बहरहाल, चुनाव तय समय पर हो पाएगा या नहीं, पर इस समय तो उत्तर प्रदेश में चुनावी माहौल पूरी तरह बन चुका है और ऐसा बनाने में सबसे बड़ी भूमिका प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही निभा रहे हैं। कुछ दिन पहले उन्होंने पूर्वांचल एक्सप्रेस का शुभारंभ किया, जबकि उस एक्सप्रेस से यात्रा करने के लिए आवश्यक कुछ सुविधाओं का निर्माण भी अभी तक नहीं हो पाया है। पूरे एक्सप्रेस वे पर कहीं पेट्रोल पंप नहीं हैं, कहीं मोटल नहीं बने हुए हैं और न ही बीच में कहीं खराब होने की स्थिति में गाड़ी ठीक करने की कोई व्यवस्था है। फिर भी उसका शुभारंभ मोदीजी के हाथों हो गया और वह भी पूरी चुनावी तामझाम के साथ। उधर अखिलेश यादव ने भी उसी एक्सप्रेस वे के कुछ हिस्सों पर अपनी साइकिल चलाकर अपने तरफ से भी उसका सांकेतिक शुभारंभ कर दिया।

उसके बाद तो मोदीजी ने अनेक सारी परियोजनाओं का उद्घाटन और शिलान्यास कर डाला है। देहरादून में जाकर उस पर्वतीय राज्य के लिए अनेक सारी परियोजनाओं का उद्घाटन और शिलाल्यास कर डाले। दिल्ली और देहरादून के बीच एक एक्सप्रेसवे और उससे जुड़े इकनॉमिक कॉरिडोर का भी शिलान्यास कर डाला। बताने की जरूरत नहीं कि उस कॉरिडोर का सबसे ज्यादा हिस्सा उत्तर प्रदेश में ही पड़ता। पूर्वी उत्तर प्रदेश में सरयुग कनाल का शिलान्यास किया गया, तो अगले कुछ दिनों के अंदर ही काशी-विश्वनाथ कॉरीडोर के उद्घाटन भी होने हैं। यानी उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए जो कुछ भी किया जा सकता है, मोदीजी और उनकी पार्टी कर रही है। किसान आंदोलन को समाप्त करने के लिए उन्होंने तीन कृषि कानूनों को भी वापस ले लिया, क्योंकि उसके कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा नेताओं को गांवों में प्रवेश करना भी जोखिम भरा काम साबित हो रहा है।

यानी मोदीजी और उनकी पार्टी ने चुनाव जीतने के लिए कुछ भी कसर नहीं छोड़ रखी है, लेकिन सबसे प्रमुख प्रतिद्वंद्वी अखिलेश यादव की सभाओं में भारी भीड़ उमड़ रही है। प्रदेश के उन इलाकों में भी अखिलेश यादव की सभाओं में भारी संख्या में लोग आ रहे हैं, जो इलाके समाजवादी पार्टी के गढ़ नहीं रहे हैं। झांसी में एक विशाल सभा हुई। मेरठ में राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी के साथ उनकी एक सभा हुई। वह सभा भी बहुत विशाल थी। उत्तर प्रदेश में पहले त्रिकोणीय चुनाव हुआ करता था। भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच मुकाबला होता था। पिछले तीन आमचुनावो में तो यही हुआ है, लेकिन इस बार भाजपा और सपा के बीच सीधा मुकाबला होता दिखाई दे रहा है। मायावती की स्थिति लगातार खराब होती जा रही है। उनका जनाधार उनकी जाति तक सिमटता जा रहा है और राजनैतिक पंडितों को मानें, तो आने वाले समय में यही मतदाता अखिलेश और भाजपा के बीच ध्रुवीकृत हुए, तो मायावती की जाति के लोग भी उन्हीं दो ध्रुवों में किसी एक के साथ जुड़ते दिखाई दे सकते हैं।

प्रियंका गांधी भी चुनाव में एक फैक्टर बनती दिख रही हैं। उनकी सभाओं में कांग्रेसियों का जोश देखता बनता है, लेकिन उनकी पार्टी दहाई अंकों में सीट हासिल कर पाएंगी, इसकी संभावना बहुत कम है, लेकिन उनके उम्मीदवार भारतीय जनता पार्टी के वोट काटेंगे, इसकी पूरी संभावना है। जाहिर है, प्रियंका के नेतृत्व में कांग्रेस के अकेले चुनाव लड़ने से अखिलेश यादव को ही फायदा होगा, क्योंकि कांग्रेस का जो भी थोड़ा बहुत आधार बचा हुआ है, वह ही भारतीय जनता पार्टी का आधार भी है और कांग्रेस के ज्यादातर उम्मीदवार उसी सामाजिक समूह से होंगे, जो भाजपा के प्रति सबसे ज्यादा झुकाव रखता है। इसलिए कांग्रेस को जितने ज्यादा वोट मिलेंगे, उतना ही भाजपा को नुकसान और अखिलेश को फायदा पहुंचाएगा।

ऐसी स्थिति में यह कहना कठिन है कि भारतीय जनता पार्टी बाजी मार लेगी। सत्तारूढ़ पार्टी होने का फायदा भाजपा को जरूर मिलेगा, क्योंकि प्रशासन भी मतदान को कुछ न कुछ तो प्रभावित कर ही देता है। मंदिर की राजनीति भी भाजपा को फायदा पहुंचाती है, लेकिन इस समय भाजपा को सबसे ज्यादा लाभ प्रदेश के जातीय अंतर्विरोध से भी मिल रहा है। राजनैतिक रूप से वंचित जातियों की पहली पसंद भारतीय जनता पार्टी बनी हुई हैं। उन जातियों की संख्या सौ से भी ज्यादा होंगी और संख्या बल में वे अलग अलग कमजोर होने के बावजूद एक साथ आने पर सबसे बड़े सामूहिक वर्ग का रूप धारण कर लेते हैं। समाज के अपराधीकरण का सबसे ज्यादा शिकार यही वर्ग होता है और योगी की माफिया विरोधी छवि उन्हें पसंद भी है।

पर अखिलेश की सभाओं में उमड़ रही भारी भीड़ भाजपा के लिए खतरा है। जिन्ना का नाम उछालकर अखिलेश ने भाजपा के हाथ में एक बड़ा हथियार दे दिया था। यदि उन्होंने इस तरह की दो-चार गलतियां और कर दीं, तो भाजपा का काम आसान हो जाएगा, वैसे फिलहाल तो भाजपा की राह कठिन ही दिख रही है। (संवाद)