शुक्रवार, 8 जून 2007
बदलता मौसम और दाना-पानी का संकट
उपज 30 प्रतिशत तक घट सकती है
ज्ञान पाठक
नई दिल्ली: दुनिया के बदलते मौसम को रोकने के लिए ग्रुप-8 देशों की बैठक में फिर एक बार अपने पुराने संकल्प और आह्वान को दोहराया। इसका सभी ओर स्वागत हुआ है। विश्व बैंक ने भी इसका स्वागत किया है क्योंकि यह भी तो उन्हीं देशों के कब्जे में रहने वाली संस्था है। सबों ने कहा कि वे बहुत अच्छी बातें कर रहे हैं। सिर्फ चंद लोग बच गये हैं जो ऐसी चिकनी चुपड़ी बातों से ही तृप्त नहीं होते और स्वयं को ठगे जाने के लिए तैयार नहीं कर पा रहे हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि यदि पर्यावरण का कबाड़ा करने में यदि किसी का सबसे ज्यादा योगदान है तो इन्हीं विकसित देशों का है। उन्होंने ऐसी हालत कर दी है कि मौसम का मिजाज ही विनाशकारी हो गया है, और आने वाले वर्षों में दाना-पानी को मोहताज लोगों की संख्या तेजी से बढ़ जायेगी।
जब एक ओर सारी दुनिया में बदलते मौसम के विनाशकारी मिजाज को रोकने की चर्चा करने वालों, जिन्होंने ही ऐसी स्थिति लायी है, की लोग प्रशंसा कर रहे हैं वहीं दो खबरें भारत और दक्षिण एशिया के लिए काफी गंभीर स्थिति पेश करने वाली थीं। ये खबरें थीं – भारत 50 लाख टन और गेहूं का आयात करेगा जो इस वर्ष अब तक किये गये आयात 107.5 लाख टन गेहूं के अतिरिक्त होगा। उल्लेखनीय है कि भारत को पिछले साल भी 92 लाख टन गेहूं का आयात करना पड़ा था। लेकिन अमेरिका चाहता है कि भारत अच्छी गुणवत्ता के गेहूं का आयात न करे और गुणवत्ता का स्तर थोड़ा कम करे जिससे वह भी भारत को कुछ गेहूं बेचने की प्रक्रिया में भाग ले सके। भारत ऐसा कर भी सकता है क्योंकि यहां अमेरिकी इशारे पर अनेकानेक गड़बड़ियां की जा रही हैं जिसमें भारत को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर देश से दूसरों पर निर्भर देश बनाना भी शामिल है। डा मनमोहन सिंह के प्रधान मंत्री बनने के बाद से अनेक मामलों में भारत की संप्रभुता और आत्मनिर्भरता ढलान पर है।
हमारे प्रधान मंत्री हमें लगातार बता रहे हैं कि हमारी विकास दर बढ़ रही है और वे महंगायी नहीं रोक पायेंगे। पानी का संकट भी देश भर में बढ़ रहा है और बढ़ाया जा रहा है, लेकिन यदि आप खरीदना चाहें तो किसी भी मात्रा में और कहीं भी आपको पानी उपलब्ध है और उसकी कोई कमी नहीं है। कुल मिला कर आम आदमी दाना-पानी को भी मोहताज हो गया है।
इसी पृष्ठभूमि में दूसरी खबर आयी है कि यदि दुनिया का मौसम इसी गति से बदतर होता गया तो इक्कीसवीं सदी के मध्य तक दक्षिण एशिया में फसलों की उपज लगभग 30 प्रति शत तक घट जायेगी। कृषि का भारत में तो वैसे भी बुरा हाल करा दिया गया है और किसान हजारों की संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं। भारत की सभी सरकारों का कृषि क्षेत्र के लिए बड़ी-बड़ी बातें करने का इतिहास रहा है और हमारे मनमोहन जी की सरकार तो सबसे ज्यादा बड़ी-बड़ी बातें कर रही है। इसे ऐसा करना जरुरी भी है क्योंकि सर्वाधिक संख्या में उन्होंने ही आम लोगों को दाना-पानी के लिए तरसा दिया है। पिछले कुछ दशकों में इतनी बदतर हालत आम लोगों की कभी नहीं हुई थी। इस पृष्ठभूमि में दूसरी खबर से चिंता यह है कि यदि मौसम इसी तरह बिगड़ता रहा, फसलें कम होती गयीं, और अमेरिका और धनी देशों के इशारे पर ही हमारे नेता चलते रहे तो आम आदमी का क्या होगा।
तीस प्रति शत उपज कम होने की खबर विश्व बैंक ने ही अपनी एक रपट में दी है। रपट में अन्य निष्कर्षों में यह भी शामिल था कि हिमालय पर्वत के बर्फ के पिघलने की गति बढ़ जायेगी और उससे बाढ़ की समस्या खड़ी हो जायेगी तथा आगामी 20 से 30 साल के भीतर जल संसाधनों की स्थितियां भयावह हो जायेंगी।
मौसम का बदलाव प्राकृतिक संसाधनों पर बोझ बढ़ा देगा। पर्यावरण भी तेजी से हो रहे शहरीकरण, उद्योगीकरण और आर्थिक विकास के कारण नष्ट होगा। रपट में कहा गया कि डायरिया, मलेरिया, डेंगू, हैजा, आदि बाढ़ और सूखे से जुड़ी बीमारियां महामारी की तरह फैलेंगी। समुद्री जलस्तर ऊंचा हो जायेगा और तूफान, भूमि का कटाव और अन्य अपतटीय विनाश में वृद्धि हो जायेगी।
रपट में कहा गया कि इसका दुष्प्रभाव भयावह होगा। आम लोगों और गरीबों को पानी की उपलब्धता भी घट जायेगी तथा उपलब्ध पानी की गुणवत्ता भी अच्छी नहीं रह पायेगी। इससे पनबिजली परियोजनाओं में उत्पादन बाधित होगा और ये भरोसेमंद नहीं रह पायेंगी। ऊर्जा का भी संकट हो जायेगा।
रपट के अनुसार मौसम की अत्यंत अतिवादी मिजाज के कारण गर्मी, ठंड या वर्षा से मरने वालों की संख्या भी बढ़ जायेगी। कृषि, मत्स्य पालन, और जीव जगत की भारी तबाही होगी। रपट में आगाह किया गया है कि आर्थिक झटकों के रुप में भी ये हमारे सामने आयेंगी। आशंका व्यक्त की गयी है कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी पलायन हो सकता है।
विश्व बैंक ने यदि ग्रुप-8 देशों के मौसम परिवर्तन को बदतर होने से बचाने के संकल्प का स्वागत किया है तो इसी आलोक में किया है। इन विकसित देशों के नेतृत्वों से वैसे ज्यादा उम्मीद तो नहीं है, फिर भी संयुक्त राष्ट्र के ढांचे में इस समस्या को लेकर सामने आने और विचारण करने का उनके वक्तव्य को अच्छा ही कहा जायेगा यदि उनकी नीयत भी साफ हो।
लेकिन ये देश तो स्वयं प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन करते आये हैं और खतरनाक स्थिति तक दोहन का इरादा रखते हैं। ये पिछले कुछ वर्षों से दुनिया भर के देशों को पर्यावरण संरक्षण के नाम पर विकास न करने देने की नीति अपना रहे हैं लेकिन जब इन्हें मौका लगता है विदेशों में जाकर अपनी औद्योगिक इकाइयां किसी भी कीमत पर स्थापित करते हैं।
क्या ऐसी दोहरी नीति पर चलकर मौसम परिवर्तन की बदतर हालत को रोका जा सकता है? इसका उत्तर है नहीं, और स्वयं इस नये संकल्प में कहा गया है कि धरती का तापमान इस सदी के मध्य तक दो डिग्री सेंटीग्रेड से ज्याता नहीं बढ़ने दिया जायेगा। यदि ये धनी देश चाहते तो स्वयं अपने लालच पर लगाम रखकर तेजी से पर्यावरण विनाश रोक सकते थे क्योंकि ये ही तो सर्वाधिक कारखाने लगाने वाले, और प्राकृतिक संपदा का दोहन करने वाले हैं।
फिर ये देश दुनिया भर के अन्य गरीब और विकासशील देशों को अपनी उंगलियों पर नचाते हैं और वह भी अपने फायदे के लिए। नारों से ज्यादा आत्मनियंत्रण की आवश्यकता है। #
ज्ञान पाठक के अभिलेखागार से
बदलता मौसम और ...
System Administrator - 2007-10-20 07:21
दुनिया के बदलते मौसम को रोकने के लिए ग्रुप-8 देशों की बैठक में फिर एक बार अपने पुराने संकल्प और आह्वान को दोहराया। इसका सभी ओर स्वागत हुआ है। विश्व बैंक ने भी इसका स्वागत किया है क्योंकि यह भी तो उन्हीं देशों के कब्जे में रहने वाली संस्था है। सबों ने कहा कि