इतना तो सोनिया गांधी को पता चल ही गया होगा कि उनके नेतृत्व में कांग्रेस का कोई भविष्य नहीं है। 1998 में वे गलत तरीके से सीताराम केसरी को पार्टी के अध्यक्ष पद से हटाकर खुद पार्टी अध्यक्ष बन गई थी। बिल्कुल माफिया स्टाइल में सीताराम केसरी को हटाया गया था और उसके बाद से ही कांग्रेस का पतन तेज हो गया। 1999 में हुए लोकसभा चुनाव में उस समय तक का सबसे खराब प्रदर्शन कांग्रेस ने किया था। सीतराम केसरी के नेतृत्व में 1998 में लड़ी कांग्रेस को लोकसभा में 140 से ज्यादा सीटें मिली थीं, लेकिन सोनिया के नेतृत्व में 1999 में लड़ी कांग्रेस महज 112 सीटों पर सिमट गई थीं।

उसके बाद भी कांग्रेस का पतन होता चला गया, हालांकि कांग्रेस के बाहर हो रहे कुछ बदलावों का फायदा कांग्रेस को हुआ। उस समय तक गैरकांग्रेस-गैरभाजपा मोर्चा बनाने का बुखार उतर चुका था और भाजपा के खिलाफ भाजपा विरोधियों के मोर्चे बनाए जाने की बात होने लगी थी। राजनैतिक माहौल में आए इस बदलाव के कारण कांग्रेस 2004 में सत्ता में आ गई, जिस राजनैतिक पर्यवेक्षकों ने सोनिया के नेतृत्व में कांग्रेस का उभार मान लिया, जबकि वैसा था नहीं। कांग्रेस की सरकार वामपंथियो, मुलायम, लालू और मायावती के समर्थन से बनी थी। भाजपा को यूपी और बिहार में करारी हार लालू, मुलायम और मायावती के कारण मिली थी। कांग्रेस की सीटें यदि केसरी के 1998 के स्तर से दो चार ज्यादा आई थीं, तो उसका कारण लालू वगैरह से कांग्रेस का चुनावी गठबंधन था।

जिस तरह से 2004 में लालू, मुलायम, रामविलास, मायावती और लेफ्ट ने कांग्रेस का समर्थन किया था, यदि उसी तरह का समर्थन ये तत्व 1997 में सीतराम केसरी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को करते, तो उस समय भी सीताराम केसरी प्रधानमंत्री बन सकते थे, लेकिन उस समय तो जिद गैरकांग्रेस गैरभाजपा मोर्चा बनाने की थी, इसलिए बेहतर स्थिति में रहने के बावजूद केसरी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पराजित दिख रही थी और खराब स्थिति में होने के बावजूद सोनिया के नेतृत्व वाली कांग्रेस विजयी दिख रही थी।

2009 में कांग्रेस ने 2004 से बड़ी जीत हासिल की, लेकिन वह चुनाव मनमोहन सिंह के चेहरे पर कांग्रेस लड़ रही थी। उनकी छवि एक ईमानदार नेता की थी। वे विद्वान अर्थशास्त्री भी हैं। 2008 की विश्वव्यापी मंदी के बावजूद भारत पर उस मंदी का काला छाया नहीं पड़ा था, जिसके लिए मनमोहन सिंह की बाहबाही हो रही थी। अपनी सरकार को खतरे में डालकर भी मनमोहन सिंह ने अमेरिका के साथ परमाणु संधि से अपने पैर पीछे नहीं हटाए थे। इसलिए उनके साहस की जयजयकार भी हो रही थी। इसी माहौल में 2009 का लोकसभा चुनाव हुआ और कांग्रेस 18 साल के बाद 200 से ज्यादा सीटें ला सकी थीं। वह जीत सोनिया के कारण नहीं, बल्कि मनमोहन सिंह के कारण हुई थी। लेकिन राजनैतिक विश्लेषकां के गलत विश्लेषण ने गलती से उसका गलत श्रेय सोनिया गांधी को दे दिया।

मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में कांग्रेस का तेजी से पतन हुआ। मनमोहन सिंह की सत्ता की सोनिया के कारण ही बदनामी हो रही थी। उनकी छवि एक ऐसे प्रधानमंत्री की बन गई, जो सोनिया के इशारे पर काम करते हैं। भ्रष्टाचार के इतने सारे मामले सामने आ रहे थे कि ईमानदार छवि वाले मनमोहन सिंह को ‘चोरों का सरदार’ कहा जाने लगा। उस दौरान जो राजनैतिक चुनौतियां कांग्रेस के सामने आ रही थीं, उनका सामना न तो सोनिया कर सकीं और न ही मनमोहन सिंह। राहुल गांधी तो उस समय उत्तर प्रदेश के दलितों के मुहल्ले में घूम रहे थे, जबकि चुनौतियां कहीं और थी।

बहरहाल, कांग्रेस का तेजी से पतन होता गया और आज यह अपने पतन के सबसे गहरे गर्त में है। न केवल यह सबसे गहरे गर्त में है, बल्कि इसके और पतन की संभावना भी बहुत ही उज्ज्वल है। यह स्प्ष्ट दिख रहा है कि कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी समस्या सोनिया गांधी और उनके दोनों बच्चे ही हैं। भारतीय जनता पार्टी का पूरा विमर्श सोनिया और उनके परिवार को केन्द्र में ही रखकर बनाया गया है, कांग्रेस को केन्द्र में रखकर नहीं। मोतीलाल नेहरू से लेकर राहुल-प्रियंका तक के बारे में लोगों के दिमाग में ऐसी बातें भर दी गई हैं कि वे इन्हे अपना हितैषी मानने को तैयार ही नहीं। वे कांग्रेस को तो बर्दाश्त कर सकते हैं, लेकिन सोनिया और उनकी संतान को नहीं।

यह बात सोनिया और राहुल-प्रियंका को भी समझनी चाहिए। उन्हें तो अबतक इस बात का आभास हो जाना चाहिए था कि वे कांग्रेस की विजय का नेतृत्व कर ही नहीं सकते। इसलिए यदि उन्हें कांग्रेस से प्यार है, तो उन्हें कांग्रेस के नेतृत्व से अपने को अलग कर लेना चाहिए। जैसे ही वे कांग्रेस के नेतृत्व से अलग होंगे, उनके खिलाफ भाजपा द्वारा तैयार किया गया ‘टूल किट’ निष्प्रभावी हो जाएगा और किसी साधारण कांग्रेसी कार्यकर्त्ता के नेतृतव में भी कांग्रेस फिर से पनप सकती है।

राहुल-प्रियंका की अक्षमता बार बार सामने आ रही हैं। पंजाब में अमरींदर सिंह की लाख बुराइयों के कारण कांग्रेस दुबारा सत्ता में आती दिख रही थी, लेकिन राहुल-प्रियंका ने एक हसोड़, जो अभी जेल में है, को पंजाब कांग्रेस की कमान देकर वहां पार्टी का बेड़ा गर्क कर दिया। उत्तर प्रदेश में प्रियंका के नेतृत्व में कांग्रेस ने अपने इतिहास का सबसे बुरा प्रदर्शन किया। मात्र दो विधायक जीते और प्राप्त वोट का प्रतिशत भी तीन से कम ही रहा। दोनों भाई-बहनों को न तो राजनीति की समझ है और न भारतीय समाज की समझ, लेकिन कांग्रेस का नेतृत्व छोड़ने को तैयार नहीं हैं। और सोनिया गांधी की चिंता कांग्रेस नहीं, बल्कि राहुल हैं। पार्टी पर राहुल का कब्जा बना रहे, इसे सुनिश्चित करने के लिए वे कांग्रेस का ही नाश कर रही हैं। (संवाद)