लॉकडाउन, दूसरी लहर का आतंक, बढ़ती बेरोजगारी और बढ़ती महंगाई की भीषण चुनौतियों के बीच युवा वर्ग बेरोजगारी से जूझ रहा था। रोजगारों की उपलब्धता जहां 2016-17 में पंद्रह प्रतिशत से थोड़ा अधिक ही थी, घटकर 2021 में 32.03 पर आ गई। जबरिया मजदूरी में फंसे मजदूरों को वेतन मिलने में भी लंबा इंतजार करना पड़ता रहा। मेहनत भी उन्हें दिन के बारह-चौदह घंटे करना पड़ता था, पैसे भी अगर मिलते थे तो न्यूनतम से भी काफी कम। इस सबका परिणामः विश्व भूख सर्वे में लिये गये एक सौ सोलह देशों में भारत का स्थान 101 पर पहुंच गया। इसमें मृत्यु दर भी बढ़ती चली गई।
भारत उन 31 देशों में है जहां स्थिति सबसे अधिक निराशाजनक है। पांच साल से कम के बच्चों में 2015-16 में पोषण के अभाव से विकलांगता और अन्य भयानक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं प्रबल रूप से आक्रमण करती रहीं-उन्हें कोरोना की महामारी का भी सहज शिकार बनाती रही। देश की जनता के सामने दो ही चुनौतियां बची थीं, बिना वेतन के खटते रहो या फिर घर वापसी के लिये पैदल ही चलते रहो। मृत्यु इनमें चुनौती नहीं, यथार्थ ही थी। ग्रामीण क्षेत्रों में नरेगा उनकी उम्मीदों पर खरा उतरा। आंशिक ही सही, पर राहत जरूर मिली। लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है। नरेगा भीषण फंड संकट में फंस चुका है। अभी वित्तवर्ष का आधा भी नहीं गुजरा है, पर स्थिति गंभीर हो चुकी है। फंड की कमी का अर्थ है मजदूरों के लिए अकाल जैसी परिस्थिति।
केंद्र का कहना था कि राज्यों को ही इस फंड का इंतजाम करना पड़ेगा। केंद्र ने तो राज्यों पर यह भी आरोप लगाया कि वे कृत्रिम मांग की स्थिति बना रहे हैं। नरेगा की शुरूआत ही जनता की मांग को पूरा करने के लिये की गई थी। ग्रामीण क्षेत्रों में भयानक आर्थिक कष्ट से जूझने के लिये यह कार्यक्रम सौ दिनों का वेतन सहित रोजगार का वादा करता है, और यह श्रम अकुशल ‘अनस्किल्ड’ ही होता है, ताकि अधिकांश जनता इसका लाभ उठा सके।
संकट के इन दिनों में नरेगा ने अपना कर्तव्य खूब निभाया। अब तक के बजट में नरेगा को मिले फंड में बढ़ोतरी हुई और 1.11 लाख करोड़ की सहायता राशि मिली। ग्यारह करोड़ मजदूरों को इसमें काम मिला। लेकिन जल्द ही इसमें भारी गिरावट आई। 2020-21 में यह राशि घटकर मात्र 73 हजार करोड़ पर गई। केंद्र का जवाब था लॉकडाउन के दौरान भीषण आर्थिक संकट के कारण कटौती करनी पड़ी। उन्होंने राज्यों को इसमें भागीदारी करने की सलाह दी ताकि बजट में इसकी आपूर्ति हो सके। जमीनी हकीकत आज यह है कि अक्टूबर के अंत तक इस योजना में अभी व्यय के रूप में 79.810 करोड़ का धक्का लग चुका है। इसमें मजदूरों का वेतन भी शामिल है। नरेगा की योजना में लालबत्ती जलने की स्थिति बन चुकी है। इक्कीस राज्यों में घाटे की रकम खतरनाक मोड़ तक पहुंच चुकी है। इनमें तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और पश्चिम बंगाल की स्थिति सबसे गंभीर है। इस साल नरेगा के शर्ट्स प्रायः बंद ही हो चुके हैं। मजदूरों के बढ़े हुए काम के घंटे, वेतन मिलने का आश्वासन भी नहीं, परिस्थिति ने न सिर्फ गंभीर संकट पैदा की थी, बल्कि यह जनता के संवैधनिक अधिकार का भी हनन था।
इस सबके बीच थी बिना किसी राहत की महामारी। इस भयानक बोझ तले दबी जनता की आवाज को सुनने का अवकाश ही नहीं था केंद्र के पास, जहां दोषरोपण का ही दौर चल रहा था। केंद्र कोई सहायता देने से इंकार कर रहा था। राज्यों पर सारा दायित्व डाल रहा था, ग्रामीण विकास मंत्रालय के अनुसार मजदूरों का कर्तव्य है कि अगर उनके पास रोजगार है तो वेतन की एक अस्पष्ट, अनिश्चित उम्मीद के साथ उन्हें काम करते रहना पड़ेगा। राज्यों के लिये कहां गया कि वे कृत्रिम रूप से मांग कर रहे हैं-जो अनावश्यक है। लेकिन इस योजना में तो ठीक इसके विपरीत है। गंभीर संकट की स्थिति में यह योजना सौ दिनों का रोजगार उपलब्ध कराती है, ताकि मजदूरों की आवश्यकताएं, चाहे बुनियादी रूप से ही सही, कुछ हद तक पूरी होती रहें। इसमें मांगों की कृत्रिमता का तो कोई स्थान ही नहीं बचता। वैसे अब वास्तवकिता यह है कि कम से कम 13 प्रतिशत परिवारों के पास काम नहीं है। मजदूर जो काम के लिये पहुंचते भी हैं, उन्हें वापस कर दिया जाता है, उनके नाम भी रजिस्टर में नहीं जोड़े जाते। सूचनाओं की सत्यता भी संदेहास्पद है।
राज्य तो तभी जीविका का रास्ता खोल सकते हैं जब उनके पास फंड हो। उसके बिना मजदूर आज भी बिना वेतन ही काम कर रहे हैं। इस गंभीर परिस्थिति में 2020-21 के बजट की तुलना में 2021-22 के बजट में 34 प्रतिशत तक की कटौती कर दी गई है। 2021-22 में पारित बजट के 73 हजार करोड़ की राशि की तुलना वास्तविक खर्च के आकलन के अनुसार 1.11 लाख करोड़ तक तो नहीं ही पहुंच पाती है, साथ ही आम नागरिक के जीवन के अधिकार पर भी यह एक हमला है। (संवाद)
कोरोना का संकटकाल
महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार योजना ने बहुत राहत दी
कृष्ण झा - 2021-11-13 09:47
महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना द्वारा गंभीर अर्थसंकट के अंधेरे के दिनों में भी, न केवल गांवों में बसे मजदूरों को राहत दी गई थी, बल्कि प्रवासी शहरी मजदूरों के लिए भी यह शायद अकेला ही दरवाजा था, जहां से कुछ रोशनी आ रही थी। भूखऔर महामारी के थपेड़ों से जूझते मजदूर, जो हजारों मील पैदल पार कर, वापस आ रहे थे, उनके लिए यही योजना मौत के मुंह से उन्हें निकाल रही थी। नेशनल स्टैटिस्टिकल डाटा के अनुसार आधे से भी अधिक शहरी और ग्रामीण मजदूरों में सत्तावन प्रतिशत कर्ज के बोझ तले जी रहे थे। यह डाटा कोरोना के भयानक दिनों से पहले का है।