पिछले सालों की तरह आज भी यह एक खोखली चमक ही है, जिसके बाद फिर से क्षितिज पर काले बादलों का वर्चस्व ही होगा। वादा अर्थव्यवस्था में सुधार लाने का है और उसे पूरा करने की राह गुजरती है गिरते निवेश और निजीकरण के दौर से। इस पूरे क्रम में पूरी व्यवस्था एक बहुआयामी संकट से ग्रस्त हो चुकी है। इसका एक ज्वलंत उदाहरण है उत्तर प्रदेश जहां सौर ऊर्जा का टारगेट 10.7 जिगावाट पर था, और अन्य सभी राज्यों में यह दूसरा बड़ा टारगेट था। इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकॉनोमिक्स एंड फाइनेंन्शियल एनालिसिस, इफा, के अनुसार अपने टारगेट की ओर तत्पर होकर राज्य को लगना चाहिये, इसके लिए तत्काल कदम भी उठाने की जरूरत है ताकि उद्देश्य की ओर समय पर पहुंचा जा सके। यह सिर्फ राज्य के टारगेट तक ही नहीं, बल्कि सारे देश के टारगेट, जो 175 जिगावाट है, तक पहुंचने के क्रम में देर की सारी संभावनाओं को खत्म करने के लिये भी जरूरी है। अक्टूबर, 2021 में यूपी, में ऊर्जा को फिर से नवीन करने के लिए संस्थान स्थापित किया गया जिसकी क्षमता मात्र 4.3 जिगावाट थी, जबकि यह 2022 के तय किये गये पूरी क्षमता कमिशनिंग टारगेट, जो 10.1 जिगावाट था, उसका मात्र 30 प्रतिशत ही था। विद्युत नीति के विशेषज्ञों के अनुसार, उत्तर प्रदेश को इस दिशा में पूरी मेहनत लगानी पड़ेगी क्योंकि न केवल यह राज्य पीछे रह गया है अपने टारगेट से जिसका समय भी खत्म हो रहा है, बल्कि इसकी सौर ऊर्जा क्षमता का टारगेट 10.7 जिगावाट था, और यहां सिर्फ 19 प्रतिशत टारगेट तक ही पहुंचा जा सका है। ऊर्जा नवीनीकरण के लिये देश की पूरी ऊर्जा नवीनीकरण क्षमता में से इस राज्य को कम से कम दसवां हिस्सा तो पूरा करना चाहिये ही था। इस सबकी जड़ में है राज्य व्यवस्था की अकर्मण्यता और सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति गहरी उपेक्षा। यह सिर्फ एक उदाहरण है कि रोजगार के स्रोत किन कारणों से सूखते जा रहे हैं और सार्वजनिक उद्योग क्रमशः निष्क्रिय हो रहे हैं। एक तरफ निजीकरण का दौर तेजी से बढ़ रहा है, दूसरी तरफ फंड की कमी और उसे पूरे करने में हर तरह की बाधाओं से लड़ने के कारण सार्वजनिक क्षेत्र कमजोर पड़ता जा रहा है। जब दिल्ली में बैंक कर्मचारियों की दो दिवसीय देशव्यापी हड़ताल के बाद दिसंबर 15, 2021 को ए.आई.बी.ई.ए. के नेतृत्व में वित्तमंत्री के साथ बैठक हुई तो जो तथ्य उभर कर आया था वह था कॉरपोरेट क्षेत्र की मनमानी और लापरवाही जिसके चलते सार्वजनिक क्षेत्र और इस क्षेत्र के बैंकों में संकट का साया गहराने लगा है। इसका एक ज्वलंत उदाहरण है एन.पी.ए. (नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स) बढ़ोतरी और जिसका परिमाण बढ़ता ही जा रहा है, और इसके लिये जवाबदेह है कॉरपोरेट क्षेत्र। इन सभी एन.पी.ए. को बैंकों को बिना भुगतान के बंद करना पड़ रहा हैं, क्योंकि आगे बढ़ पाने की हर राह रुक चुकी है। इस संदर्भ में यह सत्य भी उजागर होता है कि अर्थ व्यवस्था की गिरती दशा का कारण उनका राष्ट्रीयकरण नहीं है। यह तो कॉरपोरेट और बड़े पूंजीपतियों की सोची-समझी नीति थी जिसके अनुसार उन्होंने बैंकों को समय रहते अपनी किश्तें अदा नहीं की, और इस तरह इन बैंकिंग संस्थाओं को संकट में डाला, और साथ ही देश की अर्थव्यवस्था भी पतन की स्थिति में आ गई। निजीकरण की ओर बढ़ते हर कदम के साथ देश निर्धन होता जाता है और रोजगार की संभावनाएं भी खत्म होने लगती है! साथ ही इसके फिर से जीवित होने की संभावनाएं भी नष्ट होती जाती है। इस सबके साथ ही देश की जनता द्वारा अपनी गाढ़ी कमाई का हिस्सा जो टैक्स के रूप में राष्ट्र निर्माण में उन्होंने लगाया था, उसके प्रति भी दायित्वहीनता रहती हे। जनता का पैसा इस तरह बर्बाद करने के प्रति निजी क्षेत्र की उदासीनता एक भयानक संकेत ही देती है।

देश की सरकार कम से कम इस व्यय पर एक श्वेत पेपर तो दे ही सकती थी, पर उसकी कोई नीयत नहीं दिखाई देती। विनिवेश का दौर स्थायी होता दिखता है। सभी बुनियादी सार्वजनिक उद्योग जो जनता की अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करने में लगे हैं, जिनमें कोयला, स्टील, ऊर्जा, बिजली, पानी, ईंधन, भोजन, दवाइयां आदि हैं बिकने के लिये सजा दिये गए हैं। लेकिन इनकी कीमत कॉरपोरेट घरानों की इच्छानुसार ही तय होती है। ये घराने उत्पादन में या जनता की आवश्यकताओं को पूरा करने में दिलचस्पी नहीं रखते, ये तो उसमें निहित वित्त में ध्यान लगाए बैठे हैं। वित्तीयकरण, पूंजीवाद का एक नया स्तर है, जो विश्व की अर्थव्यवस्था से जुड़ा ही है। राष्ट्र निर्माण के खंभे ध्वस्त हो रहे हैं, और बेरोजगारी का ग्राफ बढ़ता जा रहा है। भूख, महामारी और निराशा के विषाद में जनता डूबी तो है, पर अभी सबकुछ नष्ट नहीं हुआ है, आशा की किरण और उसका कारण भी मौजूद है। यह कारण समाज के उस आधे हिस्से ने दिया है जो हमेशा गुमनामी के अंधेरे में ही रहने को मजबूर है। महिलाओं ने अपने लिये सबसे मुश्किल काम कंधे पर लिया है। उन्होंने कोयले की खदानों में न सिर्फ प्रवेश किया है, बल्कि ‘‘ब्लास्टिंग टीम’’ में भी सहयोग देना शुरू किया है, विस्फोट के लिये प्रशिक्षण ले चुकी हैं और ‘‘बलराम ओपन कास्ट प्रोजेक्ट’’ जो हिंगुल्ला ;तेलचरद्ध में चल रहा है, उसमें पंद्रह महिलाएं नियुक्त भी हो चुकी हैं। ये बारह से पंद्रह टन विस्फोटकों का हर दिन नियंत्रित विस्फोट करती हैं। इन्होंने हर तरह की बंदिशों को तोड़कर इस खतरे से जुड़ने का निर्णय लिया है। ‘‘बलराम कोल प्रोजेक्ट का सालाना कोयला उत्पादन साठ लाख टन है, जो इस निडर, और सूक्ष्म दृष्टि का प्रतीक है-अब तक की पुरानी सोच को ध्वस्त करती यह सुबह सचमुच स्वागत का अधिकार रखती है। (संवाद)