झारखंड में पार्टी की यह स्थिति शीर्ष स्तर के वरिष्ठ नेताओं में मतभेद के कारण पैदा हुई है। पार्टी अध्यक्ष गडकरी खेमेबाजी में व्यस्त उन नेताओं के बीच संतुलन पैदा करने की कोशिश में कोई निर्णय नहीं कर पा रहे हैं।

लाल कुष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज चाहते हैं कि पार्टी वहां सरकार से बाहर हो जाए। उनके दबाव के कारण ही कटौती प्रस्ताव के दिन आनन फानन में पार्टी ने सोरेन सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला कर लिया। उस समय दिखाई गई हड़बड़ी अब महंगी साबित हो रही है। समर्थन वापसी के निर्णय के बावजूद पार्टी समथ्रन वापस नहीं ले सकी, क्योंकि हेमंत सोरेन ने भाजपा को सरकार का नेत्त्व करने का लोभ दे दिया।

पार्टी उस लोभ में फंस र्गइं। लेकिन उस लोभ ने एक नैतिक सवाल भी खड़ा कर दिया है। वह सवाल है कि जब भाजपा कटौती प्रस्ताव के खिलाफ मत देने वाले सोरेन के समर्थन से खुद सरकार बना सकती है, तो फिर उसे उसी सोरेन को समर्थन देने में क्या परेशानी है? यानी श्री सोरेन के साथ भाजपा उनकी थाली में बैठकर भोजन नहीं कर सकती, लेकिन यदि श्री सोरेन के साथ अपनी थाली में भोजन कर सकती है। जाहिर है वर्तमान प्रकरण ने भाजपा के पाखंड का पर्दाफाश कर दिया है।

अब जब श्री सोरेन ने जाहिर कर दिया है कि वे मुख्यमंत्री का पद नहीं छोड़ने वाले हैं, तो फिर भाजपा समथ्रन वापस क्यों नहीं ले लेती? इसका कारण समझना कठिन नहीं है। भाजपा कोई मु!्त में श्री सोरेन को समर्थन नहीं दे रही है, बल्कि वह खुद भी उनकी सरकार में शामिल हैं और उसके नेता रघुवर दास सरकार के एक प्रभावशाली मंत्री है। यदि भाजपा समर्थन वापस लेती है, तो खुद भी वह झारखंड में सरकार से बाहर हो जाएगी। इसके कारण पार्टी की स्थानीय ईकाई नहीं चाहती कि पार्टी सरकार से बाहर हो। स्थानीय ईकाई को राजनाथ सिंह का समर्थन हासिल है।

भाजपा इस सारे प्रकरण में न केवल नैतिक रूप से बल्कि राजनैतिक रूप से भी नुकसान मे रही है। उसकी पार्टी की सरकार बनने पर मुख्यमंत्री कौन हो, इसके लिए भी पार्टी में जंग हुई है। रघुवर दास और अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री के लिए प्रबल दावेदार थे। अंत में अर्जुन मुंडा के नाम पर भाजपा नेतृत्व सहमत हुआ। इस ज्रग में रधुवर दास का खेमा नाराज हुआ है और भाजपा का गैर आदिवासी लोगांे में आधार कमजोर हुआ है। यदि आज फिर झारखंड में चुनाव हो जाए, तो भाजपा को 18 सीटंें पाना भी कठिन होगा।

यानी मुख्यमंत्री का पद पाने के लिए भाजपा ने राज्य में अपना जनाधार भी गंवाया और मुख्यमंत्री का पद भी वह हासिल नहीं कर सकी। केन्द्रीय नेतृत्व राज्य ईकाई को सरकार से आहर आने के लिए समझा पाने में सफल नहीे हो पा रहा है और अपनी किरकिरी खुद करवा रहा है। (संवाद)