इतिहास के पन्नों में स्याह अक्षरों में लिखे जाने वाले तीन कृषि कानून, जिनके विरोध में और जिन्हें वापस लिये जाने के लिये किसानों और जनता के अभूतपूर्व आंदोलन की पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें वापस लेने की घोषणा की है। शासक तबके में लगता है यह अहसास जोर पकड़ रहा है कि इतने कठोर कदमों का समय संभवतः अभी आया नहीं है। आंदोलन में जुटे किसानों पर बीती आपदाएं जाड़े की कड़ाके की ठंड और गर्मियों की झुलसाने वाली तेज धूप और गर्म हवाएं, इन सबके बीच दुधमुंहे बच्चों और बुजुर्गों की असहनीय तकलीफें धरने पर बैठे किसानों को शायद इस कदर नहीं चुभ रही थी, जितनी कि उन लोगों की उपेक्षा जिन्हें उन सबने मिलकर अपने अपार कष्टों पर मरहम लगाने के लिये चुना था। यही लोग अब प्रशासन की भी जिम्मेदारी लिये हुए हैं। जनता आज सिर्फ उपेक्षित ही नहीं महसूस कर रही है, वह सहमी भी है, क्योंकि ये उन्हें अतीत के उन भयानक दिनों की याद दिलाते हैं जिनमें से कभी जर्मनी और इटली की जनता गुजर चुकी है।

कदम पीछे लिये गये हैं, शायद किसानों की घायल मनःस्थिति को समझकर उनके दर्द को दूर करने के लिये, या फिर उनके विद्रोही विचारों और इरादों को मीठे शब्दों में लगाम देने के लिये, पर इसके लिये बहुत इंतजार की भी जरूरत नहीं है, सत्य उभरकर सामने आ ही रहा है। सारे अन्यायों पर क्रमशः पर्दा डाला जा रहा है। वास्तव में आगामी चुनाव जो पंजाब, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में होने वाले हैं, उनके तहत किसानों का समर्थन एक अहम स्थान रखता है और उसके लिये शक्ति प्रयोग नहीं, सहानुभूति की आवश्यकता है। जितनी नकारात्मकता पूरी परिस्थिति पर हावी हो रही है, उससे जनतांत्रिक भविष्य की रचना तो नहीं हो सकती है। इस अहसास में किसानों के आंदोलन के समक्ष उनकी हार तो स्पष्ट होती ही है, साथ ही किसानों की मांगों की न्यायिकता भी झलकती है।

लेकिन प्रश्न है चुनाव के बाद भी व्यवस्था का यही रवैया रहेगा या नहीं। हार स्वीकार करना आसान नहीं होता, न ही क्षमाप्राथ होना, पर इसकी कीमत भी तो वसूल की जाएगी। तब तक मिठास का आलम बनाए रखना है। उन्हें मालूम है किसानों को प्राकृतिक आपदाएं नहीं हिला सकतीं। लेकिन उनकी योजनाओं में जहां कमजोरी थी, वक्त की कसौटी पर वे बेरहमी से ही सामने आईं। बंगाल का चुनाव इसका उदाहरण है जिसमें इस राज्य पर उन्हें अपनी विजय पर विश्वास था। यह विश्वास टूटा, आगे का रास्ता भी बंद हो गया। यह आंदोलन में लगे किसानों के लिये भी एक सकारात्मक संदेश था कि उनके विद्रोह का प्रभाव अब देशव्यापी होता जा रहा है। इसके साथ ही आईं लखीमपुर खीरी की हत्याएं यह उस प्रदेश में हुआ जहां किसानों का समर्थन अहम था। जनता में आक्रोश था, लेकिन सरकार को परवाह कहां थी? संब( केंद्रीय मंत्री पद पर अभी भी बने हुए हैं जिनके सुपुत्र अपने पिता की गाड़ी उस दिन चला रहे थे और सामने आते जुलूस को कुचलने में लगे थे। इस कांड में सात निर्दोष लोगों की हत्याएं हुईं-लेकिन न्याय मिलने का प्रश्न गौण ही रहा। जनमत के विरोध में जाने की उन्हें कोई परवाह नहीं थी। उनके लिये तो तीन काले कानून भी जैसे काफी नहीं थे। इस सबसे बाहर आने के लिये खोए जन समर्थन की वापसी के लिये यह जरूरी था कि कोई बड़ा कदम उठाया जाय।

जनता ने भूमि अधिग्रहण के उनके कदमों को एक बार दृढ़ता से रोका था, इसलिये अस्वीकृति की शक्ति से जनता परिचित है। उस समय भी प्रधानमंत्री ने अंत में इसे राज्यों पर ही छोड़ दिया कि वे अपने नियम स्वयं बनाएं। इस घटना से कम से कम इतना तो अवश्य सामने आया कि गलतियों को स्वीकार किये बिना भी समझौता हो सकता है। कृषि कानूनों को वापस लेते वक्त प्रधानमंत्री ने उनमें कमियों की चर्चा नहीं की, बल्कि उन्हें सामने लाने में और उन्हें स्पष्ट करने में अपनी कमियों का ही उन्होंने जिक्र किया। उन्हांने इस पूरे आंदोलन को ही यह कहकर टाल दिया कि कानूनों का सही स्वरूप ही वे जनता के सामने नहीं रख पाए। इस तरह बिना कानूनों में कोई बुनियादी परिवर्तन की चर्चा किए, उन्होंने तीनों कÛानूनों को वापस ले लिया। इसमें कानून में किसी सुधार की चर्चा नहीं थी। पूरी मिठास के साथ, कोशिश थी सिर्फ कुछ समझ पा लेने की, कम से कम चुनाव तक।

किसान इस कोशिश से अनजान नहीं है। एक किसान नेता ने स्पष्ट भी कर दिया कि उन्हें ‘‘शहद में डूबे’’ शब्दों की जरूरत नहीं है, उन्हें तो सिर्फ ठोस परिणाम चाहिये, जो कानून खत्म होने पर ही मिल सकता है। प्रधानमंत्री चाहे जितना भी रूखा बोलें, लेकिन हमारी भलाई के लिये बोलें। उन्हें अपनी इस जनता का ख्याल होना चाहिए, जो आज भूख का सामना कर रही है। दुनिया के विशालतम जनतंत्र के प्रधानमंत्री के लिये इस जनता का ध्यान रखना अनिवार्य है, जो इस पूरी व्यवस्था के केंद्र में हैं। जब मांगे पूरी नहीं होतीं, जब अभाव का कठोर आलम बना रहता है तो उन्हें पूरा अधिकार है कि देश की सड़कों पर वे प्रदर्शन करें। कृषि कानूनों को वापस लेने के पीछे बस एक ही कारण है, समय का लाभ। राज्यों में चुनाव सिर पर हैं, ऐसे समय में जनता को संतुष्ट रखना अत्यावश्यक है। यही श्रम कानूनों पर भी लागू होता है। यह एक और उदाहरण है कि पीछे हटना हमेशा हार का ही संकेत नहीं है, यह जीतने में भी मदद करता है। जिस व्यवस्था में हम आज रहते हैं वह हमेशा नैतिक औचित्य के अनुसार नहीं चलता, न ही संवैधानिकता की कसौटी पर सही उतरता है। शासन व्यवस्था की बुनियाद में, इसके चरम उद्देश्य के रूप में जन कल्याण ही है। सारी व्यवस्था इस सत्य को ही केंद्र में रखकर चलनी चाहिए और इसे ही पूरा करने में असफलता इस सरकार की सबसे बड़ी कमजोरी है। कृषि कानूनों को इसलिये वापस लिया गया ताकि आघातों की भयानकता जनता तक नहीं पहुंचे, कम से कम चुनावों तक, और इसलिये कानूनों को वापस लेना हार का इजहार नहीं है। उसके लिये अभी समय बाकी है। (संवाद)