श्रमशक्ति के देश के आर्थिक विकास में भागीदारी कम होने के आंकड़ों से स्पष्ट होता है। इन आंकड़ों के अनुसार 2016-17 से 2020-21 के बीच के छह सालों में यह 445 मिलियन से कम होकर 435 रह गया है। कानूनी तौर पर जो उम्र मजदूरों को काम करने की इजाजत देता है, इसमें देश के उद्योगों में मेहनतकशों की भागीदारी अब सिर्फ उनचालीस प्रतिशत तक रह गई है, जिन्हें आज भी रोजगार मिलने की उम्मीद रह गई है। लेकिन 2016-17 में सीएमआईई की रिपोर्ट के अनुसार जहां रोजगार मिलने की उम्मीद और खोज करने वालों को भागीदारी छियालीस प्रतिशत थी वह आज 2020-21 में चालीस रह गई है।
इस बार पैनडेमिक भी अभी तक भयानक नहीं हो पाया है और इसलिये लॉकडाउन भी नहीं है, फिर भी यह संख्या घटती जा रही है। सकल घरेलू उत्पाद ;जी.डी.पी. के विकास के आंकड़ों में भी वृद्धि के बजाय आर्थिक सक्रियता में तेजी से कमी आई है। 2020 के अप्रैल-जून के महीनों मे यह संख्या घटकर सिर्फ चौबीस प्रतिशत रह गई है। आम इंसान पैनडेमिक के बाद भयानक संकटों और दुखों से गुजरता रहा है और जिन्दा रहने के लिये जीविका के साधनों की कमी से जूझता रहा है। देश की समस्त जनता पर इस संकट से उपजी तबाही के असर आज धीरे-धीरे समाने आ रहा है, जिसकी झलक आर्थिक विकास की गिरावट में मिलती है। कोशिश करने पर भी कोई भी विकास और प्रगति का प्रचार संभव ही नहीं हो पा रहा है, क्योंकि वह सब आज हैं ही नहीं। संकट अपनी भयानकता के साथ आज भी अपना असर बनाए हुए है, वैसे इसकी चरम परिणति का समय गुजर चुका है इस समय, सी. एम.आई.ई. की रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में, काम करने के वैध उम्र वालों, जो पंद्रह साल और उससे अधिक है, की संख्या 1085 मिलियन है, और उन्हें रोजगार देने की जिम्मेदारी भी देश की है, लेकिन इसकी कोई भी संभावना, किसी भी रूप में, कहीं भी नहीं दीखती है।
महिलाओं में यह भागीदारी तो बिल्कुल घट गई है। 2021-22 में यह भागीदारी 9.5 प्रतिशत ही रह गई है, जबकि 2015-18 में, यह पंद्रह प्रतिशत थी। पुरुषों में यह भागीदारी, आंकड़ों के अनुसार, 74 प्रतिशत से गिरकर 67 प्रतिशत रह गई है। यह एक अत्यंत ही कष्ट का दौर है। शहरी इलाकों में यह भागीदारी, ग्रामीण क्षेत्रों से कहीं कम रह गई है। इसका आकलन आंकड़ों के अनुसार 44.7 प्रतिशत से गिरकर 37.5 रह गया है। इस गिरावट को 7 प्रतिशत आंका गया है।
ग्रामीण इलाकों में यह गिरावट 46.9 प्रतिशत से 41.4 प्रतिशत हो गई है। हमारे देश के चौबीस राज्यों में से 23 राज्यों में भागीदारी का अनुपात 2016 से काफी नीचे गिरा है। 2022 के मार्च महीने तक इस भयानक गिरावट से आम जनता के लिये जूझना भी संभव नहीं रह गया है। राजस्थान को छोड़कर हर राज्य में इस गिरावट की भयानकता का कहर आज जारी है। दक्षिण भारत के दो राज्यों में यह भयानकता अधिक दिखाई देती है। शुरू में यहां भागीदारी का अनुपात तेजी से बढ़ रहा था, लेकिन अब वहां गिरावट भी तेजी से आ गई है। तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश इसके उदाहरण हैं।
मार्च, 2016 से मार्च 2022 तक यहां भागीदारी का अनुपात तमिलनाडु में बीस से बाईस प्रतिशत तक हुआ। आंध्रप्रदेश में तीस प्रतिशत से घटकर 20 प्रतिशत और फिर 17 प्रतिशत रह गया। नाउम्मीदी का सिलसिला लंबा ही होता जा रहा है। सी.एम.आई.ई. के आंकड़ों के अनुसार, मजदूर बाजार में एक अजब-सा वाकया दिख रहा था। कम से कम 6.6 मिलियन लोग मजदूरों के बाजार से गायब थे। आंकड़ों के अनुसार ही यह गैर-हाजिरी उनकी लगातार टूटती उम्मीदों की ही एक झलक थी। उन्होंने महसूस कर लिया था कि रोजगार मिलने की हर उम्मीद अब खत्म हो चुकी है। हकीकत यह भी है कि मजदूर बाजार से बाहर धकेले जा चुके हैं। सबसे भयानक स्थिति तब आई जब उन्हें व्यवस्था में पहचान मिलना भी बंद हो गया। बेरोजगारी के आंकड़ों से ही उन्हें गायब कर दिया गया।
बेरोजगारों की संख्या और अनुपात को तय करने में उनकी गैरहाजिरी से, गिरावट के आकलन में भी फर्क पड़ गया और नतीजा यह हुआ कि आर्थिक विकास का चेहरा ही बदल गया, इसमें बेहतरी दिखाई देने लगी। बेरोजगारों की संख्या को घटाने से बेरोजगारी दर पर भी असर पड़ा। इसलिये 2022 में जहां रोजगार मिलने की संभावना भयानक तेजी से गिर रही है, वहीं बेकारी दर को ही घटाकर दिखाया जा रहा है। आम जनता को गिरती आर्थिक व्यवस्था में विकास की रोशनी दिखाई जा रही है। जहां रोजगार की संभावनाएं खत्म हो रही थी, वहां बेरोजगारों की संख्या में गिरावट दिखाई जा रही है। (संवाद)
पूंजी बनाम मेहनतकश
आर्थिक विकास में श्रमशक्ति की भागीदारी घटती जा रही है
कृष्णा झा - 2022-04-29 13:21
हम आज वर्गों में बंटे समाज के इतिहास के एक नये अध्याय में प्रवेश कर रहे हैं। ऐसे समाज को आगे बढ़ाने वाली बुनियादी ताकतों में मजदूर का नाम सबसे पहले आता है। उनकी मेहनत से ही पूंजीपति के पास अतिरिक्त मुनाफा आता है जिससे पूंजीवादी समाज विकसित होता है। आर्थिक विकास के क्रम में आधुनिक समाज श्रम शक्ति को प्राथमिक और अनिवार्य तत्व के रूप में स्वीकार करता है। पूंजीवादी समाज की जड़ों में इसी अन्याय की ताकत पर विकास होता है। लेकिन आश्चर्य की बात ये है कि पूंजीवादी समाज आज मेहनतकशों पर निवेश करने में कोई दिलचस्पी नहीं रखता। श्रम शक्ति की इस उपेक्षा से पूंजीवादी समाज का संकट आज गहराता जा रहा है।