2004 के लोकसभा चुनाव के बाद यूपीए की सरकार का गठन सोनिया गांधी के प्रयाराों का परिणाम है। किसी पार्टी अथवा किसी गठबंधन को चुनाव में बहुमत हासिल नहीं हुआ था। सोनिया गांधी ने अन्य पार्टियों के नेताओं के धरों में धूम धूम कर सरकार गठन के लिए आवश्यक संख्या जुटाई। उन्हें प्रधानमंत्री बनाने की तैयारी भी हो गई, लेकिन अंत समय में उन्होंने खुद प्रधानमंत्री बनने से इनकार कर दिया और मनमोहन सिंह का नाम प्रधानमंत्री लिए आगे कर दिया। इस तरह मनमोहन सिंह की सरकार अस्तित्व में आ गई

2009 मे स्थितियां अलग थीं। इस बार चुनाव के पहले मनमोहन सिंह को ही प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में आगे कर कांग्रेस चुनाव लड़ रही थी। यूपीए अपने बूते सरकार बनाने लायक संख्या तक लगभग पहुंच गई। खुद कांग्रंेस की सीटें 200 से ज्यादा हो गईं। पहली सरकार को वाम दलों का बाहर से समर्थन हासिल था। इस बार उनका समर्थन सरकार के साथ नहीं है, लेकिन सरकार के अंदर तृणमूल कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंस आ गई थी। राजद और लोजपा यूपीए से बाहर हो चुके थे। बाद में झारखंड मुक्ति मोर्चा भी सरकार से बाहर हो गया। डीएमके और एनसीपी का साथ बना रहा।

पहली सरकार में वामदलों का समर्थन पाने के पहले यूपीए ने एक साझा कार्यक्रम तैयार किए थे, जिसके अनुसार ही सरकार को चलना था। उस कार्यक्रम के क्रियान्वयन को लेकर बामदलों के साथ मनमोहन सिंह सरकार की ठनी रहती थी। तनाव को दूर करने के लिए सोनिया गांधी बीच में आती थी और मामला शांत होता था। इस बार उस तरह का कोई साझा कार्यक्रम नहीं है और न ही वामदलों के दबाव के तहत सरकार को काम करना पड़ रहा है।

पर सरकार में अंदरूनी एकजुटता का अभाव है। कांग्रेस का यूपीए के अन्य घटक दलों के साथ हमेशा ठना रहता है। एनसीपी और कांग्रेस के बीच मतभेद सामने आते रहते हैं। ममता बनर्जी भी समय समय पर सरकार को परेशान करती रहती हैं। डीएमके भी इसमें पीछे नहीं रहता। उसके कारण भी सरकार की जान सांसत में पड़ जाती है। यानी वामदलों के दबाव से मुक्त होने के बाद भी मनमोहन सरकार कभी न कभी किसी न किसी तरह के दबाव में तहत हमेंशा दिखाई पड़ती है।

अन्य घटक दल कांग्रेस पर आरोल लगाते हैं कि उन्हें निर्णय में हिस्सेदार नहीं बनाया जाता।

मनमोहन सिंह की सरकार के दूसरे कार्यकाल का अभी एक साल ही पूरा हुआ है। 4 साल गुजरने अभी बाकी हैं। इसलिए अभी कुठ करने के लिए सरकार के पास काफी समय है। अब यदि सरकार के पहले साल की उपलब्धियों के बारे मे सांेचे तो कोई खास उपलब्धि नजर नहीं आती है। महिला आरक्षण विधेयक का राज्य सभा से पारित करवाया जाना एक बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है, लेकिन यह उपलग्धि आधी ही है, क्योंकि यह अभी तक लोकसभा से पारित नहीं कराया जा सका है। महिला आरक्षण विधेयक के कारण् बाहर से समर्थन दे रहे लालू और मुलायम के दलों ने समर्थन वापस ले लिए हैं, जिसके कारण बजट सत्र में सरकार का बहुमत बनाए रखने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी। शिक्षा के अधिकार के कानून को भी सरकार अपनी उपलब्धि बता सकती है, लेकिन इसके अमल पर ही मतभेद है। खाद्य सुरक्षा कानून बनाने की भी बात चल रही है, लेकिन अभी इस पर भी कुछ सवाल खड़े हो रहे हैं।

महंगाई देश के सामने आज की सबसे बड़ी समस्या है, जिसके सामने मनमोहन सिंह की सरकार बौनी दिखाई पड़ रही है। यह रुकने का नाम नहीं ले रही है। केन्द्र सरकार गरीबों के कल्याण के कार्यो से भी अपने आपको दूर करती दिखाई पड़ रही है। सच यह भी है कि सोनिया गांधी सरकार के गरीबोन्मुख रवैये को बरकरार रखने की पूरी कोशिश कर रही है।

सोनिया गांधी के बारे मे कहा जाता था कि मनमोहन सिंह सरकार का रिमाट कंट्रोल उनके हाथ में है। इसमें सचाई भी थी, लेकिन अब वह रिमोट कंट्रोल से नहीं बल्कि अब खुद सक्रिय होकर सरकार को प्रभावित कर रही हैं। महिला आरक्षण विधेयक को राज्य सभा में उन्हें पेश ही नहीं करवाया, बल्कि पारित भी बरवा दिया, हालांकि सरकार चला रहे लोग झिझक दिखा रहे थे। जाति जनगणना के मामले में भी सोनिया गांधी ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया, जबकि कांग्रेस और सरकार में अनेक लोग इसके खिलाफ हैं। खाद्य सुरक्षा कानून के मामले में भी सोनिया गांधी इसके खिलफ दिए जा रहे तर्कों को नकार रही हैं। सूचना के अधिकार कानून को प्रधानमंत्री कमजोर करना चाहते हैं, पर इसके लिए सोनिया तैयार नहीं हैं। (संवाद)