो इसके रचयिता हैं, ने मानवमात्र (चाहे उसकी वर्तमान अवस्था कुछ भी हो) के कल्याण के लिए इसकी रचना की थी। उनके लिए यह महत्वपूर्ण नहीं था कि साधक किस धर्म को मानता है, साधक किस जाति का है, साधक विद्वान है या नहीं, साधक धार्मिक है या नहीं आदि आदि। मानवमात्र के कल्याण का अर्थ सबका कल्याण था, बिना किसी भेद-भाव के। इसी लिए वह कहा करते थे - मैं दोनों हाथ उठाकर कहता हूं कि एक मात्र सदाचार से ही धर्म, अर्थ तथा काम तीनों की प्राप्ति हो सकती है, फिर तुम सदाचार करते क्यों नहीं, परन्तु मेरी सुनता कौन है! वास्तव में उनकी सुनता कौन है? श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने के बाद भी कल्याण नहीं हुआ! आखिर चूक कहां हुई? इस प्रश्न का उत्तर श्रीमद्भगवद्गीता में ही है।

सर्वप्रथम महर्षि व्यास के सदाचरण से ही हमें यह खोज प्रारम्भ करनी चाहिए। योगशास्त्र के रूप में श्रीमद्भगवद्गीता पर चर्चा तो इसके बाद ही हो सकती है क्योंकि व्यक्ति अपने पास आये धन एवं ज्ञान का प्रयोग अपने आचरण के अनुरूप ही करता है। आचरण अच्छा न हो तो वह धन और ज्ञान का दुरुपयोग कर स्वयं को नष्ट कर लेता है तथा आचरण अच्छा हो तो स्वयं का कल्याण कर लेता है।

एक रचनाकार के रूप में महर्षि व्यास के इस मर्म को जानने वाले उनके पांच प्रमुख शिष्यों में से एक वैशम्पायन ने जब अर्जुन के प्रपौत्र जनमेजय को यज्ञ के दौरान महर्षि व्यास की उपस्थिति में जय (महाभारत का मूल ग्रंथ) की कथा सुनायी थी तब उन्होंने कैसे पढ़ना है उसकी विधि भी बता दी थी। उद्देश्य यह था कि आचरण में सुधार के साथ ही यह प्रक्रिया प्रारम्भ होनी चाहिए।

इसलिए उन्होंने कहा कि नारायण (नरों की नियति के स्वामी ईश्वर) को नमस्कार करने के बाद, नरों (मनुष्यों) को, नरोत्तम अर्थात् जो मनुष्यों में उत्तम हैं उनको, ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती को, एवं इसकी रचना करने वाले व्यास को नमस्कार कर जय का पाठ करना चाहिए। यह सलाह अद्भुत है। विनयशीलता तथा सम्मान की भावना की स्थापना इससे तत्काल हो जाती है। विनयहीनता तथा अपमानित करने के भाव के रहते हुए तो व्यक्ति स्वयं का कल्याण कर ही नहीं सकता। सदाचरण का यही प्रस्थान बिन्दु है। प्रस्थान त्रयी में से तीसरा प्रस्थान बिन्दु अर्थात् श्रीमद्भगवद्गीता को प्रारम्भ करने की यह पूर्व शर्त है। व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि वह स्व कल्याण के लिए स्वयं को ऊपर उठाये। विनयहीन बनकर तथा सम्मानहीनता का भाव रखकर स्वयं को नीचे न गिराये। जब ऊपर उठने की यह दिशा सुनिश्चित हो जाये तब वह श्रीमद्भगवद्गीता को पढ़ना प्रारम्भ करे।

यहां पुनः याद रखना चाहिए कि मनुष्य की वर्तमान अवस्था चाहे जो भी हो, वह ईश्वर को मानता हो या नहीं मानता हो, वह श्रीकृष्ण को भगवान न मानकर किसी अन्य को ही भगवान क्यों न मानता हो, पापी भी क्यों न हो, इत्यादि, उसका कल्याण श्रीमद्भगवद्गीता से ही सुनिश्चित है।

अब योगी बनने की प्रक्रिया का प्ररम्भ होता है। परन्तु प्रारम्भ के पूर्व कुछ और बातें जान लेनी चाहिए। जैसे गीता को गा कर पढ़ा जाये। यह इसलिए कि व्यक्ति को अनुशासन में ढालने का यह सबसे सहज तरीका है। ध्वनि के अनुशासन से प्रारम्भ होने वाली यह प्रक्रिया स्वयमेव अर्थ, भावार्थ, गूढ़ार्थ, मर्म, और अन्ततः सबसे रहस्यपूर्ण तहखाने तक का द्वार खोल देती है, और व्यक्ति उस रहस्य को स्वयं जान या आत्मसात् कर लेता है जिससे निःश्रेयस (परम कल्याण) की प्राप्ति स्वयमेव हो जाती है। परन्तु जिन लोगों को गाने में संकोच होता हो, वे मन ही मन इसके गायन से प्रारम्भ कर सकते हैं। कैसे गाना है यह श्रेष्ठ जनों के मुख से भी सुनें, परन्तु गायकों के मुख से नहीं। ज्ञान नहीं होने के कारण अधिकांश गायक अर्थ का अनर्थ कर देते हैं। यदि गायक श्रेष्ठ ज्ञानवान व्यक्ति भी है, तो उन्हें सुनें। इसे योगियों के मुख से सुनें। इसे अपने गुरु के मुख से सुनें। बुद्धि विलास में लगे रहने वाले लोगों के मुख से इसे न सुनें। यदि श्रेष्ठ व्यक्ति उपलब्ध न हो तो स्वयं गायें तथा निम्न बातों का ध्यान रखें, परन्तु जिनके आचरण अच्छे नहीं उनके मुख से कदापि न सुनें, न गायन और न उनकी व्याख्या।

आप श्लोकों के अन्वय (पदच्छेद) तथा प्रत्येक शब्द का अर्थ छपी पुस्तक रखें तो उत्तम होगा, क्योंकि पढ़ने में कठिनाई होने पर उससे सहायता मिलती है, और उससे अर्थ के मर्म तक स्वयं पहुंचने में सहायता मिलती है, तथा गलत या स्वयं के मानसिक स्तर के अनुकूल व्याख्याओं को पढ़कर भटकने का खतरा नहीं रह जाता। परन्तु जब श्लोकों को गायें तो अन्वय को न गायें बल्कि श्लोकों को जैसा लिखा गया है वैसा ही गायें। गाने में शास्त्रीय संगीत का अनुशासन आवश्यक नहीं। भाव संगीत का अनुशासन पर्याप्त है। अर्थात् श्लोंकों में जो भाव हैं उस भाव को अभिव्यक्त करने के लिए ध्वनि या स्वरों का जैसा आरोह-अवरोह होना वांछित है वैसा ही गायें। इसे और सरल रूप से यों समझें - जहां विषाद की अभिव्यक्ति है वहां आपके गायन में विषाद आना चाहिए, जहां चिंता है वहां चिंता, जहां निर्देश है वहां निर्देश, जहां अनुरोध है वहां अनुरोध आदि का भाव आपके गाने में आना चाहिए।

स्वयं ही इसका गायन करने वालों के लिए उच्चारण सम्बंधी कुछ बातें महत्वपूर्ण हैं, विशेषकर उनके लिए जो संस्कृत का उच्चारण नहीं जानते। शब्द का जैसा रूप है उसे उसी रूप में पढ़ें, तोड़कर न पढ़ें, जहां ह्रस्व है वहां लघु तथा जहां दीर्घ है वहां दीर्घ उच्चारण ही करें, जैसे अकार, आकार, ह्रस्व इकार, दीर्घ ईकार आदि। अ, इ, उ, ऋ, तथा लृ का उच्चारण लघु होता है। आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ का उच्चारण दीर्घ होता है।

विसर्ग (:) का उच्चारण आधे ह की तरह होता है, तथा पीछे वाला स्वर गुरू हो जाता है।

व्यंजनों का उच्चारण बिना स्वर का नहीं होता परन्तु एक व्यंजन के आगे दूसरा व्यंजन आये तो पहले व्यंजन का स्वर स्वयं लघु हो जाता है तथा दूसरे का गुरू।

अर्ध अक्षरों का उच्चारण आधा ही होता है।

अनुस्वारों के उच्चारण में ध्यान देने योग्य बात है - क, ख, ग, घ से ठीप पहले अनुस्वार हो तो उसका उच्चारण ङ हो जाता है। उसी तरह च, छ, ज, झ के मामले में ञ; ट, ठ, ड, ढ के मामले में ण; त, थ, द, ध के मामले में न; प, फ, ब, भ के मामले में म का उच्चारण होता है। य, र, ल, व, श, ष, स, तथा ह के मामले में शुद्ध अनुस्वार का उच्चारण नासिका से होता है।

श, ष, तथा स का उच्चारण तालु, मूर्धा, तथा दन्त से होता है, जिसके कारण इसे तालब्य श, मूर्धन्य ष तथा दन्त स कहते हैं।

जिनके उच्चारण के बारे में यहां नहीं लिखा गया है उसे किसी श्रेष्ठ तथा ज्ञानवान व्यक्ति से सीखें। उच्चारण पर सर्वाधिक बल इसलिए दिया जाता है क्योंकि ये ध्वनि जीवन में सर्वाधिक भूमिका निभाते हैं - आध्यात्मिक जगत में भी तथा भौतिक जगत में भी।

श्रीमद्भगवद्गीता को अधिभौतिक, अधिदैविक से पहले अध्यात्मिक रूप में लेना चाहिए, अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि के एक प्रतिरुप स्व या आत्म रूप में। योग में इसका अर्थ यह हुआ कि अधिभौतिक जगत में जो कुछ घटित होता है वह सब अध्यात्म जगत में स्वयं में ही घटित होता है। स्वयं के सबसे निकट स्वयं ही तो है, इसलिए स्वयं के कल्याण के लिए पहले स्वयं से साक्षात्कार करना होता है, उसके बाद इस सम्पूर्ण सृष्टि से। परन्तु यहा से आगे प्रस्थान करने से पूर्व एक और बात को ध्यान में रखना चाहिए कि अपने गुरू, जिनसे आप सीखें, उन्हें विधि पूर्वक गुरुदक्षिणा देना न भूलें। आपने गुरू से लिया परन्तु दिया कुछ नहीं। व्यक्ति का यह आचरण सम्बंधी पतन है, जिसे स्वीकार न करें क्योंकि ऊपर उठना आपका उद्देश्य है, नीचे गिरना नहीं। वह रहस्य आपको श्रीमद्भगवद्गीता के स्वाध्याय के समय स्वयं मालूम हो जायेगा जिसके कारण आप समय आने पर अपने ज्ञान का उपयोग कर सकेंगे, अन्यथा सारा का सारा ज्ञान धरा का धरा रह जायेगा, आपके काम नहीं आयेगा और आपका कल्याण नहीं हो पायेगा।

अब आप गीता के अध्ययन में प्रवृत्त हों। पहला अध्याय है अर्जुनविषादयोग। इस बात को हमेशा याद रखें कि गीता एक योगशास्त्र है और आप योग की प्रथम अवस्था में प्रवेश कर रहे हैं। आपको हमेशा यह भी ध्यान रखना है कि आप अध्यात्म के मार्ग में है, अधिदैविक या अधिभौतिक मार्ग पर नहीं। इसलिए आपको सर्वथा, हर समय, इसी आत्म (स्व) के सापेक्ष ही स्थित रहना है। स्वयं अपने अन्दर।

यह जो धनुर्धर है वह आप स्वयं हैं। अपने मेरूदंड को ध्यान करें धनुष के आकार का है, ब्रह्मनाड़ी इसकी प्रत्यंचा है, जो सुषुम्ना के अन्दर परिकल्पित है। ये जो कृष्ण हैं, जिन्हें इस ग्रंथ में योगेश्वर कहा गया है, जो धनुर्धर का सारथी है। धनुर्धर योगी बनता है, तथा योग करता है। योग के ईश्वर सारथी हैं जो योगमार्ग में हमेशा धनुर्धर के साथ रहते हैं। यह जो हर समय धनुर्धर तथा सारथी के साथ रहने की अनुभूति है वही योग है। जिनकी सभी अनुभूतियों के केन्द्र में यह अनुभूति स्थापित रहती है वही तो योगी है।

धनुष शरीर के अन्दर है। जब व्यक्ति अपना कल्याण करना चाहता है तो इसी धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा लेता है। वैसे भी बिना प्रत्यंचा चढ़ाये धनुष का क्या प्रयोजन। न वह धनुष किसी काम का, और न वह धनुर्धारी किसी काम का। अर्जुन इस बात को जानता है इसलिए अपने विरोधियों के देखते ही धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर युद्ध करने के लिए तैयार हो जाता है। धनुर्धर मनुष्य की भी पहली गति यही होती है। वह जीवन की हर स्थिति से मुकाबला करने के लिए तैयार हो जाता है तथा उसी के कहने पर सारथी उसे उस स्थान पर ले जाता है जहां से वह अपने विरोधियों को ठीक से देख सके। धनुर्धर देखता है - ये स्वजन ही हैं जो राज्य और सुख के लिए एक दूसरे के जान के प्यासे होकर मरने-मारने के लिए उतारू हैं। धनुर्धर में विषाद उत्पन्न हो जाता है। इस घोर विषाद में व्यक्ति सम्पूर्ण जगत् को व्यर्थ या मिथ्या समझने लगता है। और यहीं से वह पुनः अपने सारथी की ओर मुड़ता है। न विजय की कामना रह जाती है, न राज्य की, न सुख की ही। अधिकांश धनुर्धर अपने सारथी से ऐसा ही बात कहते हैं। यही घोर विषाद की अवस्था में धनुर्धर का सारथी से नित्य सम्बंध स्थापित हो जाता है, और यही हुआ अर्जुनविषादयोग।

इसी प्रकार योग के अट्ठारह चरण होंगे जिनका वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता के अट्ठारह अध्यायों में है। इन सभी चरणों को पूरा करने पर ही योगी परम कल्याण को प्राप्त करता है। परन्तु योग की तो एक अवस्था भी कल्याणकारी होती है। योग की अवस्थाएं सृष्टिक्रम से आयेंगी। केवल बुद्धिविसासियों के अनुसार योग की कोई भी अवस्था किसी समय आ सकती है, परन्तु श्रीमद्भग्वद्गीता के मर्मज्ञ इस बात का अनुमोदन नहीं करते। इसलिए योग मार्ग में क्रमिक विकास के सिद्धान्त पर ही चलना श्रेयस्कर होगा।

श्रीमद्भगवद्गीता के सभी अध्यायों या चरणों तक पहुंचने का योगशास्त्रीय रास्ता क्या है उसका यहां संकेत मात्र उल्लेख किया जा सकता है।

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा इसमें केवल 574 श्लोक कहे गये है, जिन्हें समझने में धृतराष्ट्र का एक, संजय के 41, तथा अर्जुन के कहे 84 श्लोकों की उपयोगिता को नजरअंदाज करना योगमार्ग में एक बाधा की तरह साबित हो सकता है, जिसके प्रति निरन्तर सावधान रहने की आवश्यकता है।

धृतराष्ट्र शब्द का अध्यात्मिक जगत में अर्थ मन है जिसने इस शरीर (राष्ट्र) को धारण कर रखा है। धर्मक्षेत्र (धर्म का आश्रय स्थल) तथा कुरूक्षेत्र (कर्म का आश्रय स्थल) इस शरीर के अन्दर हैं। इस प्रकार यह शरीर ही धर्म तथा कर्म के क्षेत्र हैं। इस प्रकार धर्म तथा कर्म के मार्ग पर चलना ही योगमार्ग पर चलना है। बुद्धिवृत्ति (आत्माभिमुख प्रवृत्तियां) ही पांडव हैं तथा मनोवृत्ति (विषयाभिमुख प्रवृत्तियां) धृतराष्ट्र या मन की संतानें। धनुर्धर तो यह जीवात्मा है जबकि कूटस्थ चैतन्य परमात्मा ही सारथी। जिसे हर बात का ज्ञान है तथा जो अपने मत में तटस्थ है वह है चित्त (संजय) जो दुर्बुद्धि तथा सुबुद्धि के हर हरकत को जानता है और समय आने पर मन (धृतराष्ट्र) को दो-टूक अभिव्यक्त भी कर देता है। दुर्योधन साक्षात् कामरूप है, जिससे युद्ध करना अत्यन्त मुश्किल है, इसलिए यह दुर्योधन है। यह काम (दुर्योधन) ही मन (धृतराष्ट्र) का सबसे बड़ा पुत्र है। मन की आंखें नहीं होतीं इसलिए वह अंधा है। विषयाभिमुख प्रवृत्तियों या संतानों के मोह में वह फंसा है, और अपने ही निर्णयों के परिणाम स्वरूप वह अन्ततः बंधु-बांधव समेत स्वयं का नाश कर लेता है। भीष्म संकल्प के प्रतीक हैं जो संकल्पबद्ध होकर विषयाभिमुख प्रवृत्तियों के साथ अनिच्छा-पूर्वक खड़े हैं। आचार्य (द्रोणचार्य तथा कृपाचार्य) भी विषयाभिमुख प्रवृत्तियों के साथ खड़े हैं।

इधर आप धनुर्धर हैं, और साथ में आपके सारथी। धनुर्धर तथा सारथी के इस योग की अनुभूति अब आप स्वयं करें, तथा प्रथम चरण में विषादयोग के लिए स्वयं को तैयार कर लें। आगे की आपकी यात्रा मंगलमय हो ऐसी कामना करता हूं। वैसे, योगमार्ग में कल्याण के लिए किया गया कोई कार्य व्यर्थ नहीं जाता। इस जीवन में अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाये तो भी चिंता की बात नहीं क्योंकि योगक्षेम वहाम्यहम् का वचन भगवान कृष्ण ने पहले ही दे रखा है। यदि जीवन शेष नहीं रहा तो अगले जीवन में यह यात्रा आप वहीं से प्रारम्भ करेंगे जहां से आपका मार्ग छूट गया। ऐसा ही श्रीमद्भगवद्गीता का कहना है।