वर्तमान लोकसभा के कार्यकाल की आधा अवधि बीत चुकी है। इसके साथ ही आगामी 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी भी शुरू हो गई है। हमेशा चुनावी मोड में रहने वाले भाजपा के नेता इसके लिए सबसे ज्यादा तैयार हैं और विपक्ष पार्टियां भी अपने अपने तरीके से तैयारी कर रही हैं। लेकिन विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस है। उसकी सीटें तो ज्यादा नहीं हैं और वह लोकसभा की कुल सीटों की 10 प्रतिशत भी नहीं है। लेकिन सीटें भले ही 10 फीसदी से कम मिली हों, लेकिन उसे कुल मतों का 20 प्रतिशत पिछले लोकसभा चुनाव में मिला था। यही नहीं, कांग्रेस ही एकमात्र ऐसी विपक्षी पार्टी है, जिसकी सरकार एक से ज्यादा राज्यों में है।
तकनीकी रूप से भले ही लगभग आधा दर्जन पार्टियों ने भारत के चुनाव आयोग से राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा प्राप्त कर लिया हो, लेकिन राजनैतिक रूप से सिर्फ दो ही पार्टियां हैं, जिन्हें हम राष्ट्रीय पार्टी कह सकते हैं। वे हैं भाजपा और कांग्रेस। जाहिर है, सिद्धांततः जब राष्ट्रीय स्तर पर कोई विपक्षी गठबंधन बनेगा, तो उसके केन्द्र में कांग्रेस को ही होना चाहिए। पर जो सिद्धांततः सही लगता है, वह व्यवहारिक रूप से विनाशक भी साबित हो सकता है। यही बात आज कांग्रेस के लिए है। यह सच है कि वह विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन यदि अन्य विपक्षी क्षेत्रीय पार्टियों की कुल ताकत को जोड़ दें, तो कांग्रेस की ताकत उनकी सम्मिलित ताकत से कम ही होगी। सीटों के लिहाज से भी वे पार्टियां कांग्रेस से बहुत आगे चली जाएंगी और मत प्रतिशत भी सम्मिलित रूप से उन पार्टियों के पास ज्यादा है।
और कांग्रेस को केन्द्रीय पार्टी बनाने का सबसे बड़ा खतरा राहुल गांधी को लेकर है। राहुल गांधी अपनी कांग्रेस का सफलतापूर्वक नेतृत्व करने में विफल रहे है। वे 15 साल से ज्यादा समय से कांग्रेस आलाकमान का हिस्सा रहे हैं। वे कुछ सालों तक कांग्रेस के उपाध्यक्ष भी थे और बाद में अध्यक्ष भी बने, लेकिन उनके नेतृत्व में कांग्रेस का पतन होता चला गया। एक स्थिति ऐसी आई कि वे खुद अमेठी लोकसभा क्षेत्र से अपना चुनाव भी हार गए। उससे भी खराब बात यह है कि पार्टी को संकट में छोड़कर उन्होंने बिना अपने उत्तराधिकारी तय किए कांग्रेस के अध्यक्ष पर को भी छोड़ दिया। पद छोड़ दिया, तो छोड़ दिया, लेकिन वे फिर भी पार्टी के लिए सभी बड़े निर्णय लेते रहे। मुख्यमंत्रियों के चयन का मामला हो या टिकट वितरण का सभी जगह राहुल कभी पर्दे के पीछे से, तो कभी पर्दे पर सामने आकर निर्णय प्रक्रिया पर हावी रहे, लेकिन जब पार्टी को नेतृत्व चाहिए था और संगठन को उनकी जरूरत थी, तो वे कहते थे कि वे किसी भी पद पर नहीं हैं, इसलिए वे संकट के समय पार्टी के लिए उपलब्ध नहीं हैं।
पार्टी के नेता कांग्रेस छोड़ते रहे और राहुल गांधी तमाशा देखते रहे। जो नेता राहुल के बेहद करीबी थे, वे भी कांग्रेस छोड़ रहे थे, लेकिन उन्हें रोकने के लिए राहुल के पास समय ही नहीं था। कांग्रेस छोड़ने वाले एक नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के एक बयान से राहुल गांधी की कांग्रेस के प्रति गंभीरता का पता चलता है। राहुल ने कहा कि यदि सिंधिया कांग्रेस मे रहते, तो वे मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बन जाते। तब सिंधिया ने कहा कि यह बात वह इतनी देर से क्यों कर रहे हैं और जब सिंधिया उनसे अपनी समस्याओं को लेकर राहुल से बात करना चाहते थे, तो वे बातचीत के लिए उपलब्ध ही नहीं हुए।
तो राहुल गांधी इस तरह से पार्टी चला रहे हैं। वे किसी पद पर नहीं रहते हुए भी सभी निर्णय करते हैं, लेकिन जब कांग्रेस के सामने कोई समस्या आती है या कांग्रेस के किसी नेता को पार्टी के अंदर किसी समस्या का सामना करना पड़ता है, तो राहुल गांधी वहां या उनके साथ नहीं होते। हां, ट्वीटर पर राहुल नरेन्द्र मोदी के खिलाफ एक से एक वक्तव्य जरूर देते रहते हैं। ऐसा कर वह स्थापित करते हैं कि वे निर्भीक हैं और किसी से नहीं डरते। वे वास्तव में किसी से नहीं डरते और मोदी के खिलाफ उनके बयानों में भी दम होता है, लेकिन मोदी को एक मजबूत कांग्रेस ही हरा सकती है, राहुल गांधी द्वारा दिए गए बयान नहीं। 2019 के चुनाव में हार के बाद राहुल ने खुद महसूस किया था कि वे नरेन्द्र मोदी के खिलाफ माहौल बनाने के लिए जिन बातों पर जोर दे रहे थे, उन बातों को उनकी पार्टी के नेताओं ने अपने अभियान का हिस्सा नहीं बनाया। राहुल ने वैसा महसूस किया और सच महसूस किया, लेकिन उसका कारण कांग्रेस का कमजोर संगठन था, जिसे मजबूत किया जाना चाहिए था, लेकिन मजबूत करने की जगह वे कांग्रेस के अध्यक्ष पद को ही छोड़ कर चले गए।
अब सवाल उठता है कि भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ राहुल कांग्रेस का ही सही नेतृत्व नहीं कर सकते, तो वे पूरे विपक्ष का नेतृत्व कैसे करेंगे? उनके कारण ही बहुत जगहों पर कांग्रेस की स्थिति खराब हो जाती है, क्योंकि उनकी पसंद गलत होती है, तो फिर उनके कारण पूरे विपक्ष की हालत क्यों नहीं खराब हो जाएगी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी ने राहुल गांधी ही नहीं, बल्कि उनके मोतीलाल नेहरू से लेकर राजीव गांधी और सोनिया गांधी तक के नेताओं के खिलाफ ऐसा विमर्श तैयार कर दिया है, जिससे कांग्रेस को नुकसान हो रहा है। राहुल गांधी और उनकी टीम ने उस विमर्श के खिलाफ अपने तरह से कुछ खास नहीं किया और दुष्प्रचार होने दिया। अब यदि राहुल को मोदी के खिलाफ नेता बनाया जाता है, तो मोतीलाल नेहरू से लेकर उनके परिवार के अन्य लोगों के खिलाफ जो दुष्प्रचार है और जिनमें से लगभग सभी बोगस हैं, विपक्ष को भी नुकसान पहुंचाएंगे।
राहुल गांधी को लेकर खुद कांग्रेस में बचैनी है, लेकिन वहां की संस्कृति कुछ ऐसी है कि राहुल को हटाया नहीं जा सकता। उनको नहीं तो प्रियंका को, लेकिन प्रियंका राजनैतिक रूप से राहुल से भी कम परिपक्व है। लेकिन यदि कांग्रेस में कोई राहुल का विकल्प नहीं है, तो कांग्रेस से बाहर ममता बनर्जी के रूप में एक कांग्रेसी विकल्प तो है ही। और यहीं ममता बनर्जी की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। आगामी दो सालों में यदि कांग्रेस के लोग ममता की तृणमूल कांग्रेस की ओर जाते हैं, तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ममता अपनी राजनीति और रणनीति मे कितनी सफल होगी, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि राहुल गांधी मोदी का विकल्प नहीं हो सकते। (संवाद)
ममता का सोनिया परिवार पर वार
मोदी का विकल्प राहुल हो ही नहीं सकते
उपेन्द्र प्रसाद - 2021-12-11 09:56
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 2024 चुनाव के लिए जो रणनीति तैयार की है, उसे गलत नहीं कहा जा सकता। उनकी रणनीति का पहला बिन्दु यह है कि वह राहुल गांधी को नरेन्द्र मोदी के खिलाफ अपना नेता नहीं मानेंगी। चूंकि कांग्रेस राहुल को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है, तो ममता बनर्जी कांग्रेस से भी कोई वास्ता नहीं रखेगी। उनकी रणनीति का दूसरा बिन्दु यह है कि वह कमजोर हो रही कांग्रेस की जगह अपनी तृणमूल कांग्रेस को स्थापित करेगी और इस क्रम में उन सारे कांग्रेसियों को अपनी पार्टी में शामिल करेंगी, जो राहुल गांधी से विरक्त होकर कांग्रेस छोड़ना चाह रहे हैं और किसी नये मंच की तलाश में हैं। जाहिर है, ममता बनर्जी उन्हें मंच प्रदान करेंगी।