उस आलोचना के बाद उस बेंच के एक जज ने आपत्ति जताते हुए कहा है कि वे सिर्फ संविधान के प्रति जवाबदेह हैं। उनके कहने का मतलब है कि वे अपनी उन टिप्पणियों के खिलाफ हो रही प्रतिक्रियाओं की परवाह नहीं करते। जो उनकी टिप्पणियों की आलोचना कर रहे हैं, उन्हें जवाब देना वे जरूरी नहीं समझते, क्योंकि वे सिर्फ और सिर्फ संविधान के प्रति उत्तरदायी हैं। जज साहब गलत भी नहीं हैं। उन्हें अपने फैसलों और टिप्पणियों पर किसी को सफाई देने की जरूरत नहीं है।
लेकिन फिर भी यह कहना गलत है कि वे सिर्फ और सिर्फ संविधान के प्रति ही जिम्मेदार हैं। सच कहा जाय, तो लोकतंत्र के सत्ता के सारे संस्थान लोक के प्रति जवाबदेह है। संविधान भी लोगों की आकांक्षा का ही प्रतिनिधित्व करता है। संविधान को भारत में अमल में भारत के लोगों ने ही लाया है। संविधान सभा में इसको लागू करते समय संविधान सभा के सदस्यों ने भारत के लोग के नाम पर ही इसे अमल में लाने की घोषणा की।
इसलिए नौकरशाही हो, विधायिका हो या न्यायपालिका, अंतिम रूप से सभी देश के लोगों के प्रति ही जिम्मेदार हैं। हां, जिम्मेदार होने का स्वरूप अलग अलग है। विधायिका निर्वाचन से अस्तित्व में आती है, इसलिए उसके सदस्यों को जनता का बार बार सामना करना होता है और उनसे बार बार अपने विधायिका में बने रहने की अनुमति लेनी होती है। नौकरशाही विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों से बंधी होती है। उनके कर्तव्यों का निर्धारण भी विधायिका या विधायिका के लिए चुनकर आए लोग ही करते हैं। इसलिए लोकतंत्र में उन्हें भी अप्रत्यक्ष तौर पर लोक के प्रति ही उत्तरदायी होना होता है।
न्यायपालिका राज्यव्यवस्था का तीसरा स्तंभ है। वह चुनकर नहीं बनती। वह नौकरशाही की तरह विधायिका के अधीन भी नहीं है, लेकिन फिर भी वह यह नहीं कह सकती कि वह विधायिका से पूरी तरह स्वतंत्र है और वह लोगों के प्रति जवाबदेह नहीं। व्यक्तिगत रूप से कहा जाय, तो वास्तव में वह लोगों के प्रति जवाबदेह नहीं, लेकिन लोगो की सामूहिक चेतना और कानून के राज के प्रति जजों को भी जवाबदेह होना ही होगा। जजों की नियुक्ति सरकार ही करती है, हालांकि कॉलेजियम व्यवस्था द्वारा न्यायपालिका ने नियुक्ति की पहल करने का अधिकार अपने हाथ ले लिया है, पर उच्च न्यायपालिका के जजो की नियुक्ति का आदेश तो राष्ट्रपति द्वारा ही जारी किया जाता है और राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही वह निर्णय लेते हैं। और वह मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति जवाबदेह होती है और लोकसभा का गठन चुनाव से होता है।
इसलिए न्यायपालिका को भी लोगों के प्रति जवाबदेह होना ही होगा। डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने कहा है कि लोकराज लोकलाज से चलता है और न्यायपालिक लोकराज की व्यवस्था का ही एक हिस्सा है। इसलिए भले लोगों को जवाब देने के लिए जज अपने को मजबूर नहीं पाते, लेकिन उन्हें भी कानून के राज और लोकलाज का पालन करना ही होता है। वे आदेश शून्य में जारी नहीं करते। वे टिप्पणी भी शून्य में जारी नहीं करते। सुप्रीम कोर्ट के नीचे जज के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट मे अपील होती है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट तो सुप्रीम है। वह जो कहे, उसका पालन होना ही है, हालांकि विशेष परिस्थितियों में कभी कभी नहीं भी होता है। खासकर तब जब सरकार को लगता है कि वह नहीं होना चाहिए और संसद द्वारा कानून बनाकर उस आदेश को निष्प्रभावी बना दिया जाता है।
नुपूर शर्मा के मामले में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने जो टिप्पणियां कीं, वह न्याय व्यवस्था को घ्वस्त करने वाली टिप्पणियां थीं। उनके कारण समाज में अव्यवस्था फैलने के भी आसार थे। नुपूर शर्मा ने रसूल पर एक निजी हमला किया था और उसके बाद हंगामा शुरू हुआ। उस हमले से मुसलमानों की धार्मिक भावनाएं आहत हुईं। मुसलमान आहत हुए। उन्होंने प्रदर्शन किया और प्रदर्शन के दौरान कुछ मारे भी गए। सरकारी और निजी संपत्तियों का नुकसान भी हुआ। देश का सांप्रदायिक वातावरण जो पहले से ही विषाक्त था, कुछ और विषाक्त हो गया।
इनके अलावा नुपूर शर्मा पर मुकदमे हुए। उनका गला काटने के फरमान भी जारी किए गए। नुपूर शर्मा के समर्थन में पोस्ट डालने वाले दो लोगों की हत्या भी हो चुकी है। एक मामला उदयपुर का था। वहां तो हत्यारों ने हद कर दी। न केवल हत्या की, बल्कि उसकी विडियो तैयारी किया और उसे इंटरनेट पर वायरल कर दिया गया। वह सिर्फ हत्या का मामला नहीं रह गया, बल्कि राज्य व्यवस्था को भी चुनौती का मामला था।
इसी पृष्ठभूमि में नुपूर शर्मा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी आई। सुश्री शर्मा पर चार या पांच राज्यों में करीब 20 एफआइआर दर्ज हैं। अकेले बंगाल में 10 एफआइआर हैं। सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर नुपूर से मांग की थी कि सारे मुकदमों को दिल्ली ट्रांसफर कर दिया जाय, जहां वह रहती हैं। इसी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट को फैसला देना था कि सारे मुकदमे दिल्ली ट्रांसफर होंगे ही नहीं। इस तरह की यह कोई नई याचिका नहीं थी। पहले भी इस तरह के मामले सुप्रीम कोर्ट के सामने आए हैं और आमतौर पर सारे मुकदमे एक जगह कर दिए जाते हैं। अर्णब गोस्वामी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दो-एक साल के दौरान ही ऐसा किया था।
नुपूर शर्मा ने भी वही मांग की थी। रसूल पर टिप्पणी करने के बाद सुश्री शर्मा की जान पर खतरा है, इस बात को आज कोई भी समझ सकता है और इसलिए मुकदमा लड़ने के लिए एक अदालत से दूसरी अदालत और एक राज्य से दूसरे राज्य में जाना बेहद ही जोखिक का काम है। इसलिए प्रथम दृष्टि मे याचिका कमजोर नहीं दिखती। लेकिन यदि बेंच को याचिका खारिज करनी ही थी, तो सीधे खारिज कर देनी चाहिए थी, लेकिन जो टिप्पणी की गई, वह किसी भी तरह से उचित नहीं थी।
हालांकि यह सच है कि टिप्पणी को आदेश में नहीं लिखा गया, लेकिन जो मौखिक बात कही गई, वह भी न्याय के सिद्धांत के खिलाफ था। नुपूर शर्मा को नीचली अदालत में मुकदमे का सामना करना है और नीचली अदालत के किसी माननीय जज को फैसला सुनाना है, लेकिन ट्रायल शुरू होने के पहले ही सुप्रीम कोर्ट कहे कि नुपूर शर्मा दोषी है, तो फिर निचली अदालत के पास फैसला करने के लिए रह ही क्या जाता है। वादी पक्ष का वकील सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी का इस्तेमाल अपने पक्ष में जरूर कहेगा और निचली अदालत से कहेगा कि जब सुप्रीम कोर्ट ने नुपूर शर्मा को दोषी मान लिया है, तो फिर आप उससे अलग फैसला कैसे दे सकते हैं। तब क्या निचली अदालत के लिए ट्रायल के दौरान पेश किए गए तथ्यों के आधार पर फैसला देना आसान होगा? राहत की बात सिर्फ यह होगी कि बेंच ने जो कहा, वह लिखित फैसले में नहीं है।
नुपूर शर्मा को बिना उसका पक्ष सुने बिना दोषी करार देने का एक असर यह भी हो सकता है कि आहत मुस्लिम पक्ष और भी उग्र हो जाए और कुछ लोगों में और उग्र होकर बदला लेने की प्रवृत्ति पैदा हो। इसलिए सुप्रीम कोर्ट को इस तरह की टिप्पणियों से बचना चाहिए था। वैसे यह मामला सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के पास भी उठाया गया है। इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि गलती को दुरुस्त कर दिया जाएगा। (संवाद)
नुपूर शर्मा पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
क्या जज सिर्फ संविधान के प्रति जिम्मेदार हैं?
उपेन्द्र प्रसाद - 2022-07-07 03:27
सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की एक बेंच ने भाजपा की निलंबित नेता नुपूर शर्मा के खिलाफ कुछ ऐसी टिप्पणियां कीं, जो आज सार्वजनिक चर्चा का विषय बना हुआ है। सोशल मीडिया पर इसकी खूब चर्चा तो हो ही रही है, सुप्रीम कोर्ट के अनेक पूर्व जजों ने उस बेंच की टिप्पणियों को न केवल अनावश्यक, बल्कि आपत्तिजनक भी बताया है। कुछ पूर्व जजों ने तो उनकी ऐसी आलोचना की है, जो अदालत की अवमानना के स्तर तक भी पहुंच गया है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस से मांग भी की गई है कि उन टिप्पणियों को निरस्त किया जाय।