बाहरी ताकत के साथ नहीं दिखाई पड़ने का एक फायदा और माओवादियों को मिल रहा है। वह यह है कि माओवादी नक्सलवादियों की तरह विदेशी ताकत के हाथों का खिलौना कहकर नहीं नकारे जा सकते। नक्सलवादी कहा करते थे कि चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैन, जबकि माओवादी चीन के पूर्व चेयरमैन माओ की विचारधारा में विश्वास करने के बावजूद अपने आपको चीन से अलग करके देखते हैं। यही कारण है कि अनेक वामपंथी उदारवादी बुद्धिजीवियों का समर्थन उन्हें हासिल है।

इतना ही नहीं, बल्कि कांग्रेस के अंदर के एक तबके की भी सहानूभति नक्सलियों के साथ दिखाई पड़ रही है। ऐसा संभव नहीं हो पाता, सदि माओवादी किसी बाहरी ताकत के साथ जुड़ा हुआ दिखाई देते। यह सच है कि छत्तीसगढ़ के भाजपाई मुख्यमंत्री रमण सिंह दावा कर रहे हैं कि माओवादी लश्कर ए तैय्यब के साथ मिले हुए हैं, हालांकि वे यह भी स्वीकार करते हैं कि इसे साबित करने के लिए उनके पास कोई सबूत नहीं है।

यह संभव है कि जब माओवादियों पर सुरक्षा बलों का दबाव बढ़े, तो वे लश्कर जैसे संगठनों द्वारा की गई सहायता की पेशकश को स्वीकार कर लें। लेकिन तब वैसी स्थिति में उनके लिए वामपंथी बुद्धिजीवियों का समथैन हासिल कर पाना मुश्किल होगा। आज तो उन्हें महाश्वेता देवी और अरुंघति रॉय जैसी बौदिधकों का समथैन हासिल है, हालांकि वे उनके द्वारा की जा रही हिंसा का समर्थन नहीं करतीं। दिग्विजय सिंह और मणिशंकर जैसे कांग्रेसी नेताओं की भी सहानुभूति उन्हें मिल रही है, हालांकि वे उनकी हिंसक गतिविधियों की निंदा करने में देर नहीं करते।

कांग्रेस में माओवदियों को लेकर ऊहापोह की स्थिति बनी हुई है। चिदंबरम तो उनके खिलाफ सेना के इस्तेमाल करने तक की बात करने लगे थे। माओवादियों के खिलाफ युद्धोन्माद पैदा करने की कोशिश गृहमंत्री पी चिदंबरम कर रहे थे, लेकिन दिग्विजय सिंह के एक लेख ने पी चिदंबरम की लाइन को कमजोर कर दिया। समस्या के मूल कारण का हवाला दे रहे कांग्रेसियों ने सोनिया गांधी को यह मानने के लिए तैयार किया कि सख्ती के साथ साथ विकास की भी जरूरत है।

पी चिदंबरम माओवाद के मसले पर बहुत ही कड़ा कदम उठाने के हिमायती थे। उसी के अनुरूप वे बयानबाजी भी कर रहे थे और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तक को कहना पड़ा था कि गृहमंत्री को बोलना कम चाहिए। लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व को भी पी चिदंबरम द्वारा की जा रही उस तरह की बयानबाजी पसंद नहीं बा रही थी। इसलिए एक रणनीति के तहत कुछ कांग्रेसी नेताओं से पी चिदंगरम का विरोध करवाया गया। अब तो चिदंबरम ने माओवादियों के मसले पर बोलना भी लगभग बंद कर दिया है।

माओवादियों को लेकर कांग्रेस में जो भ्रम है, उसके केन्द्र में आर्थिक उदारवादी और राजनैतिक समाजवादियों के बीच उत्पन्न मतभेद भी जिम्मेदार है। मनमोहन सिंह, पी चिदंबरम और मंटोकसिंह अहलूवालिया की अपनी ए लाइन है, जो माओवाद की समस्या पर अपने तरीके से सोचता है, जबकि कांग्रेस मे समाजवादियों का भी एक खेमा है, जो अपने तरीके से सोचता है। इसके कारण पार्टी भ्रमित दिखाई पड़ रही है। (संवाद)